Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)













Tuesday 15 September 2015

वर्तमान दौर में शिक्षा का महत्व

    
    वर्तमान दौर में शिक्षा का महत्त्व
पढ़ना लिखना सीखो,  ओ मेहनत करने वालो ।
पढ़ना लिखना सीखो, ओ भूख से मरने वालो ।।
क ख ग घ को  पहचानो
अलिफ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई  को  हथियार
बनाकर   लड़ना    सीखो
पढ़ो,  लिखा  है  दीवारों पर मेहनतकश का नारा ।
पढ़ो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा ।
पढ़ो,  अगर  अंधे विश्वासों  से  पाना है छुटकारा ।
पढ़ो,   किताबें  कहती  हैं- सारा  संसार  तुम्हारा ।।
जाने-माने रंगकर्मी सफ़दर हाशमी द्वारा रची गई इन पंक्तियों में शिक्षा के महत्त्व को बड़ी बेबाकी के साथ प्रकट किया गया है। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि शिक्षा ही वह माध्यम है, जिससे मनुष्य की आंतरिक शक्ति प्रकट होती है। अगर व्यक्ति शिक्षित न हो, तो मनुष्य व पशु में अंतर नहीं रह जाता है। शिक्षा ही वह माध्यम है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। शिक्षा उस धूप-पानी-मिट्टी की तरह होती है, जो किसी बीज को उपयुक्त वातावरण देकर पेड़ के रूप में विकसित कर देती है। शिक्षा व्यक्ति के विकास का प्रमुख साधन होती है। शिक्षित व्यक्ति ही अपने देश, काल व समाज के विकास को वास्तविक गति प्रदान कर सकता है। इसीलिए किसी देश या समाज की प्रगति या सांस्कृतिक संपन्नता को देखना हो, तो उस देश या समाज के साक्षरता प्रतिशत को देखा जाता है। इसी कारण दुनिया के हरएक देश में शिक्षा को महत्त्व दिया जाता है। जिन देशों ने शिक्षा की जरूरत को महत्त्वपूर्ण मानकर शैक्षिक विकास के लिए काम किया है, वे देश आज विकसित देशों की श्रेणी में गिने जाते हैं। साक्षरता और शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़कर ही दुनिया के विकसित देशों ने विकास की चरम सीमा को प्राप्त किया है।
‘शिक्षा’ संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका सीधा और सरल अर्थ होता है- विद्या या ज्ञान ग्रहण करना। भारतवर्ष की प्राचीनतम शिक्षा पद्धतियाँ इसी अर्थ में संचालित होती रहीं हैं। पुराने समय में, जब आज के जैसे संसाधन उपलब्ध नहीं थे, तब सामान्य लोग अपने अनुभवों के द्वारा या फिर वंशानुक्रम में, पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान अर्जित किया करते थे। आचार-विचार और व्यवहार का, रीति-रिवाजों का, खेती-किसानी-व्यापार आदि का और नीति-मर्यादा का ज्ञान इसी तरह लोगों को मिला करता था। उस समय अधिकांश लोगों को इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होता था। धर्म और अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अलग व्यवस्था होती थी। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में आत्मज्ञान को पाने के लिए, शाश्वत शांति के लिए, मुक्ति के लिए और तत्त्व साक्षात्कार के लिए शिक्षा को माध्यम बताया गया है। बौद्ध धर्म में त्रिशिक्षाओं का वर्णन है। इसमें पहली अधिचित्त शिक्षा, अर्थात् संस्कृत बुद्धि में उच्चतर शिक्षा है। दूसरी अधिशील शिक्षा, अर्थात् आचार-विचार की शिक्षा है। तीसरी अधिप्रज्ञा शिक्षा, अर्थात् तप एवं स्वाध्याय द्वारा विद्या या ज्ञान के उच्चतम स्तर को पाने की शिक्षा है। अर्जित ज्ञान का उपयोग समय, स्थान और व्यक्ति के अनुसार स्वविवेक से करना ही सच्ची शिक्षा होती है। इस प्रकार जीवन की सभी परिस्थितियों में खरी उतरने वाली, लौकिक और पारलौकिक जगत को सफल-सार्थक बनाने वाली शिक्षा को ही उत्तम माना गया है।
पुरातन भारतीय परंपरा में जिस शिक्षा की बात की जाती थी, उसमें लौकिक और पारलौकिक जगत्, दोनों के कल्याण का अंश होता था। आज की शिक्षा का अर्थ केवल लौकिक जगत् तक ही सिमट गया है। आज की शिक्षा भौतिक सुखों और संसाधनों को उपलब्ध कराने से भी जुड़ी है। आधुनिककाल में शिक्षा के जिस अर्थ को व्यवहार में लाया जाता है, उसमें विद्यालयी शिक्षा ही होती है। भारत में आज की जैसी विद्यालयी शिक्षा की शुरुआत गुलामी के दौर में हुई थी। अंग्रेजों ने भारत की परंपरागत शिक्षा-व्यवस्था के खिलाफ आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की शुरुआत की थी, जिसे मैकाले की शिक्षा-नीति के रूप में जाना जाता है। दूसरी ओर देश की आजादी के लिए लड़ रहे स्वाधीनता सेनानियों ने महसूस किया कि शिक्षा ही एकमात्र माध्यम है, जो देश की बहुसंख्य जनता को अंग्रेजों के खिलाफ तैयार कर सकती है। शिक्षित जनसमुदाय तक अपनी बात पहुँचाना आसान होगा। भारत को गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजादी के आंदोलन की यह बड़ी जरूरत थी कि देश की अधिकांश जनता शिक्षित हो, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ खड़ी हो सके और अपने अधिकारों के लिए लड़ सके। इसके लिए सबसे पहली आवाज उठाने वाले स्वाधीनता सेनानी गोपालकृष्ण गोखले थे। गोपालकृष्ण गोखले ने सन् 1910 में सभी के लिए शिक्षा की माँग की थी। उनका विरोध भी हुआ था। बाद में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महात्मा गांधी और जाकिर हुसैन ने शिक्षा के विस्तार को अपने आंदोलन का हिस्सा बना लिया। राजा राममोहन राय ने महिलाओं की दशा सुधारने के लिए उन्हें शिक्षित करने का विधिवत् आंदोलन भी चला रखा था, जिसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए।
देश को आजादी मिली और आजाद भारत के समक्ष अन्य चुनौतियों के साथ ही सबसे बड़ी चुनौती विशाल जनसमुदाय को शिक्षित करने की भी थी। एक लोकतांत्रिक देश की सफलता उसके शिक्षित नागरिकों पर ही निर्भर करती है, क्योंकि अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को जाने बिना लोकतांत्रिक देश के नागरिकों का जीवन गुलामों से बदतर हो जाता है। आज की जीवन शैली और बदलते वैश्विक परिदृश्य में तकनीकी, विज्ञान, सूचना-संचार, स्वास्थ्य शिक्षा और ऐसे ही ज्ञान के अनेक क्षेत्रों को जाने बिना जीवन गुजारना बहुत कठिन है। आज ग्लोबल विलेज की परिकल्पना से शहर ही नहीं, दूरदराज के गाँव और कस्बे भी प्रभावित हो रहे हैं। इसलिए अनेक जानकारियों को प्राप्त करने और अपने परिवेश के प्रति जागरूक रहने के लिए आधुनिक शिक्षा एक अनिवार्य जरूरत बन गई है। इसके साथ ही आज पर्यावरण संकट, प्रदूषण और प्राकृतिक आपदाओं जैसी समस्याएँ किसी एक व्यक्ति को नहीं, सभी को प्रभावित करने वाली वैश्विक समस्याएँ हैं। लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने, शिशु एवं मातृ मृत्युदर में कमी लाने हेतु जानकारी देने और जनसंख्या विस्फोट जैसी समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए जनता को साक्षर करना, उन्हें शिक्षा के माध्यम से जागरूक करना आज के समय की बड़ी जरूरत है। इन समस्याओं को हल करने के लिए भी विज्ञान और तकनीक का ज्ञान होना जरूरी है, जिसे शिक्षा के बिना नहीं पाया जा सकता है। इस तरह आज के जीवन में भी शिक्षा ही मनुष्य की सबसे बड़ी सहयोगी है। शिक्षा के माध्यम से कोई व्यक्ति अपने अधिकारों को जान सकता है। वह अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं से स्वयं को और अपने समाज को बचा सकता है, मुसीबत में पड़े लोगों को रास्ता दिखा सकता है। आधुनिक संदर्भ में साक्षरता को शिक्षा की पहली सीढ़ी माना जाता है, इसलिए शिक्षित होने से पहले साक्षर होना जरूरी है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर वैश्विक स्तर पर यह जरूरत महसूस की गई कि व्यक्तिगत, सामुदायिक और सामाजिक रूप से साक्षरता के महत्त्व का प्रचार-प्रसार किया जाए। इस कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने 17 नवंबर, 1965 के दिन यह फैसला लिया कि हर वर्ष 08 सितंबर को विश्व साक्षरता दिवस मनाया जाए। सन् 1966 में दुनिया में पहला साक्षरता दिवस 08 सितंबर को मनाया गया और अब हर साल इस पर्व को मनाया जाता है। भारत के लिए इस पर्व का अपना विशेष महत्त्व है, क्योंकि भारत में आज भी साक्षरता दर संतोषजनक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के सूचकांक (2015) के अनुसार भारत में साक्षरता प्रतिशत अब भी 75 प्रतिशत के वैश्विक स्तर से नीचे है।
भारतीय संविधान के भाग-4, अनुच्छेद-45 में राज्यों को यह सुझाव दिया गया है कि वे 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें। सन् 1966 में कोठारी आयोग ने भी इस सिफारिश पर जोर दिया, मगर इसमें बड़ा बदलाव सन् 1993 में उच्चतम न्यायालय के जस्टिस उन्नीकृष्णन द्वारा दिए गए फैसले के बाद आया। फैसले के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद-45 में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया। सर्वशिक्षा अभियान और मध्याह्न भोजन योजना की शुरुआत इसी फैसले के अनुपालन में हुई। इस फैसले के कारण ही संविधान के 86वें संशोधन- 2002 में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में जीवन के अधिकार के साथ अनुच्छेद 21क के रूप में जोड़ा गया। शिक्षा का अधिकार कानून-2010 भी इसी फैसले का परिणाम है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने अपनी सिफारिशों में साक्षरता कार्यक्रमों और कंप्यूटर आधारित शिक्षा अभियानों में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग की सिफारिशें की हैं। इन प्रयासों के कारण भारत में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है। 15वीं राष्ट्रीय जनगणना- 2011 के अनुसार देश की साक्षरता दर 64.83 से बढ़कर 74.04 प्रतिशत हो गई। इसमें महिलाओं की साक्षरता दर 65.86 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों की साक्षरता दर 80.9 प्रतिशत है।
साक्षरता और शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण पक्ष महिलाओं का भी है। महात्मा गांधी का कहना था कि एक महिला को शिक्षित करने से एक परिवार शिक्षित हो जाता है। एक बच्चे की पहली पाठशाला उसकी माँ ही होती है और यदि माँ शिक्षित नहीं होगी, तो वह अपने बच्चे को आधुनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए किस प्रकार तैयार कर सकेगी? वह अपने बच्चे को आज की जरूरतों के मुताबिक गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए किस प्रकार तैयार कर सकेगी? इन प्रश्नों के उत्तर महिला साक्षरता में ही मिल सकते हैं। इसके साथ ही महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने के लिए, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने हेतु, महिला सशक्तिकरण हेतु महिलाओं का साक्षर होना अनिवार्य है।
साक्षरता और शिक्षा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष कौशल विकास का है। आज व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से युवाओं को हुनरमंद बनाने की जरूरत है, क्योंकि देश में शिक्षा के विकास का एक स्याह पहलू यह भी है कि ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन की उपाधियाँ लेकर भी कई युवक बेरोजगार हैं, जबकि देश और साथ ही दुनिया में कुशल प्रशिक्षित और हुनरमंद युवाओं की बड़ी माँग है। नेशनल सैंपल सर्वे के आँकड़ों के मुताबिक देश में सिर्फ 3.5 फीसदी युवा ही हुनरमंद हैं, जबकि चीन में 45 फीसदी, जापान में 80 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी युवा हुनरमंद हैं। सर्वे में बताया गया है कि सन् 2019 तक देश को 12 करोड़ हुनरमंद युवाओं की जरूरत होगी। दूसरी ओर दुनिया में भारत के तकनीकी प्रशिक्षित युवाओं की भी बड़ी माँग है। इसी को ध्यान में रखकर हाल ही में सरकार द्वारा ‘वर्ल्ड यूथ स्किल डे’ के अवसर पर ‘स्किल इंडिया मिशन’ की शुरुआत की गई है। इस अभियान के माध्यम से शिक्षा के साथ ही युवाओं को रोजगारपरक कौशल प्रशिक्षण भी दिया जाएगा।
अपने आधुनिक स्वरूप में शिक्षा का महत्त्व प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है। शिक्षा मानव के विकास की पहली सीढ़ी है। अपने अधिकारों के लिए, अपने परिवेश के प्रति, अपने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है। पुरातन-परंपरागत शिक्षा का महत्त्व अपने स्थान पर अवश्य है, मगर आधुनिक जीवन शैली में, आज के समय की शिक्षा के माध्यम से स्वयं को तैयार करना समय की जरूरत है। इतना अवश्य है कि आज की शिक्षा-व्यवस्था में उन मानवीय मूल्यों, नैतिकताओं की आवश्यकता महसूस की जाती है, जिनके अभाव में शिक्षित समाज कई तरीके के विभेदों में, अनैतिक कार्यों में, अमर्यादित व्यवहारों में लिप्त हो जाता है। शिक्षा के साथ जुड़े इस प्रश्न का समाधान पुरातन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था और आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था के मध्य संतुलन बनाकर खोजा जा सकता है। वर्तमान में शिक्षा के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता, मगर शिक्षा के साथ नैतिकता और संस्कारों को जोड़कर उसके उच्च गुणवत्तापरक स्वरूप को सहज भाव से ग्रहण किया जा सकता है और यही आज के दौर की माँग है। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने शिक्षा के महत्त्व पर लिखा है कि-  
शिक्षा है सब काल कल्प-लतिका-सम न्यारी;
कामद, सरस, महान, सुधा-सिंचित अति प्यारी ।
शिक्षा है वह धारा, बहा जिस पर रस-सोता;
शिक्षा है वह कला, कलित जिससे जग होता ।।

                                                                डॉ. राहुल मिश्र



(आकाशवाणी, लेह से दिनांक 07 सितंबर, 2015 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)

Wednesday 19 August 2015

नागवंशीय शासक और उनसे जुड़ी नागपूजा की परंपरा

नागवंशीय शासक और उनसे जुड़ी नागपूजा की परंपरा
सावन के शुक्लपक्ष की पंचमी को नागपंचमी के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि को कल्कि अवतार जन्म और तक्षक पूजा के लिए भी जाना जाता है। हिंदू और जैन धर्मों में नागपूजा का बड़ा महत्त्व है। हिंदुओं के आराध्य शिव ने नाग को अपने गले में धारण किया, श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त कराकर कालिया नाग को मोक्ष प्रदान किया, गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं नागों में अनंत (शेषनाग) हूँ। विष्णु ने भी शेष-शयन करके नागों के प्रति धार्मिक आस्था को स्थापित किया है। जैन धर्म के भगवान पार्श्वनाथ को शेषनाग पर बैठे हुए दर्शाया गया है। पुराणों में बताया गया है कि हमारी धरती शेषनाग के फन के ऊपर टिकी हुई है। इस तरह नाग हमारी धार्मिक आस्था से जुड़े हैं और इसी कारण नाग पंचमी का भी अपना विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। इसके साथ ही नाग पंचमी किसानों और खेती-किसानी से जुड़े लोगों के लिए हिंदू नववर्ष के मुताबिक पहला त्योहार होता है।
अगर इतिहास के दृष्टिकोण से देखें, तब भी नागवंश का अतीत महाभारत काल से भी पुराना नजर आता है। महाभारत काल में पूरे भारत, खासतौर पर हिमालय पर्वत उपत्यकाओं और कैलास पर्वत से लगे भूक्षेत्रों में इनका प्रभुत्त्व था। पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री और कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू ने कश्मीर में आठ पुत्रों- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक को जन्म दिया था। इन्होंने समूचे कश्मीर में अपना राज्य स्थापित किया। नागवंशावली में शेषनाग को नागों का पहला राजा माना जाता है। शेषनाग को अनंत नाम से भी जाना जाता है। कश्मीर का अनंतनाग नगरी इनकी राजधानी हुआ करती थी। वैसे ही तक्षशिला नगरी तक्षक नाग की राजधानी हुआ करती थी। मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। वासुकि का राज्य कैलास पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। नागवंशावली में यह क्रम कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनंत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना आदि शासकों से होते हुए चलता रहा। ये सभी नाग को पूजने वाले नागकुल थे, इसीलिए इन्होंने नागों की प्रजातियों पर अपने कुल का नाम रखा। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में इनका राज्य था। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र में नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नागवंशियों का उल्लेख मिलता है। मध्यप्रदेश के विदिशा में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि(यशनंदि) आदि नागवंशीय राजाओं के शासन का उल्लेख मिलता है। नाग जनजाति का शासन नर्मदा नदी घाटी में भी था। हैहयों ने नागवंश को पराजित कर दिया था, बाद में कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद नागों ने अपना राज्य फिर से स्थापित किया और ये नवनाग कहलाए। इन नवनागों ने अपने राज्य का विस्तार मथुरा, विदिशा, कांतिपुरी (कुंतवार) व पद्मावती (पवैया) तक कर लिया था। नागा आदिवासियों का संबंध भी नागों से ही माना जाता है। कुछ लोग नागदा नामक ग्राम को नागदाह की घटना, यानि जनमेजय के नागयज्ञ से जोड़ते हैं। इनके साथ ही आज भी कई परिवारों में सर्प को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। मालवा क्षेत्र में कई गाँवों में उनके चबूतरे बने हुए हैं। जनभाषा में उन्हें भीलट बाबा भी कहते हैं। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नागवंशीय जातियाँ आज भी हैं। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों के मूल निवासियों के उपनामों, जैसे- धूमल, कालिया, अनंत और फाहल आदि पर गौर करें, तो भारत में समृद्ध नागवंशीय परंपरा के वजूद को आज भी देखा जा सकता है। नागों ने अपने शासनकाल के दौरान वृषभ, त्रिशूल और सर्प के चित्रांकित सिक्के भी चलाए थे, जो खुदाई के दौरान यदा-कदा मिलते रहते हैं। नागकालीन सिक्के काकिणी के नाम से जाने जाते थे, जो अलग-अलग भार के होते थे। इस तरह एक लंबे कालखंड का जिक्र किया जा सकता है, जब समूचे अखंड भारत में और भारत के बाहर भी कई स्थानों पर नागवंशीय शासकों ने अपनी विजय पताका फहराई।
नागवंश की एक शाखा भारशिव भी है। सिर पर शिवलिंग धारण किए प्रतिमाएँ इनका प्रतीक है। नागवंश की इस शाखा के सबसे प्रतापी शासक धाराधीश मंजु थे। इनका राज्य उस समय धारा नगरी (वर्तमान धार) तक विस्तृत था, इसी कारण इन्हें धाराधीश की उपाधि मिली। मंजु के राज्यकाल तक नागों का विंध्य क्षेत्र में अस्तित्व रहा। गणपति नाग इस वंश का अंतिम शासक था। विंध्य पर्वत श्रेणी की तलहटी में गुप्त शासकों का परोक्ष शासन था, उस समय नागवंशी शासक उनके मांडलिक हुआ करते थे। दोनों राजवंशों के बीच रोटी-बेटी के संबंध कायम थे। चूँकि नागवंशी शासक अदिवासी जीवन बिताते थे और विदेशी आक्रांताओं से अपनी पहचान को बचाने के लिए प्राय: युद्ध में व्यस्त रहते थे, इस कारण उनके शासन के प्रतीक नहीं के बराबर ही मिलते हैं। चित्रकूट (उत्तरप्रदेश) के चर ग्राम का सोमनाथ मंदिर इसी कारण अद्वितीय स्थान रखता है, क्योंकि यह मंदिर भारत के समृद्ध नागवंश का दुर्लभ प्रतीक है। बीहड़ों ने इस मंदिर को बचाने का और साथ ही गुमनाम बनाए रखने का काम किया, किंतु अब इस मंदिर की स्थिति ऐसी है कि यदि इसे तत्काल सुरक्षित नहीं किया जाता, तो यह प्रतीक नष्ट हो जाएगा। बुंदेलखंड क्षेत्र के अनेक स्थान-नाम, जैसे- नचकांचन (नचना कुठार) पन्ना, भारगढ़ (बरगढ़), नगनेधी, भारकोट (बरकोठ) और भारगढ़ (बारीगढ़) आदि इस क्षेत्र में नागवंश के शासन-सूत्र की कड़ी को प्रमाणित करते हैं। इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि इस क्षेत्र में ऐतिहासिक खोज करके पुरातन भारत की समृद्धि को जानने-समझने की जितनी बड़ी जरूरत थी, उतना ही कम कार्य इस क्षेत्र में किया गया है।
यह बात तो इतिहास की है, मगर इससे जुड़ा हुआ सांस्कृतिक-धार्मिक और पारिस्थितिकी तंत्रीय-पर्यावरणीय पक्ष भी है। नागवंशीय राजा सर्पपूजक थे। नागवंशियों के काल में सर्प की प्रतिमाएँ अनेक स्थानों पर स्थापित की गई थीं और आज भी कई जगह स्थापित हैं। ऐसा लगता है कि नदी, पर्वत, वृक्ष और तमाम जीव-जंतुओं के साथ ही नाग (सर्प) को धार्मिक आस्था के साथ जोड़कर तत्कालीन शासकों ने धरती के प्रति और अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति जितनी जिम्मेदारी का परिचय दिया था, वह आज भी हमारे लिए मिसाल है। शायद नागवंशी शासकों को आज के जीवविज्ञानियों से ज्यादा अनुभव था, जिस कारण खेती-किसानी में और धरती के पारिस्थितिकी तंत्र में नागों के योगदान की महत्ता को समझते हुए उन्होंने नागों के नाम पर अपने वंश चलाए और आम जनता को नागों के प्रति आस्थावान बनाने के लिए नागपंचमी के रूप में पूजा का विधान भी प्रचलित-प्रसारित किया।
हजारों-हजार वर्षों तक यह परंपरा अबाध रूप से चलती ही रही। देश में विदेशी आक्रांता आए भी, बस भी गए और चले भी गए, किंतु हम धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं भूले। जब अंग्रेजों ने भारत में भू-बंदोबस्त लागू किया, तब भी यह परंपरा चलती रही। दूसरी जगहों के लिए बता पाना तो कठिन है, मगर बुंदेलखंड क्षेत्र में इस परंपरा को देखा जा सकता है। अपने बचपन में, जब चीजों को उनकी सार्थकता के नजरिये से देखना नहीं आता था, तब वे चीजें बड़े अलग तरीके से रोमांचित करती थीं। और आज बचपन की उन यादों को सोचता हूँ तो लगता है कि हमारी पीढ़ी ने अपने अतीत से मिली नसीहतों को, उनके द्वारा हमारे प्रति बरती गई जिम्मेदारियों को इस तरह ताक पर रख दिया है, मानो अपनी आने वाली पीढ़ी को पुरानी अच्छी चीजें सौंपने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आकर खतम ही हो गई हो।
हमारे बचपन में, जब नागपंचमी का पर्व आता था, तब बड़ा उल्लास-उत्साह होता था। यह केवल बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी होता था। उनमें खासतौर से, जो खेती-किसानी से जुड़े होते थे। जो बड़े काश्तकार होते थे, उनके घर पर गाँव के लेखपाल-पटवारी जाते थे। उनके पास छापाखाने का छपा हुआ नागदेवता का चित्र होता था, जिसे वे दरवाजे के ऊपर गोबर से चिपकाते थे। फिर नागदेवता के चित्र की बड़े विधि-विधान से पूजा होती थी। सभी लोग कामना करते थे कि नई फसल, जो हमारे खेतों में तैयार होने जा रही है, उसे चूहों से बचाने के लिए नागदेवता कृपा करेंगे। बाद में सभी लोग पकवानों का मजा लेते थे। यह क्रम अपने घर पर कई बार देखा, अब तो यादों में ही देखने को मिलता है। बहुराष्ट्रीयकरण ने खेती-किसानी के तौर-तरीकों को बदल दिया है, किसानों को बदल दिया है। व्यवस्था में लगे घुन ने पटवारी-लेखपालों को बदल दिया है। बदलाव की इस बयार में नागदेवता पूज्यनीय तो रहेंगे नहीं, निरीह जरूर हो जाएँगे, इस धरती पर अपने वजूद को बचाने के लिए। पेटा और सेव द एनीमल जैसी संस्थाओं ने कब से इसकी चेतावनी भी जारी कर रखी है। मगर मानव ने इस प्लैनेट को केवल अपने लिए ही समझ रखा है। फिर पारिस्थितिकी-तंत्र की कड़ियाँ टूट जाने पर मानव का वजूद कैसे बचेगा, कोई नहीं जानता।
नागवंश के सूत्र भी हैं, उनके वंशज भी हैं और जरूरत भी है कि नागपंचमी के पीछे छिपे पवित्र उद्देश्य को पहचाना जाए और पूरी आस्था के साथ, पूरी श्रद्धा के साथ नागपंचमी मनाई जाए, सर्पों की प्रजातियों को बचाया जाए।
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, अंक- 22-23 में प्रकाशित)

Thursday 28 May 2015

हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा




हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा

आलोचना शब्द की उत्पत्ति लुच् धातु से हुई है। इसका अर्थ होता है, देखना। समाज और साहित्य के मध्य स्थापित संबंधों को देखने का कार्य आलोचना के माध्यम से होता है। साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता को स्थापित करते हुए पाठकों के बीच साहित्य को ले जाना और इस संबंध को उत्तरोत्तर विकसित करते जाना आलोचना की बुनियादी प्राथमिकता होती है। इस कारण आलोचना स्वतंत्र साहित्यिक विधा होती है। भारतीय साहित्य में आलोचना की दीर्घ एवं विकसित परंपरा काव्य-तत्त्व के अनुसंधान की जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से संपृक्त रहकर निरंतर प्रवाहित होती रही है। इस कारण उसका स्वरूप शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक रहा है। भारतीय आलोचना रचनाओं के परीक्षण या मूल्यांकन मात्र तक सीमित नहीं रही। संभवतः इन्ही कारणों से भारतीय आलोचना को ‘अलंकार-शास्त्र’ या ‘काव्य-शास्त्र’ जैसे स्वतंत्र शास्त्र के रूप में, स्वतंत्र विधा के रूप में जाना जाता है।
रस-सिद्धांत की स्थापना करने वाली आचार्य भरत मुनि की रचना नाट्यशास्त्र (लगभग 150 ई.) को भारतीय साहित्य में आलोचना की सर्वप्रथम कृति माना जाता है। भरत मुनि ने इस सिद्धांत की स्थूल रूप-रेखा ही प्रस्तुत की थी, किंतु परवर्ती विद्वानों- भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, धनंजय, विश्वनाथ प्रभृति- ने इसके विभिन्न पक्षों का और अधिक विश्लेषण-विवेचन प्रस्तुत करते हुए इसे पर्याप्त स्पष्ट एवं विकसित रूप प्रदान किया है। वस्तुतः रस-सिद्धांत भारतीय साहित्यशास्त्र की सर्वोत्तम एवं गौरवपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर परवर्ती युग का अधिकांश आलोचनात्मक साहित्य आधारित है।1
अलंकार सिद्धांत, रीति सिद्धांत, ध्वनि सिद्धांत, वक्रोक्ति सिद्धांत आदि के निरूपण, व्याख्या, समन्वय और संशोधन का क्रम भरत मुनि से लेकर सत्रहवीं शती के अंत तक चलता रहा। उदाहरण या सूक्ति के माध्यम से कुछ विशिष्ट कृतियों के सामान्य गुण-दोषों की स्फुट चर्चा के अतिरिक्त विस्तृत समीक्षा इस कालखंड में प्राप्त नहीं होती है। संस्कृत के ‘काव्यशास्त्र’ या ‘क्रियाकल्प’ से रस-संचय करके प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के साहित्यकारों ने इस विधा को समृद्ध किया। हिंदी-काव्य के विकास के कालखंड में, मध्यकाल में केशव, चिंतामणि, भिखारीदास आदि कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र के कुछ प्रमुख एवं प्रचलित सिद्धांतों को लेकर ग्रंथों की रचना की। हिंदी के आधुनिक काल की शुरुआत के पूर्व हिंदी पद्य में रचे गए काव्यशास्त्रीय ग्रंथ भले ही मौलिक न रहे हों और संस्कृत काव्यशास्त्र के पद्यानुवाद तक सीमित रह गए हों, तथापि भारतीय साहित्य की काव्यशास्त्रीय परंपरा को हिंदी के आधुनिक युग से जोड़ने की कड़ी का दायित्व इन ग्रंथों ने निभाया है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
हिंदी के आधुनिक युग की शुरुआत के साथ साहित्य में अनेक बदलाव परिलक्षित होते हैं। आधुनिक युग में गद्य का विस्तार और विकास भी होता है। हिंदी साहित्य के आधुनिक स्वरूप के उदय एवं इसके विस्तार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का अमूल्य योगदान है। आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता एवं पोषक विराट् साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य के सभी उपेक्षित अंगों का विकास किया था, अतः आलोचना साहित्य भी उनके युग-परिवर्तनकारी करों के स्पर्श से वंचित कैसे रह सकता था। यदि संस्कृत के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ लिखा तो आधुनिक हिंदी के जनक बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘नाटक’ की रचना की।2  सन् 1883 में प्रकाशित इस कृति में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने प्राचीन भारतीय नाट्यशास्त्र के साथ ही यूरोप के नाट्यसाहित्य का उल्लेख करते हुए पाश्चात्य समीक्षा-साहित्य का समन्वय भारतीय साहित्य-शास्त्र के साथ किया। यह ऐसा प्रस्थान-बिंदु कहा जा सकता है, जहाँ से आधुनिक आलोचना विधा की शुरुआत मानी जाती है। प्रारंभिक हिंदी आलोचना संस्कृत आलोचना पर ही आधारित थी। जब तक खड़ीबोली का उदय हुआ तब तक विदेशी साहित्य से हम प्रभावित होने लगे थे। खासकर हिंदी गद्य साहित्य के साथ ऐसा हुआ और उसके लिए जिस आलोचना का उदय हुआ, वह कई मामलों में पश्चिम की हू-ब-हू नकल था। साहित्य और आलोचना दोनों पर पश्चिम के साहित्य और आलोचना के न केवल प्रभाव को देखा जा सकता है, वरन् कई बार पूरे-पूरे अनुवाद को हम पाते हैं।3 भारतेंदु युग में विकसित हुई साहित्यिक विधाओं का पोषण प्रायः अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ। इस कारण आलोचना की नवोदित धारा पर भी इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। यदि सकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो आलोचना के क्षेत्र में नवीन संभावनाओं के सृजन हेतु भारतेंदु और उनकी परंपरा में चलने वाले बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, और अंबिकादत्त व्यास आदि ने अमूल्य योगदान दिया। आनंद कादंबिनी और हिंदी प्रदीप पत्रिकाओं में प्रकाशित आलोचनाओं को हिंदी आलोचना की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है।
हिंदी आलोचना के विकास का दूसरा चरण द्विवेदी युग से शुरू होता है। सरस्वती के संपादक के रूप में सन् 1930 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अवतरण हुआ। उन्होंने संस्कृत के कई कवियों की समीक्षा की। उनके द्वारा रचित ‘विक्रमांकदेव चरित’ ‘नैषधचरित चर्चा’ और ‘कालिदास की निरंकुशता’ आदि निबंध कृतियों के परिचय के साथ ही कृति और कवि, दोनों के गुण-दोषों का निष्पक्ष विवेचन करते हैं। ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में द्विवेदी जी ने कवि-कर्म और कवि-कर्म की परिणति, दोनों की स्पष्ट, व्यावहारिक और सामयिक आलोचना करके जो निष्कर्ष दिए हैं, वे वर्तमान में भी प्रासंगिक बने हुए हैं। द्विवेदी युग के अन्य प्रसिद्ध आलोचकों में मिश्र बंधु (गणेशबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र), पं. पद्मसिंह शर्मा, कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन का नाम आता है। मिश्र बंधु द्वारा रचित हिंदी नवरत्न, मिश्र बंधु विनोद; पद्मसिंह शर्मा द्वारा रचित बिहारी सतसई की भूमिका; कृष्णबिहारी मिश्र द्वारा रचित देव और बिहारी तथा लाला भगवानदीन द्वारा रचित बिहारी और देव आदि ग्रंथ हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपना महत्त्व रखते हैं। वस्तुतः द्विवेदी-युगीन साहित्य भारतेंदु-युगीन साहित्य की ही भाँति प्रेरणा देने का कार्य अधिक करता है। उस काल की प्रधान दृष्टि यही थी,  आलोचना भी इस दृष्टि से प्रभावित थी। आचार्य द्विवेदी इसका प्रतिनिधित्व करते थे। चूँकि पुनर्जागरणकालीन भारत आगे बढ़ने के लिए कृत संकल्प था, अतः रीतिकालीन प्रवृत्तियों पर नई यानि वैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ हावी हो रहीं थीं। भारतेंदु द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को आचार्य द्विवेदी ने आगे बढ़ाया- मुख्यतः आलोचना और संपादन के क्षेत्र में।4
हिंदी साहित्य के शुरुआती कालखंड में, भारतेंदु युग में रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में सैद्धांतिक आलोचना के अतिरिक्त ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली गद्य में लिखी गई टीकाओं और इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के रूप में लिखी गई परिचयात्मक आलोचना का सूत्रपात हुआ। द्विवेदी युग में सैद्धांतिक आलोचना, परिचयात्मक आलोचना के अतिरिक्त तुलनात्मक एवं मूल्यांकनपरक आलोचना, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना तथा व्याख्यात्मक आलोचना का विकास हुआ। द्विवेदी युग के परवर्ती छायावाद युग में साहित्य की अन्य विधाओं के नए दौर में प्रवेश करने के साथ ही हिंदी आलोचना में भी एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उपन्यास और कहानी विधाओं के विकास के साथ ही कविता और नाटक में उदित होती नवीन प्रवृत्तियों के विवेचन और विश्लेषण हेतु आलोचना विधा की अनिवार्यता नए ढंग से स्थापित हुई और आलोचना विधा का विकास-विस्तार सामयिक आवश्यकता बनकर उभरा। इसके साथ छायावादी काव्य-प्रवृत्ति अपने अनूठेपन के कारण आलोचना के केंद्र में आई और इसके पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई आलोचनाओं ने आलोचना विधा के विस्तार में अप्रत्याशित योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कालखंड में सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य-चिंतन परंपरा और पाश्चात्य साहित्य चिंतन परंपरा के समन्वय से समृद्ध करके गांभीर्य और वैविध्य प्रदान किया। आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी के काव्य-गुणों के विवेचन के साथ ही हिंदी साहित्य का इतिहास और चिंतामणि आदि ग्रंथों का सृजन करके सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही ऐतिहासिक और व्यावहारिक आलोचना के विकास में योगदान दिया। शुक्ल जी की परंपरा में चलते हुए कृष्णशंकर शुक्ल, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, डॉ. गुलाबराय, आचार्य बलदेव उपाध्याय और रामदहिन मिश्र आदि आलोचकों ने अपने प्रयासों से हिंदी आलोचना को समृद्ध किया।
डॉ. नगेंद्र भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल से प्रभावित थे। वे मूलतः रसवादी आलोचक माने जाते हैं। डॉ. नगेंद्र ने सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही व्यावहारिक और मनोविश्लेषणात्मक आलोचना के क्षेत्र में योगदान दिया। भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के समन्वय और इनके समन्वित रूप को प्रकाश में लाने का अभूतपूर्व कार्य डॉ. नगेंद्र ने किया। डॉ. नगेंद्र को छायावाद के पक्षधर आलोचक के रूप में भी जाना जाता है। डॉ. नगेंद्र के साथ ही आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद का पक्ष लिया। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी छायावादी, स्वच्छंदतावादी, रसवादी, सौष्ठववादी और अध्यात्मवादी समीक्षक माने जाते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी कृति, हिंदी साहित्य की भूमिका(1940 ई.) के माध्यम से ऐतिहासिक आलोचना को स्थापित किया। कबीर, सूर और तुलसी आदि के मूल्यांकन में द्विवेदी जी की मानवतावादी और समाजकेंद्रित आलोचनात्मक दृष्टि देखने को मिलती है। बाबू गुलाबराय ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना का अनुसरण करने के साथ ही व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के परवर्ती युग में हिंदी आलोचना का क्षितिज व्यापक होता गया। आलोचना की विविध पद्धतियों और अलग-अलग दिशाओं में अनेक आलोचक सक्रिय हुए। अनेक आलोचकों को किसी एक वर्ग में रख पाना भी शुक्लोत्तर युग में संभव नहीं रहा। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक पद्धतियों से हटकर मार्क्सवादी आलोचना, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना, शैलीवैज्ञानिक आलोचना और नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विस्तार हुआ। शिवदानसिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त और डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचना के प्रतिनिधि आलोचक माने जाते हैं। डॉ. देवराज, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी और देवराज उपाध्याय दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद जैसी आलोचना की ऐतिहासिक पद्धतियों का निषेध कर ‘नयी आलोचना’ पनपने लगी। साहित्य में रूपवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, संरचनावादी, नयी समीक्षा से भाषावादी आलोचना का तुमुलनाद गूँज उठा। इस बीच अच्छी बात यह हुई कि अब आलोचना केवल कविता-केंद्रित आलोचना न रहकर उपन्यास, कहानी, नाटक, रंगमंच, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी गद्य विधाओं को साथ लेकर बढ़ने व पनपने लगी। इस स्थिति ने हिंदी-आलोचना का सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर क्षेत्र काफी विस्तृत कर दिया है।5  
साहित्य की विविध विधाओं की आलोचना के प्रकाश में आने के साथ ही आलोचना विधा में सक्रिय विद्वानों की संख्या भी तीव्र गति से बढ़ी है। उन सभी का उल्लेख कर पाना भी संभव नहीं है, किंतु इतना अवश्य है कि आलोचना के क्षेत्र-विस्तार का यह सुखद पक्ष है। नाटक और रंगमंच सहित गद्य की विविध विधाओं से जुड़े साहित्यकारों की हिंदी आलोचना में उपस्थिति ने विविधता का, विचारों का फैलाव किया है। साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान भी हिंदी आलोचना के विकास में अभूतपूर्व है। सरस्वती, प्रतीक, आलोचना आदि पत्रिकाओं के बाद नये पत्ते, नयी कविता, निकष, कखग, पहल, दस्तावेज, पूर्वग्रह और समास आदि पत्रिकाओं ने साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से आलोचना को सर्वथा नवीन आयाम दिया है। साहित्यिक पत्रकारिता के साथ अंतरक्रिया में, और उससे स्वतंत्र भी, हिंदी आलोचना ने यों एक लंबी यात्रा की है। भारतेंदु तथा प्रेमघन के साथ शास्त्रीय और गुण-दोष कथन शैली से आरंभ करके आलोचना मिश्र बंधुओं के साथ निर्णयात्मक, और पद्मसिंह शर्मा के साथ तुलनात्मक दौर में आती है। फिर रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से अपने व्याख्यात्मक-विवेचनात्मक रूप में एकबारगी वयस्क होकर वह विकास की कई नई दिशाओं को एकसाथ उद्घाटित करती है। और इसी क्रम में आगे अर्थ संवर्धन की या कि सर्जनात्मक भूमिका अपनाकर अपने रूप में गुणात्मक परिवर्तन लाती है।6 हिंदी आलोचना के इस विस्तार और तथाकथित नई आलोचना को ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा के मानदंड पर खरा उतरते हुए भी अनुभूत किया जा सकता है।
हिंदी आलोचना के भविष्य की दशा-दिशा का विवेचन करने के पूर्व आलोचना के वर्तमान, अर्थात् नई आलोचना की प्रवृत्ति का मूल्यांकन करना समीचीन होगा। प्रगतिवादी आलोचना के बाद अस्तित्व में आई नई आलोचना में व्यक्तिवाद और पूँजीवाद की प्रबलता है। इस आलोचना में भारतीय काव्यशास्त्र लगभग पूर्णतः उपेक्षित हो गया है और वह पश्चिमी चिंतन और आलोचना पर पूर्णतः निर्भर हो गई है। ‘नई आलोचना’ ही नहीं, स्वातंत्र्योत्तर काल की नई लगभग संपूर्ण हिंदी आलोचना एक ओर पश्चिमी आलोचकों, दूसरी ओर अस्तित्ववाद, मानववाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद इत्यादि वादों और तीसरी ओर ‘नई आलोचना’, नवअरस्तूवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, समाजशास्त्रीय आलोचना आदि पश्चिमी आलोचना-पद्धतियों का लगभग पूर्णतः अनुसरण करने लग गई है।7 पश्चिम के विचार और वस्तुओं का अनुकरण करना और पाश्चात्य अंधानुकरण में पड़कर अपने संसाधनों को गौण मानना आजकल की प्रवृत्ति बन गई है और आधुनिकता का, उत्तर आधुनिकता का पर्याय बन गई है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आज के वैश्वीकृत समाज में आलोचना के पुराने मानदंड बड़े काम के नहीं सिद्ध हो सकते। किसी भी आलोचना-पद्धति का स्थिर और जड़ होना गतिशील साहित्य का अवरोधक होता है, परंतु ‘आलोचना के पुराने औजार बाक्स’ में कुछ उपकरण हो सकते हैं, जो थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ भारतीय उत्तर-आधुनिक आलोचना को नया रूप दे सकने में समर्थ हों।8
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में पुरानी पीढ़ी के आलोचकों की सक्रियता ही सम्प्रति दिखाई देती है। युवा पीढ़ी के आलोचकों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। उनकी उपस्थिति भी जो है, उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी तरफ साहित्यिक अनुशासन और साहित्यिक लगाव की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। अखबारों में साहित्य के लिए जगह नहीं। पत्रकार और रचनाकार का जैसा रचनात्मक संबंध पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के बरसों में निर्मित हुआ था, वह पूरी तरह विघटित हो चुका है। उनके बीच अपाट्य खाई खुद गई है। अनियतकालीन पत्रिकाओं की बाढ़ वास्तविक सर्जक या आलोचकीय प्रतिभा की पहचान या प्रतिष्ठा को सुनिश्चित करने में असमर्थ है। ‘अपनी डफली अपना राग’ वाला मुहावरा हू-ब-हू चरितार्थ हो रहा है।9 पश्चिमी साहित्य ने अतिवाद से बचते हुए साहित्य के अनुशासन को इस तरह से स्थापित किया है कि उनका आलोचनाशास्त्र श्रेष्ठ विधा के रूप में विकसित हुआ। हिंदी में यह काम हुआ, किंतु बहुत बाद में और अत्यंत मंथर गति से। वाद, विमर्श और समाजशास्त्रीय दर्शन की परिधियों को तोड़कर आलोचना-बोध के सर्वमान्य प्रादर्श के निर्माण की महती आवश्यकता वर्तमान में है। इस कमी के कारण साहित्य और पाठक के बीच की दूरी बढ़ रही है। हालाँकि इसका एक बड़ा कारण हिंदीभाषी क्षेत्रों में व्याप्त अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और ऐसे ही कई सामाजिक कारण भी हैं, इसके बावजूद आलोचना के दायित्व को भुलाया नहीं जा सकता है। सामयिक साहित्य यदि सामान्य हिंदी पाठक के लिए बोधगम्य नहीं होता तो इसका बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हिंदी आलोचना पर है। साहित्य में बढ़ती हुई दुरूहता, दुर्बोधता, सूक्ष्मता, प्रतीकात्मकता और बिंब-विधान की प्रमुखता आदि के कारण आज का साहित्य- विशेषतः कविता, नाटक और कहानी- सामान्य पाठक के लिए अलंघ्य पर्वत शिखर बनता जा रहा है। आलोचना उसकी सहायता नहीं कर रही। आलोचना में भी असाधारण शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। पाठक का दिग्भ्रमित होना आलोचना की विफलता है।10  
वर्तमान आलोचना के साथ ‘चौककवाद’ का पक्ष भी जुड़ा है। बहुत सारे साहित्यकार अपनी प्रसिद्धि के लिए, चर्चा में बने रहने के लिए प्रायः उन बातों का जिक्र करते हैं, जो साहित्य की मर्यादा के एकदम विपरीत होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने के लिए दूसरे को अपमानित करने, लांछन लगाने की हद तक भी कई साहित्यकार, आलोचक पहुँच जाते हैं। मूल्यहीनता की यह स्थिति भी हिंदी आलोचना के वर्तमान एवं भविष्य के लिए घातक है।
समग्रतः, भारतीय साहित्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा से रस-संचय कर विकसित हुई हिंदी आलोचना अपने उद्भव के साथ ही साहित्य और समाज के मध्य सेतु बनकर, साहित्य की स्वीकार्यता का मानदंड बनकर अपने दायित्वों का सम्यक् पालन करती रही है। ‘विश्वग्राम’ की संकल्पना के साहित्यिक पक्ष के रूप में पाश्चात्य चिंतनधारा को आत्मसात् करते हुए भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ सामंजस्य बैठाकर हिंदी आलोचना के भविष्य को समृद्ध किया जा सकता है। हिंदी आलोचना के सफल, सार्थक भविष्य के लिए पुरानी पीढ़ी के आलोचकों द्वारा युवा आलोचकों को प्रोत्साहन देना और संसाधन उपलब्ध कराना अपेक्षित है तो युवा आलोचकों को मूल्यहीनता, अनुशासनहीनता, चौककवाद और विचारों की संकीर्णता से ऊपर उठकर पक्षपात रहित होकर आलोचना के दायित्व का निर्वहन करना होगा। इन प्रयासों के माध्यम से हिंदी आलोचना के भविष्य की दिशा भटकाव से बचते हुए समृद्धि की ओर उन्मुख होगी और हिंदी आलोचना विधा अपनी सार्थकता के साथ स्थापित हो सकेगी।
संदर्भ-
1.                       हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, गणपतिचंद्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2004, पृ. 475
2.                       वही, पृ. 476
3.                       वेब रेफ़रेंस www.srijangatha.com/mulyankan13 july2011
4.                       हिंदी आलोचना, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवीं आवृत्ति वर्ष 2007, पृ. 31
5.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011, पृ. 786
6.                       हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2002, पृ. 220
7.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011,  पृ. 801-802
8.                       समकालीन आलोचना का दायित्व, भवदेव पांडेय, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 73
9.                       बदलते परिप्रेक्ष्य में आलोचना की अपेक्षित भूमिका, रमेशचंद्र शाह, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 92

10.                   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, वर्ष 1996, पृ. 207

डॉ. राहुल मिश्र

(प्रताप महाविद्यालय, अमलनेर, जलगाँव (महाराष्ट्र) में आयोजित नगेंद्र और समकालीन आलोचना की दिशाएँ,  राष्ट्रीय परिसंवाद, दिनांक 03-04 मार्च, 2014 में प्रस्तुत शोध-पत्र)