Wednesday 11 February 2015

एक देश के ‘पिघलते’ अस्तित्व की दास्तान

एक देश के ‘पिघलते’ अस्तित्व की दास्तान
हिंदी कथा-साहित्य-जगत् में कामतानाथ का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे जितने बढ़िया कथाकार हैं, उतने ही उम्दा उपन्यासकार भी हैं। समग्रता और बड़ी सरलता के साथ वर्तमान के जटिल यथार्थ को जितनी बेबाकी के साथ वे अपनी कहानियों में प्रस्तुत कर देते हैं; वही खुलापन, संपूर्णता, सहजता और यथार्थ का प्रामाणिक प्रस्तुतीकरण उनके उपन्यासों में दिखाई देता है। चाहे ‘एक और हिंदुस्तान’ हो या फिर धार्मिक पाखंड पर केंद्रित ‘समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’, दोनों उपन्यासों में वे समय की ज्वलंत समस्याओं से टकराते नजर आते हैं। स्वाधीनता संग्राम को केंद्र में रखकर लिखे गए उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘काल-कथा’ के माध्यम से वे यथार्थवादी और जमीनी हकीकतों से रू-ब-रू कराते उपन्यासकार के रूप में स्थापित होते हैं। कामतानाथ का ताजा उपन्यास ‘पिघलेगी बर्फ’ उनके इसी लेखकीय कौशल का विस्तार है। इस उपन्यास में एक देश के स्वर्णिम अतीत से लेकर दयनीय वर्तमान तक का समूचा आख्यान है।
दुर्गम इलाकों की जोखिम भरी यात्राओं के वृत्तांत के रूप में रचित कामतानाथ का यह नया उपन्यास- ‘पिघलेगी बर्फ’ हिमालय की तराई में बसे तिब्बत देश की संस्कृति और अस्तित्व के स्वर्णिम अतीत व क्रमिक विनाश के दयनीय वर्तमान को समग्रता के साथ प्रस्तुत करता है। समीक्ष्य उपन्यास में तिब्बती जनमानस के विशद विवरण, तिब्बत की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ ही राजनीतिक कारणों और बड़े-शक्तिशाली देश की सत्तालोलुपता के कारण तिब्बत के अस्तित्व की मार्मिक पतनगाथा को सहज, सरल और रोमांचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास के नायक की जोखिम भरी दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के साथ ही कथा का विस्तार होता है, साथ ही जीवन-संघर्ष की विकट स्थितियों से साक्षात्कार भी होता है।
कथानायक घर छोड़कर भागता है और ब्रिटिश फौज में भरती हो जाता है। फौज के साथ लंबी समुद्री यात्राओं, देश में चलती स्वाधीनता संग्राम की लहर, आजाद हिंद फौज के गठन की सूचनाओं के साथ ही लड़ाइयों और फौजी कार्यवाहियों से थक-हारकर कथानायक का पलायन होता है। बर्मा, आसाम और मलाया के बीहड़ों-जंगलों में भटकते हुए और फिर बर्फीले, दुर्गम पहाड़ी-मैदानी रास्तों से होते हुए तिब्बत तक के लंबे मार्ग में जिंदगी और मौत से जूझते कथानायक का भगोड़ापन और पलायन की प्रवृत्ति, परिस्थितियों से डरकर भागते रहने की स्थितियाँ बेशक अलग ‘थीम’ है, किंतु यात्राओं के विशद वर्णन के बीच इसकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है।
कथानायक के तिब्बत पहुँचने के साथ ही उपन्यास एक नया मोड़ ले लेता है। उपन्यास में तिब्बत का वृहद विवरण यहीं से परत-दर-परत खुलता चला जाता है। तिब्बती जनजीवन की ढेरों बातें, तिब्बतियों का रहन-सहन, वेशभूषा, सामाजिक संरचना और दैनंदिन क्रियाकलाप जीवंत हो उठते हैं। यात्रा-प्रसंगों के साथ ही तिब्बत की भौगोलिक संरचना और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के विविध पक्ष रोचक जानकारियों के जादूई पिटारे की तरह खुलते चले जाते हैं। तिब्बत के धार्मिक परिवेश, रीति-रिवाज और मान्यताओं का वर्णन भी व्यापक रूप से उपन्यास में होता है। तिब्बतियों के आय के स्रोत, यातायात के साधन और तिब्बतियों की विविध आर्थिक समस्याओं की समूची जानकारी भी उपन्यास में उपलब्ध हो जाती है।
उपन्यास में खास तौर पर उन राजनीतिक पक्षों को उजागर करने का प्रयास किया गया है, जिनके कारण लगभग चालीस-पैंतालीस वर्षों के अंदर ही तिब्बत देश अपने पड़ोसी और शक्तिशाली देश की सत्तालोलुपता का शिकार हो गया। चीन की विस्तारवादी नीति ने समूचे तिब्बत को, एक जीवित राष्ट्र को निगल लिया। एक जीवंत संस्कृति का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। तिब्बत राष्ट्र के मुखिया दलाई लामा को अपना वतन छोड़ना पड़ा। चीन ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा, पोटाला राजमहल और बौद्ध विहारों सहित समूचे तिब्बत की काया ही पलट दी। भारत ने भी तिब्बत पर चीन के कब्जे को मान्यता दे दी। कुल मिलाकर तिब्बत की वर्तमान दयनीय राजनीतिक स्थिति और वर्तमान के इस ज्वलंत वैश्विक मुद्दे को सटीक और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करने में उपन्यासकार ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसा क्लिष्ट राजनीतिक विमर्श भले ही उपन्यास को बोझिल और उबाऊ बनाता हो, किंतु भाषा की सहजता और प्रवाहपूर्ण शैली बड़ी आसानी से तिब्बत देश की ज्वलंत राजनीतिक समस्या और उसके अस्तित्व पर मँडराते संकट से पाठकों को अवगत करा देती है।
इन सबके बीच कथानायक और एक तिब्बती युवती के बीच प्रेम-प्रसंग भी चलता रहता है। तमाम बंधन, भटकाव और मानसिक ऊहापोह की स्थितियों से गुजरते हुए अंततः दोनों का विवाह भी हो जाता है। कथानायक की सपत्नीक वापसी, रास्ते में बच्चे की मौत और फिर दुर्गम रास्ते पर चलते-चलते हैजे के कारण पत्नी की मौत के प्रसंग उपन्यास का विस्तार भले ही करते हों, किंतु कथात्मकता का प्रभाव डालने में कामयाब नहीं हो पाते। तिब्बत का सांगोपांग चित्रण और यात्रा-वृत्तांतों की भरमार के कारण कथा-प्रसंगों की संवेदना, पात्रों के सरोकार और चारित्रिक अंतर्विरोध उपन्यास में कहीं दबे-से रह जाते हैं।
उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते भारत के विभाजन का दर्द भी साफ हो जाता है। एक ओर तिब्बत की दयनीय, अस्तित्वहीन स्थिति और दूसरी ओर अखंड भारत के विभाजन के फलस्वरूप उपजी प्रश्नाकुलताएँ और इन सबके बीच कथानायक के सपनों के संसार के उजड़ जाने व सुखद भविष्य की कामनाओं के बिखर जाने की स्थितियाँ भगोड़ेपन और पलायनवादी मानसिकता के साथ मिलकर अजीब विकृति पैदा कर देती है। अंततः उपन्यास गहरे अवसाद और उदासी में डूब जाता है। उपन्यास के अंत में रोमांचक कथा-यात्राओं के स्थान पर गहरा विषाद, मोहभंग और विरक्ति आ जाती है। दुनियावी छल-प्रपंचों और षड्यंत्रकारी घातक स्थितियों का ‘फ्लैश बैक’ देकर उपन्यास पूर्ण हो जाता है। उपन्यास के प्रारंभ से लेकर अंत तक निरंतर चलते रहने वाले यात्रा-प्रसंगों के बीच कथा का प्रभाव भले ही कम हो, किंतु जिस सहजता और प्रवाह के साथ, प्रामाणिक तथ्यों और जानकारियों के साथ तिब्बत देश के क्रमिक विनाश को रेखांकित किया गया है, वह निःसंदेह बेजोड़ है। उपन्यासकार ने इतिहास, वर्तमान और वर्तमान की ज्वलंत समस्या (तिब्बत-समस्या) को समेटकर सक्षम और सफल कृति दी है। उपन्यास की मुहावरेदार, सरल और सुग्राह्य भाषा-शैली और शिल्प के वैशिष्टय ने समीक्ष्य कृति को पठनीय और रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

समीक्ष्य कृति- पिघलेगी बर्फ, कामतानाथ, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2006, मूल्य- 155 रुपये 

                                                                  डॉ. राहुल मिश्र



(वाग्धारा, बाँदा के जनवरी-जून 2008 के अंक में प्रकाशित)

Saturday 3 January 2015

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष ऐसी प्रक्रिया है, जो समाज की छोटी से छोटी इकाई से लगाकर बड़ी से बड़ी इकाई तक, स्वयं में सामाजिक इकाई बनकर रह गए आज के व्यक्ति तक इस तरह चलती है, जो कभी असंतोष, असहमति, पीड़ा, विद्रोह को जन्म देती है तो कभी जीवन को गति और सार्थकता देती है। यह प्रक्रिया मानव-मात्र में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में व्याप्त है, युगों-युगों से। संघर्ष की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम संघर्ष की सार्थकता के प्रतिमान बनते हैं। जीवन के इस गुण-धर्म से साहित्यकार का वास्ता भी युगों-युगों का है। ऐसे में आज के साहित्यकार का संघर्ष की प्रक्रिया से गहरा जुड़ाव होना स्वतः-स्वाभाविक है।
संघर्ष के साथ आज की कविता का संबंध वर्तमान युगबोध के सापेक्ष है। जीवन की यातनाओं को, भोगे हुए यथार्थ को, समाज की विसंगतियों को और परिवर्तित होते मूल्यों के संक्रमण को कविता में उसी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने, प्रकट करने का सार्थक प्रयास अमृतसर (पंजाब) निवासी शुभदर्शन की काव्य-कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ में हुआ है। एक जागरूक पत्रकार अपने समय के यथार्थ को, अपने परिवेश को विविध आयामों से देखता भी है, विश्लेषण भी करता है और सत्यान्वेषण की कामना से संप्रेषित भी करता है। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ कृति के रचनाकार शुभदर्शन एक पत्रकार होने के नाते स्वयं को इन्ही विशिष्टताओं के साथ कवि-कर्म में उतारते हैं। इसी कारण शुभदर्शन का समीक्ष्य काव्य-संग्रह एक जरूरी दस्तावेज़ भी बन जाता है और यथार्थ को परखने का एक मानदंड भी बन जाता है।
‘संघर्ष बस संघर्ष’ में कवि-पत्रकार शुभदर्शन की सैंतीस कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता- घुटन के पैबंद में ही व्यवस्था की विद्रूपताओं के बीच घुटते रहने की पीड़ा फूट पड़ती है-
कब खुलेगा दरवाजा/कब देगा कोई दस्तक/उलाहनों की संकरी गली में/लगी उम्मीदों की हाट पर।। (पृ.19)
भोली थी माँ कविता में माँ के बहाने आधी दुनिया के उस दर्द को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे भोगते रहना कभी मजबूरी लगता है, कभी सरल स्वभाव लगता है तो कभी भावनाओं का व्यापार लगता है। भोली-सी माँ जख्म़ों की चारदीवारी और दुख की छत को घर समझते हुए सबकुछ सहती जाती है। कभी परिवार के लिए, कभी बच्चों की खातिर अपने जीवन को गलाते हुए जब माँ रूपी सुरक्षा कवच टूट जाता है, तब उपजने वाली रिक्तता अहसास दिलाती है कि माँ का होना जीवन में कितनी अहमियत रखता है। वसीयत से मनफी, तस्वीर में अहसास नहीं होता, जड़ उखड़ने से और संघर्ष की विरासत कविताओं में माँ के साथ जुड़कर यथार्थ के विविध आयाम इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि एक-एक शब्द चलचित्र के एक-एक दृश्य की तरह दौड़ता नज़र आता है। एक ओर माँ है, सबकुछ न्योछावर करती हुई और दूसरी ओर आज के युग का कृष्णा है-
कृष्ण की खाल में/आ चुका है कंस/कैसे निभेगा/गोपियों का साथ/बलात्कार व सैक्स हिंसा में/बदल गईं हैं--अठखेलियाँ/भारी हो गया है/पाप का गोवर्धन/पूतना का दूध पीते-पीते/अब मथुरा नहीं जाएगा कृष्ण/न ही करेगा वध/किसी कंस का/वह तो व्यस्त है/भरने तिजोरी/स्विस बैंकों के चेस्ट।। (कब बड़े होगे कृष्णा, पृ.123)
माँ के बहाने कवि ने घटती संवेदना, जड़ से उखड़ते जाने की त्रासदी, संस्कारों के संक्रमण, पलायन, गँवई-गाँव की विरासत के बिखराव और मानवीय मूल्यों के विघटन की स्थितियों को परखा है। संस्कार का सॉफ्टवेयर! कविता कंप्यूटर के युग में इन्ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है।
शुभदर्शन की कविताओं में गौरैया चिड़िया के रूप में एक और प्रतीक है। गाँवों के घरों में, लोगों के आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव के बीच गौरैया का भी स्थान है। वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की संवाहक है। शहरीकरण, आधुनिकीकरण और सबसे ज्यादा मानवीय मूल्यों का संक्रमण उस गौरैया के लिए घातक बन जाता है। शहर की ओर गौरैया और सैय्याद गौरैया कविताएँ इस प्रतीक को साथ लेकर ऐसा ताना-बाना बुनतीं हैं कि समाज की मानसिकता में आ रहे बदलाव की पूरी तसवीर नज़रों के सामने आ जाती है। इस बदलाव से टकराता कवि अभिशप्त अभिमन्यु बनकर हारने को विवश हो जाता है, फिर भी उसके हाथ में गांडीव थमा दिया जाता है, संघर्षरत रहने के लिए। इसी संघर्ष को, हारकर भी निरंतर संघर्षरत रहने की विवशता को, या अनिवार्यता को कवि अपने लोगों के साथ बाँटता भी है और समाज की मानसिकता का पर्दाफाश भी करता है-
इतने उतावले क्यों हो/दोस्त/इत्मीनान रखो/तुमसे वादा किया है/सच बताने का/--बताऊँगा/जरा रुको/अभी मुझे पूरी करनी है/--आत्मकथा/शायद वहीं से मिल जाएं तुम्हें/उन सवालों के उत्तर/जो/समय-समय पर/तुमने उछाले थे/भरी सभा में/मुझे जलील करने। (आत्मकथा, पृ.89)
समीक्ष्य कृति में कवि का संघर्ष वर्तमान के यथार्थ की विकृतियों के साथ भी होता है और वैचारिकता के स्तर पर जीवन जीने के दर्शन-पक्ष पर उभरती विकृतियों के स्तर पर भी होता है। इसमें सबसे अधिक कचोटने वाली स्थिति संवेदनहीनता की बनती है, जब व्यक्ति अपने परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं से इस प्रकार विलग हो जाता है, मानो वह संज्ञाशून्य हो-
भागम-दौड़ के युग में/खिलौना बने संस्कार/चलती-फिरती मूरतें/क्या फर्क है--दोनों में /सोचता है राजा
वे भागदौड़ कर रहे हैं/और हम बिसात पर बैठे निभा रहे हैं/--फ़र्ज/नचा रहे हैं लोगों को/वे भी संवेदनहीन/--हम भी।। (संवेदनाहीन, पृ.86-87)
कवि निहायत दार्शनिक अंदाज़ में कहता है-
संवेदना रिश्तों में होती है/संवेदना घर में होती है/मानवता में भी होती है/--संवेदना/पर दोस्त/जब तन जाती है/अवसादों की भृकुटी/तो मजबूर हो जाता है/--आदमी/उसी संवेदना का गला दबाने/जिसके दावे करते/नहीं थकती जुबान।। (संवेदना और व्यवहार, पृ.88)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ दैनंदिन जीवन की, अपने आस-पास की अनेक स्थूल-सूक्ष्म घटनाओं का तार्किक-भावुक परीक्षण-अन्वेषण करतीं हैं। इनके साथ ही दर्शन का पक्ष भी जुड़ा है, जो सहजता के साथ रास्ता दिखाने का प्रयास भी करता है, बिना उपदेशात्मक प्रपंच का परचम उठाए हुए। बहुआयामी-बहुविध संघर्ष का स्वरूप कविताओं में ऐसा है, जिसे बदलाव की उम्मीद है, जिसमें सकारात्मक वैचारिकी का ऐसा पक्ष है, जो पाठक के मन को उद्वेलित किए बिना नहीं छोड़ता। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ की कविताएँ पाठक की संवेदना को झंकृत कर संघर्ष की ओर उन्मुख कर देतीं हैं। गहन मंथन के लिए प्रेरित कर देतीं हैं।
समीक्ष्य कृति की शुरुआत में ही डॉ. रमेश कुंतल मेघ द्वारा किया गया विश्लेषण है। इसके जरिए पुस्तक की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जाती है। ब्लर्ब पर डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु और डॉ. हुकुमचंद राजपाल की टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी को मिलाकर पुस्तक को पढ़ने से पहले पाठक के मन में एक वैचारिक माहौल बन जाता है और पुस्तक अपने उद्देश्य तक सहृदय पाठक को पहुँचाने में सफल हो जाती है। शुभदर्शन की कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ इसी कारण हिंदी साहित्य के लिए, समय के इतिहास के लिए और वर्तमान के संदर्भ के लिए महत्त्वपूर्ण भी है, संग्रहणीय भी है।
(संघर्ष बस संघर्ष, शुभदर्शन, युक्ति प्रकाशन, दिल्ली-85, वर्ष- 2011, मूल्य- 250/-)

डॉ. राहुल मिश्र

Thursday 11 December 2014

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई

पुस्तक-समीक्षा

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई
अपने परिवेश के यथार्थ को उसके समग्र यथार्थ के साथ देखना और अभिव्यक्त करना आज के दौर की कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। यह कविताकारों के लिए चुनौती भी है। यथार्थ को, समय के सत्य को व्यक्त करने के कारण आज की कविता में कथ्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो गई है। कविता का कथ्य और उसमें निहित चिंतन की प्रभावोत्पादकता को पाठकीय चेतना के उद्वेलन साथ एकाकार कर पाना कवि-कर्म की विलक्षणता के चरम पर स्थापित होता है। इसके लिए कवि का मात्र कवि होना पर्याप्त नहीं होता है। कवि-हृदय भावुक होकर सामयिक यथार्थ को अपने सृजन के माध्यम से शब्दों में पिरो सके, यह भी संभव नहीं है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, पूर्णता के साथ और सत्य की चरमावस्था के साथ अभिव्यक्त कर पाने की जिजीविषा को लेकर आज की कविता संघर्ष कर रही है। कविता के इस संघर्ष की सार्थकता विरले कवियों के सर्जन में ही देखने को मिलती है। भावुक हृदय के साथ अपने परिवेश के समग्र यथार्थ को देखते हुए और साथ ही उसमें जीते और उसे भोगते हुए चिंतन-पटल पर उसके बारीक से बारीक पक्ष को उकेरने की चेष्टा करते हुए अपने कवि-कर्म और कवि-धर्म को निबाहने की चेष्टा करने वाले कवि ही कविता के संघर्ष के वर्तमान से साम्य स्थापित कर पाते हैं। ऐसे ही विरले कवियों में एक नाम है, विमलेश त्रिपाठी का। युवा-कवि विमलेश त्रिपाठी के लगभग सभी काव्य-संग्रहों में कविता के संघर्ष का वर्तमान कदम-दर-कदम अपनी सार्थकता को खोजता प्रतीत होता है। विमलेश त्रिपाठी का हाल ही में प्रकाशित काव्य-संग्रह एक देश और मरे हुए लोग इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
समीक्ष्य कृति में पाँच उपशीर्षकों के अंतर्गत सैंतालिस कविताएँ संकलित हैं। पहले खंड- इस तरह मैं, में कवि अपने कवि-कर्म की तासीर को प्रकट करता है। समीक्ष्य कृति का पहला उपशीर्षक ही कविता के सृजन-संघर्ष को अपने परिचय में प्रकट कर देता है-
एक श द साझा करने में/ करनी पड़ती सदियों की यात्राएं/ और मैं हूं कि लाख कोशिश के बाद भी/ वह कर नहीं पाता ।।
इस कठिन समय में/ बोलना और लिखना/ सबसे ज्यादा दुष्कर होता जाता मेरे लिए ।।
कवि के विचारों का दबाव एक ओर उसे लिखने को प्रेरित करता है तो दूसरी ओर अनुभूति की गहनता लिखने और बोलने की प्रक्रिया को दुष्कर बना देती है। इसके बीच समीक्ष्य कृति की पहली कविता- एक गांव हूं, गाँव से भावनात्मक लगाव प्रकट करती है। एक बूढ़ा हाँफता गांव भौतिकता और विकास के आगमन को अपने अंदर महसूस करता है। कवि बूढ़े हाँफते गांव को अपने अंदर महसूस करता है। अनुभूति का यह जुड़ाव रोते हुए पेड़, रोती बँसवारी और रोती हुई पगडंडी के जरिए गाँव की सच्ची तसवीर को, गाँव के साथ भावनात्मक संलग्नता शब्दों में प्रकट कर देता है। कहीं जाऊंगा नहीं, कविता में मुंडेर पर रोज आकर बैठने वाली चिड़िया में गाँव की उस विरहिणी नवयौवना का अक्स उभर आता है, जिसका कोई अपना बिछड़ गया है। निर्मल हृदय और कोमल मन वाले पंछियों के लिए जिस तरह यह दुनिया माफिक नहीं रह गई, उस तरह की वेदना कवि महसूस करता है, अपने लिए भी। यह वही शहर, बदलते शहरों के जरिए घटती मानवीय संवेदना को, सिमटते मानवीय मूल्यों को और संबंधों की गरमाहट के शीतल होते जाने की दुःखद-दारुण स्थितियों को प्रकट करती कविता है। कला की दुनिया का अस्तित्व भौतिकता के पीछे भागते लोगों की नजरों में कैसा है, उसे कवि ने न केवल स्वीकार किया है, वरन् बेईमान और बेशरम के रूप में बुद्धिमान की नई परिभाषा के बीच मूर्ख बने रहकर कला की दुनिया को बचाने के लिए मूर्खता का वरण कर लिया है। कवि की यह स्वीकार्यता न रोको कोई, कविता के माध्यम से एक कदम आगे बढ़ते हुए शब्द के सर्जकों की वास्तविकता को, उनके वर्तमान को साझा करती है-
कलम बंद करो/ मंच से उतरो/ चलो इस देश की अंधेरी गलियों में/ सुनो उस आदमी की बात/ उसको भी बोलने का मौका दो कोई ।। (न रोको कोई, पृ. 16)
आदमी और जिंदा रहूँगा मैं, कविताओं में गर्व और विश्वास के ढहते-गिरते जाने की त्रासदी के बीच नायकत्व का दर्जा छोड़कर आदमी और मात्र आदमी बनने का संघर्ष एक ओर है तो दूसरी ओर इस संघर्ष के सफल परिणति तक पहुँचने की राह में आने वाली बाधाओं से, वैचारिक संक्रमण से और अन्याय-अराजकता से जूझने का माद्दा भी है। संघर्ष में सच, विश्वास और आत्मगौरव अपनी पूरी शक्ति से प्रतिरोध करता है तो नकारात्मक शक्तियाँ हर बार सच को पराजित करने के प्रयास में गहरी निराशा में डूबती चली जाती हैं। उनकी क्रूरता क्रमशः बढ़ती जाती है और सच हर बार झूठ को पराजित करता जाता है। मैं एक पेड़, कविता में कवि पेड़ से गिरते, धूल में मिलते पत्तों और फिर नए पत्तों के आने के माध्यम से रचनात्मकता की नियति को बयाँ करता है। पेड़ का गिरना रचनाधर्मी की दुखद परिणति को प्रकट करता है, जिस पर उग आने वाली शानदार इमारत रचनाधर्मिता पर हावी होती भौतिक प्रगति की मानसिकता को बयाँ करती है। पेड़ से कहता हूँ, खिड़की पर फदगुदिया, धरती को बचाने के लिए और जीने की लालसा, कविताओं में प्रकृति के साथ भावनात्मक जुड़ाव के बीच मानव और मानवेतर संबंधों की अनेक अनगढ़ परिभाषाएँ यक्साँ हैं।
इस तरह मैं, कविता में कवि अपने मन के भावों को सामयिक स्थितियों के साथ इस तरह एकाकार करता है कि मानवता, मानव-मूल्यों और मानव के बीच कोई भेद नहीं रह जाता है। कवि लिखता है-
इस तरह मैं आदमी एक/ इस कठिन समय का/ जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच/ अशेष...।। (इस तरह मैं, पृ. 26)
इसी कविता में कवि-कर्म के वर्तमान में झाँककर आदमियत को कवि से बड़ा साबित करने का प्रयास भी अपने अनूठे ढंग से होता है-
कविता और कविता के बाहर एक गुमनाम कवि की तरह/ लड़ता हुआ समय के तीखे पहाड़ों गहरी-अंधी खाइयों से/ और इसी बीच कविताएं बनती जातीं असंख्य/ सफेद कागज पर काले-काले अक्षर दौड़ते निरुद्देश्य/ सचमुच का कोई आदमी नहीं बनता दिखता ।। (इस तरह मैं, पृ. 27)
मानसिकता के विकृत होते जाने के बीच एक अनछुआ पक्ष अपने सामयिक यथार्थ के साथ प्रकट होता है। शहरों और गाँवों के बीच की बढ़ती खाई और गाँवों में घटते संसाधन विकृतियों की, व्यवस्था की विद्रूपताओं की नई परिभाषा रचते हैं। गाँवों के वीरान होते जाने और रोजगार के लिए गाँवों के लोगों के शहरों की ओर भागते जाने की दुखद स्थितियों के बीच कवि अपने गाँव को याद कर लेता है-
गांव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढ़े/ स्त्रियां गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए/ जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता/ जंतसार की जगह गूंजता है मोबाइल का रिंगटोन ।। (इस तरह मैं, पृ. 28)
संग्रह का दूसरा खंड है- बिना नाम की नदियां। इस खंड में आधी दुनिया के विविध रंग, उनके सुख-दुख और उनकी अनुभूतियाँ प्रकट होतीं हैं। बहनें, मां के लिए, अगर भेजना, आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर, उस लड़की की हंसी, होस्टल की लड़कियां और एक स्त्री के लिए, कविताओं में कवि ने महिलाओं के जीवन को, उनके संसार को उस शिद्दत के साथ साझा किया है, जिसे महसूस कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। कवि का अनुभूत यथार्थ ऐसी आस्था और श्रद्धा का सृजन करता है, जिसको शब्दों में व्यक्त कर पाना भी कठिन हो जाता है। कवि केवल इतना ही कह पाता है कि-
फिर कहता हूं/ कर्जदार हूं मैं तुम्हारा/ कि कैसे चुकाऊंगा यह कर्ज/ नहीं जानता ।।
हां! फिलहाल यही करूंगा/ कि कल तड़के घर से निकलूंगा/ जाऊंगा उस औरत के घर/ जो मेरे दो बच्चे की मां है/ और पहली बार/ निरखूंगा उसे एक बच्चे की नजर से ।। (उस लड़की की हँसी, पृ. 46)
कभी माँ, कभी आजी, कभी बहन, कभी पत्नी, तो कभी अल्हड़ खिलखिलाती शोख लड़कियाँ-छात्राएँ ऐसी नदियों की तरह से होती हैं, जिनके प्रवाह में जीवन की गति निहित होती है, फिर भी उनका अपना वजूद, उनकी अपनी सोच, अपनी अनुभूतियाँ क्या वहाँ होती हैं? हर समय उन्हें पुरुषों के आश्रित रहना पड़ता है, ये नदियाँ बिना नाम की ही रह जातीं हैं। ऐसी बिना नाम की नदियों की अनुभूति का प्रवाह पाठकों की वैचारिकता को उद्वेलित कर देता है।
संग्रह का तीसरा खंड- दुख-सुख का संगीत, ऐसे संगीत को सुनने के लिए विवश कर देता है, जिसमें दुख और सुख के सुर-ताल होते हैं। जिसे सुन पाना आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में सहज नहीं होता। अपने अंदर झाँककर देख पाना, यांत्रिक जीवन को जीते-भोगते हुए एक व्यक्ति के रूप में स्वयं को महसूस कर पाना बहुत कठिन है। इस कठिन दौर के बीच खुद का विश्लेषण संग्रह के इस खंड में बहुत बारीकी से देखने को मिलता है। बहुत समय पहले और बाद की नींद में सपना, शीर्षक कविता में अतीत की सुखद यादों का स्मरण वर्तमान के एकाकी, भौतिकतावादी, व्यस्त जीवन की जटिलताओं के बीच ऐसे अवसाद का सृजन कर देता है, जिसे सामान्यतः महसूस करना कठिन ही होता है। इसी तरह का भाव सपने कविता में भी प्रकट होता है-
बहुत जमाने पहले बारिश के पानी से भीगते/ जेब में नौकरी की अर्जियां थे/ दफ्तर की सीढ़ियों पर बेमन/ दौड़ते एक जोड़ी जूते/ सामान्य अध्ययन की मोटी किताब के पन्ने में छुपे/ एक लड़की के लिखे/ आखिरी खत के कांपते शब्द थे/ धुंधलाए से ।। (सपने, पृ. 57)
बहुत जमाने पहले की बारिश, ओझा बाबा को याद करते हुए, तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन, अंकुर के लिए, जीवन का शोकगीत, घर, हम बचे रहेंगे और आखिरी बार, कविताओं में मन के भावों के विविध रंग, जीवन की गति के बीच मानस-पटल पर उभरती पुरानी यादों के धुंधलाए-से चित्र और इन सबके साथ वर्तमान यांत्रिक जीवन की भाग-दौड़ में अतीत के सुखों के छूट जाने का दुख प्रकट होता है। अतीत और वर्तमान को चिंतन की धारा में गूँथकर बजने वाला सुख-दुख का संगीत चेतना को अंदर तक झकझोर देता है।
संग्रह का चौथा खंड है- कविता नहीं। इस खंड में क से कवि मैं, महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, नकार, कविता नहीं, क्या करोगे मेरा, तीसरा, बचा सका अगर और जब वह दिन कविताएँ हैं। इस खंड की कविताओं के परिचय में कवि शुरुआत में ही बता देता है कि-
हर दिन/ एक श द लिखने के पहले/ चलता हूं एक कदम
सोचता हूं/  इस तरह एक दिन/ पहुंच जाऊंगा
जहां पहुंचे नहीं हैं अब तक
मेरे श द ।।
वास्तव में, साहित्य के सर्जन का वर्तमान अत्यंत जटिल है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, उसके साथ पूरा न्याय करते हुए अभिव्यक्त कर पाना अत्यंत कठिन है। मध्ययुगीन विरुदावलियों, भक्ति-धाराओं और चारण प्रवृत्तियों से इतर आज की कविता में जब समय का क्रूर यथार्थ उभरकर सामने आता है, तब कविता नहीं रह जाती। वह तो समय का दस्तावेज बन जाती है। ऐसी अभिव्यक्ति के लिए कवि को महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं/ बोलना और चलना होता है चार नहीं तो दो कदम ही/ आदमी की तरह आदमी के लिए ।। (महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, पृ. 78)
कवि-कर्म की सार्थकता तो आदमी की तरह आदमी को देखने में ही है। इससे अलग हटकर कवि-कर्म अपना रास्ता भटक जाता है। संग्रह की कविता- जब वह दिन, में भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त हुए हैं। कवि जब अपने कवि-कर्म की ईमानदारी से च्युत हो जाता है, तब उसके द्वारा रचे हुए शब्दों की कड़ी कविता का रूप नहीं ले पाती है। तब उसके पास सबकुछ होता है, बस कविता नहीं होती है।
संग्रह का अंतिम खंड है- एक देश और मरे हुए लोग। इस खंड की कविताओं में व्यक्ति से लगाकर समाज तक की विविध मनोवृत्तियाँ देखने को मिलतीं हैं। इस खंड की कविताओं का परिचय सर्जन की जटिल पीड़ा को समेटे हुए है। व्यक्ति से लगाकर समाज तक की मनोवृत्ति को शब्द देते हुए कवि उस असहनीय पीड़ा को सहता-भोगता है और उसका अंत मर जाने में ही होता है। समय और समाज के कटु यथार्थ की ऐसी तीक्ष्ण अभिव्यक्ति पाठकीय चेतना को अंदर तक झकझोर देती है।
इस खंड में गालियां, एक पागल आदमी की चिट्ठी, पानी, आम आदमी की कविता तथा एक देश और मरे हुए लोग, शीर्षक कविताएँ हैं। सभी लंबी कविताएँ हैं। जटिल समय में सरल लोगों की, सीधे अर्थों में कहें तो आदमी की नजर से देखी जाने वाली दुनिया की मानसिकता का स्याह पक्ष लगभग सभी कविताओं में इस तरह प्रकट होता है कि पाठक यह सोचने को विवश हो जाता है कि क्या वास्तव में हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं?
संग्रह की शीर्षक कविता- एक देश और मरे हुए लोग, कविता-कथा है। कविता की शुरुआत भंते जी को एक ऐसे देश की कथा सुनाने से होती है, जिसमें हकीकत कथा की तरह लगती है और कथा हकीकत की तरह लगती है। इस लंबी कविता के अलग-अलग पड़ाव परत-दर-परत उस हकीकत को, उस मानसिकता को उघाड़ते चले जाते हैं, जिसका सुनना, जिसे जज्ब कर पाना और जिसके बीच जीने की मजबूरी को ढोना सरल नहीं रह जाता। इन सबके बीच एक साहित्यिक की सच्ची भूमिका के निर्वहन की नैतिक जिम्मेदारी को निभाता कवि कह उठता है-
कविता से हीन इस समय में/ शब्दों से हीन इस समय में/ मूल्यों से हीन इस समय में/ क्या कविता और दुख के साथ ही रहना है/ एक लंबी कविता है यह देश/ और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र ।। (एक देश और मरे हुए लोग, पृ. 151-152)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ समय के सत्य और वर्तमान के यथार्थ से सरोकार रखते हुए अतीत से वर्तमान तक को स्वयं में जज्ब किए हुए हैं। हर-एक कविता समय के कठघरे में खड़े देश को और देश के मरे हुए लोगों को उनके गुनाह सुनाती हुई नजर आती है। अपने परिवेश को बारीकी से देख पाना और उसे अभिव्यक्त कर पाना स्वयं में असाध्य, दुष्कर कार्य है। उससे भी ज्यादा जटिल और असंभव की पराकाष्ठा तक कठिन है, परिवेश के यथार्थ के पीछे की मानसिकता की परख कर पाना, उसे अभिव्यक्त कर पाना। समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ इसी कारण उत्कृष्टतम हैं। कविताओं के सृजन के माध्यम से कवि ने अपने परिवेश के यथार्थ में निहित मानसिकता का बारीक, सटीक, समग्र और सार्थक प्रस्तुतीकरण किया है।
एक भौगोलिक दायरे के अंदर रहने वाले लोग, एक व्यवस्था से संचालित होने वाले लोग, एक डंडे से हाँके जाने वाले लोग अपनी चेतना को, अपनी समझ को और अपनी मानसिकता को इस हद तक मार चुके हैं, इस कदर परमुखापेक्षी हो चुके हैं और सोचने-विचारने की अपनी शक्ति को इस तरह से खो चुके हैं कि जीते हुए भी वे जी नहीं रहे हैं। सामयिक यथार्थ के साथ जुड़े इस तथ्य पर गहनता के साथ, शिद्दत के साथ विचार करने को विवश कर देने के कारण समीक्ष्य कृति का शीर्षक अपनी सार्थकता को प्रमाणित कर देता है।
समीक्ष्य कृति में फदगुदिया, गीत-गँवनई, झुलनी, नथिया, जंतसार, सिनरैनी, मेहीनी, चटकल, भगुआ, चैती, कजरी और सरेह जैसे शब्द कवि के गाँव के साथ जुड़ाव को ही नहीं प्रकट करते, वरन् कविता की आदमियत वाली तासीर को जिंदा रखने की कोशिश करते नजर आते हैं, जो आज की कविता के प्रसंग से छिटकती जा रही है। शहरों के यांत्रिक जीवन के बीच, शहरों की भौतिकता के बीच, भौतिक जगत् के अभावों के बीच, भौतिकता के स्थापित प्रतिमानों से दूर गाँवों के सहज-सरल और इसी कारण दुर्लभ जीवन का स्वाद (मीठा या तीखा ?) आज की कविता के लिए सुलभ नहीं रह गया है। कवि ने कविता के वर्तमान की रिक्तता को भरने की भरसक और प्रायः सफल कोशिश अपनी कृति में की है।
समग्रतः, समीक्ष्य कृति को केवल अच्छी और सुंदर कविताओं के संग्रह के दायरे में रखकर देखा जाना संभव नहीं है। समीक्ष्य कृति बूँद से लगाकर सागर तक, व्यक्ति से लगाकर समाज तक मन और मानसिकता को जाँचने-परखने का पैमाना बन जाती है। देश, काल और समाज की मानसिकता को जानने के लिए जरूरी दस्तावेज के रूप में, कवि-कर्म और कवि-धर्म के निर्वहन हेतु जटिल, असाध्य संघर्ष की चेतना के स्तंभ के रूप में और मानवतावादी, मूल्य आधारित सर्जना के प्रयासों के एक आयाम के रूप में समीक्ष्य कृति अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इस कारण पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य कृति- एक देश और मरे हुए लोग, विमलेश त्रिपाठी, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण- 2013, मूल्य- 99/- 
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, संयुक्तांक- 18-19, वर्ष- 7, सितंबर-2014 अंक में प्रकाशित)

Wednesday 10 December 2014

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य
सामान्य रूप से ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ होता है और अर्थशास्त्रीय कार्य-व्यवहारों में ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग किसी वस्तु की भौतिक उपादेयता को भौतिक रूप से ही प्रकट करने या सिद्ध करने के अर्थ में होता है। दर्शन के धरातल पर मूल्य का अर्थ अर्थशास्त्रीय ‘मूल्य’ से एकदम अलग और व्यापक होता है।
दर्शन के क्षेत्र में मूल्य को उसके व्यापक अर्थों में परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा पाश्चात्य दर्शन के प्रभाव से भारत में विकसित हुई है। भारतीय दर्शन जिन आदर्श तत्त्वों की स्थापना की बात कहता है, उनकी उपादेयता का मूल्यांकन करके पाश्चात्य दर्शन ‘मूल्यवाद’ की अवधारणा को स्थापित करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दर्शन पारलौकिक या अभौतिक तत्त्वों के साथ ही लौकिक या भौतिक तत्त्वों की उपादेयता का विचार भी करता है और उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभक्त करके मानव तथा मानवता के लिए उपयुक्तता के क्रम का निर्धारण भी करता है। इस प्रकार मूल्यवाद के अंतर्गत वे सभी तत्त्व एवं पदार्थ समाहित हो जाते हैं, जो मानव की इच्छाओं से पूर्णतः या अंशतः जुड़े हुए होते हैं।
दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में ‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने इसी आधार पर मूल्यों के निम्न प्रकार बताए हैं।
1.         शारीरिक मूल्य- जिससे शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है; अन्न, भोजन आदि।
2.         आर्थिक मूल्य- धन, संपत्ति आदि।
3.         मनोरंजन का मूल्य- खेल आदि मन लगाने की वस्तुएँ।
4.         साहचर्य का मूल्य- मित्रता आदि।
5.         चारित्रिक मूल्य- सच्चाई, ईमानदारी आदि।
6.         सौंदर्य संबंधी मूल्य- कला, सुंदरता, चित्रकारी आदि।
7.         बौद्धिक मूल्य- ज्ञान।
8.         धार्मिक मूल्य- ईश्वर, आत्मा आदि।
इनमें से शारीरिक मूल्य, आर्थिक मूल्य और मनोरंजन का मूल्य जैविक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। साहचर्य का मूल्य और चारित्रिक मूल्य सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। सौंदर्य संबंधी मूल्य, बौद्धिक मूल्य और धार्मिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं।1
इन सभी मूल्यों के अंतर्गत मानवीय कार्य-व्यवहारों से लेकर समाज और विश्व तक की गतिविधियाँ, कार्य-व्यवहार और दिशा-दशा संचालित होती है, नियंत्रित होती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ‘मूल्य’ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि, “हमारे आचरणों और व्यवहारों का समूहीकरण ही ‘मूल्य’ नामक धारणा के रूप में स्थापित होता है। ये धारणाएँ ही हमारे व्यवहारों का निर्देशन करतीं और आदर्शों की स्थापना करती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अच्छे-बुरे और सही-गलत की पहचान और घोषणा करता है। इसीलिए जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।”2 जीवन के साथ साहित्य के समानुपातिक संबंध होते हैं और इसीलिए मूल्यों का यह परिवर्तन साहित्य में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति साहित्य साथ समाज के संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होती रही है और आज भी प्रयोग की जाती है। यदि इस आधार पर देखा जाए तो मूल्यवाद  के साथ साहित्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही साहित्य समाज का दीपक होता है, इस उक्ति पर विचार किया जाए तो निस्संदेह स्वीकार करना होगा कि जब समाज मूल्यों से विलग होकर अपनी ऊर्जा को मानवताविरोधी गतिविधियों में लगाना प्रारंभ कर देता है, तब साहित्य उदात्त मानवीय मूल्यों की दुहाई देकर दीपक की भाँति समाज को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इस प्रकार मूल्यवाद  के साथ साहित्य के घनिष्ठ अंतर्संबंधों को जाना-समझा जा सकता है।
मूल्यवाद  की अवधारणा हिंदी साहित्य में घोषित तौर पर दिखाई नहीं देती, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास के युग निर्धारण में साहित्य के साथ जुड़े मानवीय मूल्यों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का कालनिर्धारण कालखंड विशेष में प्रचलित मूल्यों का प्रतिनिधि प्रतीत होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में भी मूल्य की यह अवधारणा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। हिंदी साहित्येतिहासकारों ने सन् 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रांति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभ का कालखंड निर्धारित किया है। सन् 1850 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म और उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर आधुनिक युग के प्रथम उपविभाजन, सन् 1857 से सन् 1900 ई. को भारतेंदु युग की संज्ञा दी गई है। अर्बन द्वारा निर्धारित किए गए मानवीय मूल्यों के आधार पर भारतेंदु युग का मूल्यांकन इस युग की साहित्यिक विशिष्टताओं को जानने-समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1857 की क्रांति भारतीय समाज के लिए एकदम अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रांति ने भारतीय समाज की दिशा और दशा को परिवर्तित किया। समाज के साथ ही साहित्य में, विचारों में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत हुई। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। इस देश के लोग भी नये संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए। साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह प्रक्रिया भारतेंदु के समय में हुई, वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की जैसी चिनगारियाँ गद्य में दिखायी पड़ीं, वैसी पद्य में नहीं।”3
भारतेंदु युग में गद्य के माध्यम से विकसित हुई आधुनिक जीवन-चेतना और नवीन वैचारिकता की सीधा संबंध बौद्धिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य, साहचर्य का मूल्य और सौंदर्य संबंधी मूल्य से है। भारतेंदु युग के पूर्ववर्ती रीतिकाल में साहित्य जिस प्रकार मनोरंजन के मूल्य, शारीरिक मूल्य और आर्थिक मूल्य से जुड़कर अनुत्पादक हो चुका था, उस परंपरा को त्यागकर भारतेंदु युग में साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। भारतेंदु युगीन काव्य एवं गद्य साहित्य की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन इस तथ्य को प्रभावी रूप से स्थापित करने हेतु महत्त्वपूर्ण होगा।
राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रारंभ भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र इस काव्य-चेतना के प्रवर्तक कवि थे। “उन्होने अपनी विभिन्न रचनाओं में धार्मिक पाखंडों, सामाजिक दुराचारों एवं राजनीतिक पराधीनता का दिग्दर्शन स्पष्ट रूप में करवाया है।”4 भारतेंदु युग में राष्ट्र का अर्थ छोटे-छोटे रजवाड़ों, रियासतों में बँटे भारत को एक सूत्र में बाँधने के आशय से था। वीरगाथा कालीन प्रवृत्तियों से अलग हटकर और क्षेत्रीय संकीर्णता को त्यागकर समूचे भारत को एक राष्ट्र की दृष्टि से देखने की यह नई शुरुआत आदर्श मानवीय मूल्यों की स्थपना का सर्वथा नवीन आयाम है। इसी से जुड़ा हुआ पक्ष राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य भाषा का है। बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज आदि क्षेत्रीय बोलियों में बँटे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने किया। समूचे देश को जोड़ने और आपसी वैमनस्य को समाप्त करके अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करने में भारतेंदु युगीन साहित्य का योगदान एक ओर अभूतपूर्व और मूल्यवान है तो दूसरी ओर साहचर्य का मूल्य साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
बौद्धिक मूल्य के स्तर पर भी भारतेंदु युगीन साहित्य खरा उतरता है। जहाँ एक ओर अंग्रेजों के विरोध में उस युग के साहित्यकार लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर खुले हृदय से अंग्रेजी भाषा के साहित्य की विशिष्टताओं को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् भी कर रहे थे। संस्कृत साहित्य के साथ ही अंग्रेजी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारतेंदु युग की अपनी विशेषता है। भारतेंदु मंडल के कवि श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों का खड़ीबोली हिंदी और ब्रजभाषा में अनुवाद किया। बौद्धिक मूल्य के साथ ही सौंदर्य संबंधी मूल्य और मनोरंजन का मूल्य भारतेंदु युग में प्रचलित समस्यापूर्ति की काव्य पद्धति में देखने को मिलता है। “कवियों की प्रतिभा और रचनाकौशल को परखने के लिए कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती थी। भारतेंदु द्वारा काशी में स्थापित कविता-वर्द्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज, बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (ज़िला आज़मगढ़) में स्थापित कवि-समाज आदि ऐसे मंच थे, जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होती थीं और समस्यापूरण को प्रतियोगिता के रूप में प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इसमें भाग लेने में संकोच नहीं करते थे और नये कवियों का इससे यथेष्ट उत्साहवर्द्धन होता था।”5
भारतेंदु युगीन हास्य-व्यंग्य भले ही मनोरंजन के मूल्य से जुड़ा हुआ हो, मगर इसमें भी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रदर्शन इतनी गहराई के साथ उभरता है कि हास्य-व्यंग्य में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। प्रस्तुत है एक बानगी-
जग  जानैं  इंगलिश  हमैं,  वाणी  वस्त्रहिं  जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय।।
और
मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति  मान  धन सब  कुछ  लूटे।
पागल कर मोहिं करे खराब, क्यों सखि सज्जन? नहीं सराब।।
भारतेंदु युगीन साहित्य में परिलक्षित धार्मिक मूल्यों पर साहचर्य के मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों और बौद्धिक मूल्यों का समावेश मिलता है। भारतेंदु युगीन भक्ति-भावना कड़े धार्मिक बंधनों में जकड़ी हुई नहीं थी, वरन् सभी धर्मों, मतों पंथों के समन्वय से; व्यावहारिकता और खुलेपन से तथा देश के प्रति अनुराग से जुड़कर विकसित हुई थी। फलतः ऐसी भक्ति-भावना ने समाज को जोड़ने का कार्य किया और भक्ति से जोड़कर राष्ट्रप्रेम की अलख जगाने का कार्य किया। भारतेंदु युगीन भक्ति भावना ने धार्मिक पाखंडों, कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। इस प्रकार भारतेंदु युगीन काव्य की भक्ति-भावना विषयक प्रवृत्ति भी उच्चतम मूल्यों की स्थापना के मापदण्ड पर खरी उतरती है।
भारतेंदु युगीन कवियों ने रीतिकालीन दरबारी काव्य परंपरा को त्यागकर जनता की समस्याओं का निरूपण व्यापक रूप में किया है। भारतेंदु युगीन काव्य की सामाजिक चेतना नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, छुआछूत, भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के विरोध में खड़ी होती है। इस बदलाव के संदर्भ में डॉ. साधना शाह लिखती हैं कि, “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण चीजों को देखने-परखने के हमारे रवैये में अंतर आया। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। परंपरागत धार्मिक साहित्य और नवीन औद्योगिक युग के बीच अंतर्विरोध सामने आया। हमने महसूस किया कि हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं। वह अप्रगतिशील और दकियानूसी है। परिणामतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में हमारे मध्ययुगीन बोध के खिलाफ जनमत बनने लगा। लोग आधुनिक मूल्यों के प्रति आकृष्ट होने लगे।”6
भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य में नवीन मूल्यों की स्थापना की प्रवृत्ति काव्य की अपेक्षा सशक्त रूप में दृष्टिगत होती है। इसका प्रमुख कारण गद्य की यथार्थ से निकटता और अभिव्यक्ति की सशक्तता है। भारतेंदु युग में हिंदी नाटकों से ही गद्य की शुरुआत होती है। इस तथ्य के पीछे नाटकों की सामाजिकता, सम्प्रेषण की प्रभावोत्पादकता और नाटकों के मंचन का सांगठनिक कौशल (Unity of Action, Time & Place) कार्य करता है। “ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज  और आगे चलकर स्वयं भारतेंदु द्वारा संस्थापित तदीय समाज के नामकरण, और उनके कार्यक्रम इस मान्यता को भली-भाँति पुष्ट करते हैं। इधर नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है। रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे ही उसका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है।”7 मनोरंजन के मूल्य के साथ ही साहचर्य के मूल्य की स्थापना का साहित्य में और समाज में इससे बढ़कर कोई दूसरा उदाहरण खोज पाना असंभव की हद तक कठिन होगा।
भारतेंदु युग को हिंदी उपन्यासों की शुरुआत का युग भी माना जाता है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में भारतेंदु मंडल के लेखक ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न का उल्लेख करना प्रासंगिक और समीचीन होगा। “जिस नवोदित उत्तर भारतीय मध्य वर्ग की आशा-आकांक्षाओं और जीवन मूल्यों के बहुविध तनावों की दृष्टि से हिंदी उपन्यास का उदय हुआ, श्यामा स्वप्न  उस प्रक्रिया को स्थगित और निलंबित करने वाला उपन्यास है।”8 संभवतः इसी कारण श्यामा स्वप्न  की तीव्र-तीक्ष्ण आलोचना उस युग में हुई और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। तत्कालीन समाज में प्रचलित मूल्यों से अलग हटने पर साहित्य को भी आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। इससे अलग हिंदी के पहले उपन्यासकार की प्रतिष्ठा प्राप्त लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु  में तत्कालीन समय और समाज की स्थितियों का, बदलते मानव-मूल्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण हुआ है। लाला श्रीनिवास दास परीक्षा गुरु  की भूमिका में इसका खुलासा कर देते हैं- “इस पुस्तक के रचनेमैं मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरे फ़ारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्डस्मिथ, विलियम कूपर आदिके पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदिके बर्तमान रिसालौंसे बड़ी सहायता मिली है। इसलिए इन सबका मैं बहुत उपकार माना हूँ...”9
कमोबेश ऐसे ही तथ्य तत्कालीन निबंध साहित्य और नवोदित कहानी विधा के साथ जुड़े हैं। पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप समाज में प्रतिष्ठित होते जा रहे उदात्त मानवीय मूल्य भारतेंदु युगीन साहित्य में प्रतिष्ठित होकर समाज को एक नई दिशा और नवीन वैचारिक शक्ति प्रदान करने का कार्य कर रहे थे। अर्बन द्वारा बताए गए शारीरिक और आर्थिक मूल्यों की, अर्थात् साहित्य सृजन के माध्यम से जीविका चलाने और साहित्य को अर्थार्जन का माध्यम बनाने की प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्याकारों में नहीं थी।
तर्कबुद्धिवादी दार्शनिक नीत्शे ने मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। “उसने समस्त मूल्यों के मूल्यांकन पर बल दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर खरे उतरें तो उन्हें वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव मूल्यों का परीक्षण है।”10 भारतेंदु युगीन साहित्य में नीत्से की इस अवधारणा को भी देखा जा सकता है, जो पूर्ववर्ती साहित्यिक युगों से भारतेंदु युग में आई है।
समग्रतः, हिंदी का भारतेंदु युगीन साहित्य उत्कृष्टतम मानवीय मूल्यों की स्थापना के मानदण्ड पर खरा उतरता है। अपनी पूर्ववर्ती युगीन प्रवृत्तियों को त्यागकर, समय और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सार्थक मूल्यों को आत्मसात कर भारतेंदु युगीन साहित्य ने ज्ञान के प्रति मानवीय आग्रह को न केवल तृप्त किया है, वरन् इसी आधार पर हिंदी के आधुनिक युग की आधारशिला रखकर हिंदी साहित्य को नई दिशा देने का सार्थक प्रयास भी किया है।

संदर्भ:
1.   नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 206
2.   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1996, पृ॰ 31
3.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 401
4.   हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती, इलाहाबाद, सं. 2004, पृ॰ 18
5.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 446-447
6.   हिंदी कहानी : संरचना और संवेदना, डॉ. साधना शाह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ॰ 14
7.  हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहबाद, 1996, पृ॰ 130
8.  श्यामा स्वप्न : समय, समाज और सामाजिक से उदासीन आख्यान, मधुरेश, कथाक्रम,लखनऊ, अप्रैल-जून 2008, पृ॰ 12
9.  वेब रेफ़रेंस, www.hindisamay.com/upanyas/pariksha_guru.htm
10.  नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 213
डॉ. राहुल मिश्र