Monday 19 May 2014

सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व



सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व

भारत माता
ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी
भारत माता
ग्राम वासिनी
और
धरती का आँगन इठलाता
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता...
जैसी सुंदर और मनमोहक कविताएँ लिखने वाले, प्रकृति की सुंदरता को कविताओं में उतारने वाले सुमित्रानंदन पंत हिंदी के जाने-माने कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में 20 मई, सन् 1900 ई. को हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी दादी ने उनका पालन-पोषण किया। वे सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता गंगादत्त कौसानी में एक चाय बागान के प्रबंधक थे। उनके बचपन का नाम गुसाई दत्त था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कौसानी के वर्नाक्युलर स्कूल में हुई। वे ग्यारह वर्ष की आयु में अल्मोड़ा आ गए, जहाँ गवर्नमेंट कॉलेज में उन्होंने हाईस्कूल में प्रवेश लिया। उन दिनों अल्मोड़ा में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं। पंत जी उनमें भाग लेने लगे। उन्होंने अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका सुधाकर और अल्मोड़ा अखबार के लिए रचनाएँ लिखना शुरू कर दिया। वे सत्यदेव जी द्वारा स्थापित शुद्ध साहित्य समिति नामक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ते, जिससे उन्हें भारत के विभिन्न विद्वानों के साथ ही विदेशी भाषाओं के साहित्य के अध्ययन का अवसर सुलभ हो गया था। वे शुरुआत में अपने परिचितों और संबंधियों को कविता में चिट्ठियाँ भी लिखा करते थे। अल्मोड़ा में उनका परिचय हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार गोविंद वल्लभ पंत से हुआ। इसके साथ ही वे श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचंद्र जोशी और हेमचंद्र जोशी के संपर्क में आए। इन साहित्यकारों के संपर्क में आकर सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व का विकास हुआ। अल्मोड़ा में पंत जी को ऐसा साहित्यिक वातावरण मिला, जिसमें उनकी वैचारिकता का विकास हुआ। वैचारिकता के विकास के इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले अपना नाम बदला। रामकथा के किरदार लक्ष्मण के व्यक्तित्व से, लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपना नाम गुसाई दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। बाद में पंत जी ने नेपोलियन बोनापार्ट के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर लंबे और घुंघराले बाल रख लिए।
 सन् 1918 में वे अपने भाई के साथ वाराणसी आ गए और क्वींस कॉलेज में अध्ययन करने लगे। क्वींस कॉलेज से माध्यमिक की परीक्षा पास करके वे इलाहाबाद आ गए और म्योर कॉलेज में इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद आकर वे गांधी जी के संपर्क में आए। सन् 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने म्योर कॉलेज को छोड़ दिया और आंदोलन में सक्रिय हो गए। वे घर पर रहकर और अपने प्रयासों से हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करने लगे।
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को ऐसी कविताएँ लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्मभूमि से ही मिली। जन्म के छह-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुख ने पंत जी को प्रकृति के करीब ला दिया था। प्रकृति की रमणीयता ने, प्रकृति की सुंदरता ने पंत जी के जीवन में माँ की कमी को न केवल पूरा किया, बल्कि अपनी ममता भरी छाँह में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत जीवन-भर प्रकृति के विविध रूपों को, प्रकृति के अनेक आयामों को अपनी कविताओं में उतारते रहे। पंत जी का जीवन-दर्शन, उनकी विचारधारा, उनकी मान्यताएँ और उनकी स्थापनाएँ प्रकृति के विभिन्न रूपों को साथ लेकर पनपती और विकसित होती रहीं। बर्फ से ढके पहाड़ों और उनके नीचे पसरी कत्यूर घाटी की हरी-भरी चादर; पर्वतों से निकलते झरनों; नदियों; आड़ू, खूबानी, चीड़ और बांज के सुंदर पेड़-पौधों और चिड़ियों-भौंरों के गुंजार से भरी-पूरी उनकी मातृभूमि कौसानी ने उन्हें माँ की गोद का जैसा नेह-प्रेम दिया। इन सबके बीच पंत जी का प्रकृति-प्रेमी कवि अपनी अभिव्यक्ति पाया। जिस तरह एक बच्चे के लिए उसकी माँ ही सबकुछ होती है, उसी तरह पंत जी के लिए प्रकृति ही सबकुछ थी। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है। प्रकृति-प्रेम का ही प्रभाव था कि जब वे चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब सात वर्ष की उम्र में ही कविताएँ रचने लगे थे। गिरजे का घंटा, बागेश्वर का मेला, वकीलों के धनलोलुप स्वभाव और तंबाकू का धुआँ आदि उनकी शुरुआती दौर की कविताएँ हैं।
सुमित्रानंदन पंत को हिंदी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख कवि के रूप में जाना जाता है। 18वीं शती. के अंत में परंपरावाद की प्रतिक्रिया के रूप में स्वच्छंदतावाद या रोमेंटिसिज़्म का जन्म हुआ। यूरोप में स्वच्छंदतावाद रूसो, वाल्टेयर, गेटे, कीट्स और शैली आदि के द्वारा रचे गए लिरिकल बैलेड्स के माध्यम से विकसित हुआ। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म का प्रभाव गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के माध्यम से बांग्ला साहित्य पर पड़ा। बांग्ला साहित्य से होता हुआ यह प्रभाव हिंदी साहित्य में आया। रोमेंटिसिज़्म का यह प्रभाव सुमित्रानंदन पंत की काव्य-साधना पर पड़ा। पंत जी के साथ ही जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की काव्य-साधना पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के साथ मिलकर हिंदी में एक नए युग की शुरुआत की। सन् 1918 से 1938 तक के कालखंड में हिंदी साहित्य में अपना व्यापक प्रभाव डालने वाला यह युग छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता पाने की तीव्र इच्छा, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के स्वर और अपनी बात कहने के नए तरीकों को पंत जी की कविताओं में देखा जा सकता है। छायावाद के अन्य कवियों; जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की तरह सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में प्रकृति-प्रेम के माध्यम से सौंदर्यवाद और मानववाद की भावनाओं को देखा जा सकता है। पंत जी जब अपनी कविताओं में भारत के ग्रामीण समाज का चित्रण करते हैं, तब वे भारत के ग्रामीण समाज के दुखों, कष्टों, भेदभावों और गाँव के लोगों के सुख-सुविधाविहीन जीवन को भी प्रकट करते हैं। वे अमीर और गरीब के बीच के भेद को मिटाने की बात भी कहते हैं। वे सामाजिक समरसता की स्थापना की बात अपनी कविताओं में कहते हैं। वे अमीर और गरीब का भेद भी मिटाते हैं। वे कहते हैं-
अस्थि  मांस  के इन जीवों का ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह, यह सूक्ष्म अवश्वर।
न्योछावर   है   आत्मा  नश्वर   रक्त   मांस  पर,
जग  का  अधिकारी  है  वह,  जो  है  दुर्बलतर।
पंत जी आज के अभावग्रस्त, शोषित, दलित और साधनविहीन समाज के दुखों और कष्टों को बड़ी गहराई तक उतरकर देखते हैं। इन सबके बीच वे अपराध और आतंक से भरी देश की स्थितियों को भी प्रकट करते हैं। उनकी यह भावधारा राष्ट्रीय स्तर पर भी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। पंत जी की इस भावधारा के पीछे उनके मार्क्सवादी चिंतन को देखा जा सकता है। वे जीवन के विकास के लिए एकता, समता, श्रद्धा, परिश्रमशीलता और मन की निर्मलता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे इसके लिए ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो मानवता के धरातल पर विकसित हो। वे ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो विभिन्न प्रकार के मतभेदों को भुलाकर नेह-प्रेम से भरे देश का और साथ ही सारे संसार का निर्माण कर सके। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत के काव्य-संसार को सत्यं, शिवं, सुंदरम् की साधना का काव्य कहा जाता है।
छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं में जिस प्रकार का रहस्यवाद और बौद्ध-दर्शन का प्रभाव है, वैसा भले ही पंत जी की कविताओं में न दिखता हो, फिर भी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के रूप में इनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति पंत जी की कविताओं में दिखाई पड़ती है। सत्य, शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे मानवीय गुणों की चर्चा बौद्ध धर्म-दर्शन में प्रमुख रूप से होती है। इन्हें पंत जी की कविताओं में भी देखा जा सकता है। वे लिखते हैं-
बिना दुख के सब सुख निस्सार, बिना आँसू के जीवन भार, 
      दीन  दुर्बल  है  रे  संसार,  इसी  से  दया,  क्षमा और प्यार।
इसके साथ ही दो लड़के नामक कविता में वे लिखते हैं-
क्यों न एक हो  मानव मानव सभी परस्पर,
मानवता  निर्माण  करे  जग  में  लोकोत्तर!
जीवन  का  प्रासाद  उठे  भू  पर  गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने,--मानवहित निश्चय।
सुमित्रानंदन पंत ने अध्यात्म और दर्शन के साथ विज्ञान के समन्वय की बात अपनी कविताओं में कही है। इनके आपसी समन्वय के माध्यम से वे मानवता के कल्याण की कामना करते हैं। उनका मानना है कि ये युग-शक्तियाँ हैं और युग-उपकरण हैं, जिनका प्रयोग अगर मानवता के कल्याण के लिए किया जाएगा तो सारे विश्व का कल्याण होगा, दीन-दुखियों और जरूरतमंदों का कल्याण होगा। वे लिखते हैं-
नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो, निर्बल को बल करे प्रदान,
मूर्त प्रेम, मानव मानव हों  जिसके लिए  अभिन्न  समान!
वह  पवित्रता, जगती  के  कलुषों  से जो  न  रहे  संत्रस्त,
वह  सुख,  जो   सर्वत्र  सभी   के   लिए   रहे   संन्यस्त!
रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन-पाश,
--ऐसे उपकरणों  से  हो भव-मानवता का पूर्ण विकास!
सुमित्रानंदन पंत अपनी युवावस्था में ही गांधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए थे। उनकी काव्य-यात्रा में गांधी-दर्शन का प्रभाव इसी कारण प्रमुख रूप से दिखाई देता है। सन् 1964 में पंत द्वारा रचित लोकायतन प्रबंध-काव्य गांधी दर्शन और चिंतन को बड़े ही भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 12 मार्च, 1930 से शुरू हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह ने पंत जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वे गांधी जी को आधुनिक युग का ऐसा मसीहा मानते थे, जिनके जरिए देश में नई क्रांति आ सकती थी, जिनसे सारे देश को उम्मीद थी। लगभग सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य पंत जी ने अपने पिता को समर्पित किया। इस महाकाव्य पर उन्हें सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार मिला और उन्हें उत्तरप्रदेश शासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत अपने जीवन में कई दार्शनिकों-चिंतकों के संपर्क में आए। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद के प्रति उनकी आस्था थी। वे अपने समकालीन कवियों- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंशराय बच्चन से भी प्रभावित हुए। हरिवंशराय बच्चन के पुत्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को अपना यह नाम भी पंत जी से ही मिला था।
पंत जी की रचनाओं में विचारधारा, दर्शन और चिंतन के स्तर पर ऐसी प्रगतिशीलता नजर आती है, जिसमें प्रकृति के बदलावों की तरह एक नयापन देखा जा सकता है। समकालीन कविता के क्षेत्र में वे एकमात्र कवि हैं, जिनका प्रकृति-चित्रण अनूठा है। उनका प्रकृति-चित्रण प्रगतिशीलता को साथ लेकर चलता है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, युगपथ, चिदंबरा, कला और बूढ़ा चाँद तथा गीतहंस आदि काव्य-कृतियों के साथ ही पंत जी ने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं। उन्होंने हार शीर्षक से एक उपन्यास की रचना भी की है। इसके साथ ही साठ वर्ष : एक रेखांकन नाम से पंत जी ने आत्मकथा भी लिखी है। सुमित्रानंदन पंत को 1961 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। सन् 1968 में चिदंबरा काव्य-कृति पर पंत जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से पंत जी को सम्मानित किया गया। उन्होंने सन् 1950 से 1957 तक आकाशवाणी, इलाहाबाद में हिंदी चीफ प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इसके बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में आकाशवाणी से जुड़े रहे। इसी दौरान 15 सितंबर, सन् 1959 को भारत में टेलिविजन इंडिया नाम से भारत में टेलिविजन प्रसारण शुरू हुआ। इसे दूरदर्शन नाम देने वाले भी सुमित्रानंदन पंत ही थे।
हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ और प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत ने लगभग पचास वर्षों की अपनी साहित्य-सेवा के माध्यम से हिंदी के काव्य-जगत् को समृद्ध किया। आबशारों, नदियों, पेड़-पर्वतों और प्रकृति के ऐसे ही तमाम सुंदर चित्रों के बीच समन्वय, सौहार्द, मानवता, क्रांति और नवजागरण की आवाज उठाने वाले इस ऊर्जावान, युग प्रवर्तक, भावुक और संवेदनशील कवि ने 28 दिसंबर सन् 1977 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में  हमसे हमेशा के लिए विदाई ले ली। सुमित्रानंदन पंत का हिंदी साहित्य में ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में भी अद्वितीय स्थान है। सुमित्रानंदन पंत की काव्य-चेतना आशा और आस्था के साथ विकास की नई दिशा देने और बिना डरे हुए मानवता के कल्याण की प्रेरणा देती रहेगी।      
नव आशा से कुसुमित हो मग,
नव अभिलाषा से मुखरित पग
नव विकासमय, नवल प्रगतिमय,
निर्भय चरण धरो!
प्राणों में निखरो!


डॉ. राहुल मिश्र

(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 19. 05. 2014, प्रातः 0830 बजे)

Sunday 20 April 2014

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी

महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी
हिमालय के साथ जुड़ा राहुल सांकृत्यायन का नेह-प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र अर्थात् लदाख, तिब्बत और चीन तक कई बार यात्राएँ की हैं और यहाँ के धर्म, संस्कृति तथा ज्ञान को सारी दुनिया के लिए सुलभ बनाने में योगदान दिया है। राहुल जी का जितना लगाव ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र से रहा है, उतना ही लगाव निचले हिमालयी परिक्षेत्र से भी रहा है। देश-दुनिया में आते बदलावों के कारण परिवर्तन की तेज लहर जितनी धीमी गति से हिमालय के ऊपरी परिक्षेत्र में आई, उतनी ही तेजी के साथ परिवर्तन की बयार निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आई और उसे प्रभावित किया। निचले हिमालयी परिक्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग और दार्जिलिंग-कलिङपोंग का इलाका आता है। इन क्षेत्रों में अंग्रेज हुक्मरानों के आगमन के साथ ही आधुनिकता का विकास हुआ, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लगातार चलता ही रहा।
राहुल सांकृत्यायन ने ऊपरी हिमालय परिक्षेत्र में फैले ज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आते सांस्कृतिक एवं सामाजिक बदलावों का गहन अध्ययन भी किया है। उनका यह अध्ययन उनकी कहानियों में उतरा है। निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़ा उनका कहानी-संग्रह है- बहुरंगी मधुपुरी । उनके इस कहानी-संग्रह में इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं।
कहानी-संग्रह का शीर्षक ही इन कहानियों की तासीर को बताने के लिये पर्याप्त है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का अपना अलग रंग है। इन कहानियों में कहीं अमीर लोगों के रहन-सहन को, उनके ऐशो-आराम और विलासिता को प्रकट किया गया है तो कहीं इस क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रकट किया गया है।
मधुपुरी शब्द हिमालय की तराई की प्राकृतिक सुंदरता को, उसकी मधु सदृश मिठास को बताने का काम करता है। राहुल जी ने अपने कहानी-संग्रह बहुरंगी मधुपुरी  की भूमिका में अपनी कथा-भूमि को विलासपुरी भी कहा है। उनके द्वारा यह संबोधन दिया जाना काफी हद तक सही और प्रासंगिक सिद्ध हो जाता है, जब हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं।
भारत में जब अंग्रेज हुक्मरान आए तो उन्हें यहाँ की गर्मी ने बहुत सताया। इसी संकट ने मधुपुरी या विलासपुरी अर्थात् निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सौंदर्य से, यहाँ की शीतल-मंद-सुगंधित बयार से अंग्रेज हुक्मरानों को जोड़ दिया। इस तरह अंग्रेज अफसरों ने भारत में भी एक इंग्लैण्ड को पा लिया था और इसी कारण वे इस समूचे क्षेत्र को एक मिनी इंग्लैण्ड की तरह विकसित करने लगे थे। अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के अमीर-सेठ-साहूकार और राजे-महाराजे भी इस क्षेत्र की तरफ आकर्षित हुए और इस तरह से यह क्षेत्र विलासपुरी के तौर पर विकसित हो गया। राहुल जी ने अपनी सभी कहानियों में इस स्थिति को पूरे कथा-रस के साथ, रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।
दूसरी ओर इन कहानियों में इस क्षेत्र के मूल निवासी भी हैं, जो अमीरों के अजीबोगरीब शौकों को देखते हैं, कभी-कभी उनका शिकार भी बनते हैं। अपमानित भी होते हैं और धन भी कमाते हैं।
ब्रिटिश भारत जैसे-जैसे आजादी की राह पर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे यह क्षेत्र भी अपना महत्त्व बढ़ा रहा था। विकास के नए-नए आयाम खुलते जा रहे थे। विकास की यह गति बहुरंगी मधुपुरी  की हर-एक कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलती दिखाई देती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ता है। अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं और भारत में देशी अंग्रेज रह जाते हैं। वे उसी पुरानी परंपरा को चलाना चाहते हैं। कहानी-संग्रह भी अपने अंत पर पहुँचता है। आखिरी कहानी काठ का साहब  देशी अंग्रेजों की मानसिकता पर आधारित है। इस कहानी में भ्रष्टाचार भी है, शाही-रईसी शौक भी हैं और अमीर गरीब का भेद भी है। इस तरह आखिरी कहानी में हमें निचले हिमालयी क्षेत्र का वर्तमान देखने को मिलता है। वास्तव में यह कहानी-संग्रह इतिहास, संस्कृति और समाज में आते बदलाव को तो बतलाता ही है, साथ ही समाज की कड़वी हकीकत को भी हमारे सामने स्पष्ट कर देता है।
डॉ. राहुल मिश्र

Saturday 19 April 2014

प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू


प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू
मनाली से लेह का सफ़र तय करते वक्त 5260 मीटर ऊँचे तङलङ ला दर्रे के पहले पङ गाँव पड़ता है। इस गाँव के आगे तङलङ ला की तराई के गाँवों के पास गाड़ियों को देखते ही वहाँ के निवासी गाड़ियों की ओर दौड़ पड़ते हैं और यात्रियों से पानी माँगते हैं। कुछ लोगों ने रास्ते के किनारे तारकोल के खाली ड्रम रख दिए हैं। मनाली-लेह राजमार्ग से अकसर आने-जाने वाले लोग अपने साथ ज्यादा मात्रा में पानी लाते हैं और इन ड्रमों में डाल देते हैं। लगभग पंद्रह-बीस वर्ष पहले मनाली-लेह राजमार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों की याददाश्त में यह वाक़या जीवंत होगा। इन दिनों तङलङ ला की तराई वीरान ही नज़र आती है। इस वीरानी का कारण वहाँ के अधिकांश निवासियों का विस्थापन है।
लदाख अंचल मुख्य रूप से तीन भागों में बँटा है- नुब्रा, जङ्स्कर और चङ्थङ। चङ्थङ का शाब्दिक अर्थ ‘उत्तर का मैदान’ होता है। चङ्थङ का मैदान एक ओर चीन अधिकृत तिब्बत तक तथा दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश तक फैला हुआ है। चङ्थङ के समद रोकछेन, खरनग और कोरजोक क्षेत्रों में रहने वाले घुमंतू आदिवासी चङ्पा कहलाते हैं। चङ्थङ के प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार लगभग 100- 150 वर्ग किलोमीटर है।
तङ्लङ् ला के पश्चिम की ओर खरनग क्षेत्र है और दक्षिण-पूरब की ओर कोरजोद क्षेत्र है। यो दोनों क्षेत्र हरियाली और जल की उपलब्धता के संदर्भ में अपेक्षाकृत समृद्ध हैं। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतुओं को प्रकृति की मार अपेक्षाकृत कम ही सहनी पड़ती है।
तङ्लङ् ला के पूरब की ओर समद रोकछेन क्षेत्र में विस्तृत मैदान और ऊँचे-ऊँचे ग्लेशियर हैं। दूर-दूर तक फैले मैदानों में पानी का भीषण संकट है। यहाँ के लोगों को पानी के लिए बहुत ऊँचाई पर जाना पड़ता है, जो बहुत कष्टसाध्य होता है। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतू आदिवासी यात्रियों से पानी माँगकर अपना जीवन चलाने का प्रयास करते हैं।
समुद्र तल से लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर विस्तृत  इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व सबसे कम है। यहाँ लगातार हवाएँ चलती रहतीं हैं और वनस्पति के नाम पर केवल घास उगती है। घास के बड़े-बड़े मैदानों के कारण ये दुनिया सबसे ऊँचे चरागाहों में से एक है। भारत का सीमांत क्षेत्र होने के कारण यहाँ पर वर्ष-भर फौजी जमावड़ा भी रहता है। पर्यटन के लिए प्रसिद्ध पङ्गोङ झील, त्सोमोरीरी झील तथा पङमिग झील भी इसी क्षेत्र में है।
खरनक, कोरजोक और समद रोकछेन क्षेत्रों के चङ्पा आदिवासी अपने-अपने क्षेत्रों में पुरातन-परंपरागत जीवन-शैली का अनुसरण करते हुए पशुपालन करते आए हैं। ये एक स्थान पर रहने के बजाय चारा-पानी की तलाश में वर्ष-भर भटकते रहते हैं। चङ्पा आदिवासी याक, भेड़, बकरी और घोड़े पालते हैं। यहाँ पर लंबी और छोटी, दोनों प्रजातियों की भेड़ें पाई जातीं हैं। इनसे विश्वप्रसिद्ध एवं बेशकीमती पशमीना ऊन पाया जाता है। याक की खाल और ऊन का भी व्यावसायिक उपयोग होता है। चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर निर्भर होता है। महिलाएँ मक्खन बनाने, उपले बनाने और दूध को सुखाकर छुरपे बनाने का काम करतीं हैं। घुमंतू जीवन जीते हुए चङ्पा आदिवासी ऊन, खाल, मक्खन, छुरपे आदि का संग्रह करके उन्हें निचले इलाके के खेतिहर ग्रामीणों को देकर बदले में गेहूँ, जौ, मटर, चना आदि लेते हैं। इनका सत्तू बनाकर सर्दियों में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह समूचे चङ्थङ क्षेत्र के लोगों का जीवन घुमंतुओं और खेतिहर स्थाई निवासियों के अन्योन्याश्रित संबंधों पर आश्रित रहता है।
चङ्पा घुमंतुओं की पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक और बहुपति प्रथा पर चलती है। ये लोग किसी स्थान पर एक से दो माह ठहरते हैं। याक के मोटे ऊन से बने तंबुओं (डोक्सा) में पूरा परिवार एकसाथ रहता है और अपना जीवन बसर करता है। सर्दियों के लिए ये लोग भेड़ की खाल से बने कोट (लक्पा), जूते (पागू) और ऊन से बने मोजे, टोपी (तिबि) आदि का इस्तेमाल करते हैं। बीमारियों के इलाज के लिए ये लोग पारंपरिक चिकित्सा (अमची) और तांत्रिक पद्धति का सहारा लेते हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि चङ्पा घुमंतू अपने जानवरों के लिए चारे की तलाश में तिब्बत से इस क्षेत्र में आए और यहीं बस गए। कुछ तिब्बती घुमंतू, जो बाद में इस क्षेत्र में आए, उन्हें खम्-बा कहा जाता है। ये लोग घुमंतू जीवन जीने का साथ ही खेती भी करते हैं। चङ्पा समुदाय खम्-बा और लदाख के अन्य मूल निवासियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करता है।
लोत्सर और तङ्ग्युक(घुड़दौड़) इनके प्रमुख पर्व हैं। लोत्सर नव वर्ष की शुरुआत का पर्व है, जिसमें प्रत्येक परिवार अपने घर में क्रमशः कार्यक्रम और प्रीतिभोज का आयोजन करता है, तथा सभी लोग मिलजुल कर उसमें सम्मिलित होते हैं। तङ्ग्युक में प्रत्येक परिवार का पुरुष सदस्य भाग लेता है। सजे-सजाए घोड़ों में घुडदौड़ होती है। परिवार की महिलाएँ प्रतिभागी पुरुषों को छङ (एक प्रकार की देशी शराब) पिलातीं हैं।
कुल मिलाकर चङ्पा घुमंतुओं का जीवन कष्टप्रद होने के बाद भी रोमांच से भरा हुआ होता है। बाहरी समाज पर आश्रित नहीं होने के कारण आधुनिकता की चकाचौंध का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। सन् 1974 में जारी किए गए गजेटियर के मुताबिक चङ्पा घुमंतुओं के एक हजार परिवार इसी प्रकार अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
स्वयं में खुश और खुशहाल रहने वाले चङ्पा घुमंतुओं का वर्तमान निराशाओं, संकटों और विभीषिकाओं से भरा हुआ है। खरनक गाँव के निवासी शेरिंग पलजेस बताते हैं कि लगभग 25 वर्ष पूर्व खरनक क्षेत्र में चङ्पा घुमंतुओं के 70-80 परिवार ही बचे थे। ये सभी ज़ारा, पङ्छेन, यारङ्, साङ्ता, लोक्मोछे आदि गाँवों में भ्रमण करते हुए पशुपालन करते थे। इन दिनों मात्र 20-25 परिवार ही खरनक क्षेत्र में बचे हैं, जो घुमंतू जीवन बिता रहे हैं। कमोबेश ऐसी ही स्थिति समद रोकछेन और कोरजोक की है। ये परिवार भी घुमंतू जीवन छोड़कर विस्थापित होना चाहते हैं। चङ्पा घुमंतू अपनी मातृभूमि से विस्थापित होकर लेह के निकट खरनकलिङ्, चोगलमसर में और लेह-मनाली राजमार्ग पर रोङ् गाँव के आसपास बस गए हैं।
 अपने विस्थापन के दर्द को टूटी-फूटी हिंदी में बयाँ करते हुए शेरिंग पलजेस बताते हैं कि सर्दी के मौसम में एक ओर तङ्लङ् ला और दूसरी ओर बारालाचा दर्रों के बर्फ से ढँक जाने और रास्ते बंद हो जाने के बाद लगभग 6 माह के लिए हमारा इलाक प्राकृतिक जेल में तब्दील हो जाता है। बर्फीली हवाओं से जानवरों को बचाना बहुत कठिन हो जाता है। उन दिनों भोदन और पानी की भी बहुत समस्या होती है। बर्फ को पिघलाकर पानी का बंदोबस्त करना पड़ता है। हर साल हजारों पशु बर्फीली हवाओं के कारण मरते हैं। निचले इलाके के खेतिहर लोगों के साथ वस्तु विनिमय की परंपरागत व्यवस्था भी समाप्त हो गई है, इस कारण गेहूँ, जौ, मटर आदि भी नहीं मिल पाते हैं।
शेरिंग पलजेस बताते हैं कि चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर आश्रित होता है, इसलिए वे पशु हत्या के लिए अपने पशुओं को कसाइयों को नहीं बेचते, मगर परंपरागत व्यवस्था टूट जाने के कारण उन्हें ऐसा करने को मजबूर होना पड़ता है। वे बताते हैं कि इसी कारण उन्होंने घुमंतू जीवन त्यागकर विस्थापन को भले ही स्वीकार कर लिया हो, मगर मातृभूमि के प्रति लगाव उन्हें बार-बार कचोटता रहता है।
भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर लदाख की सशक्त उपस्थिति ने भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लदाख के मुख्यालय लेह में अपना पर्यटन व्यवसाय चलाने वाले स्थानीय प्रतिनिधि देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों के सामने चङ्पा घुमंतुओं को प्रदर्शनी के तौर पर पेश करने से बाज नहीं आते हैं। इसका लाभ चङ्पा घुमंतुओं को तो नहीं मिलता, बशर्ते ‘टू नाइट थ्री डेज़ विद चङ्पा नोमैड्स’ जैसे ‘पैकेजेस’ के माध्यम से पर्यटन व्यवसायियों की जेबें जरूर भर जातीं हैं। रोङ्, खरनक, मरखा, जङ्स्कर, लाहुल-स्पीति ट्रेकिंग रूट भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन में अनाधिकृत दखल देते हैं।
इतना ही नहीं, चङ्पा घुमंतुओं का स्वकेंद्रित जीवन, अनूठी जीवन-शैली और मुख्यधारा से दूरी भी उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। प्रगति के विशालकाय प्रतिमानों का जो स्वरूप जङ्स्कर और नूब्रा घाटियों में, साथ ही लेह के आसपास के इलाकों में देखने को मिलता है, वह चङ्थङ के चङ्पा घुमंतुओं से बहुत दूर है। खरनग, कोरजोद र समद रोगछेन में चिकित्सालयों और विद्यालयों के भवन भले ही देखने को मिल जाएँ, शेष सुविधाएँ मिल पाना संभव नहीं है।
वर्ष 2012 की शुरुआत में ही भीषण बर्फीले तूफान के कारण हजारों जानवर इस क्षेत्र में मारे गए थे। इतनी विशाल विभीषिका ने चङ्पा घुमंतुओं को आर्थिक तौर पर इतनी बुरी तरह से तोड़ दिया कि वे लेह तथा अन्य संपन्न गाँवों/कस्बों में दिहाड़ी मजदूरी तक करने को मजबूर हो गए। यह भले ही लदाख अंचल के अनियमित विकास की क्रूर तसवीर पेश करता हो, योजनागत विकास में लगे पैबंदों को उजागर करता हो, अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों के माथे की लकीरों को बयाँ करता हो और पर्यटन के नाम पर इंसान को ही नुमाइश बना देने की वीभत्स मानसिकता को सामने लाता हो, मगर शेरिंग पलजेस जैसे युवाओं की आँखों के आँसू नहीं पोंछ सकता। चङ्पा घुमंतू आदिवासी पर्यटकों के ‘फोटो एलबम’ की शोभा बढ़ा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू लगभग आधे वर्ष तक प्रकृति की जेल में कैद रहते हैं और विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर हैं, इसलिए मानव-विकास सूचकांक को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू आदिवासी आजाद देश में विस्थापन की जिंदगी जी रहे हैं। इस हकीक़त को जज्ब़ कर पाना सभ्यता और मानवता के लिए मुमकिन नहीं है।
                                                                  डॉ. राहुल मिश्र










(केंद्रीय समाज कल्याण विभाग, दिल्ली की मासिक पत्रिका, 
समाज कल्याण के दिसंबर, 2013 अंक में प्रकाशित)

बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी : राधाकृष्ण बुंदेली


बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी 
राधाकृष्ण बुंदेली
बाँदा शहर के चौक बाजार की ओर बलखंडीनाका की तरफ से चलने पर कापी-किताबों की छोटी-सी दूकान- विजय पुस्तक भंडार। यहाँ पर पुरानी किताबें बेची और खरीदी जाती थीं। विजय पुस्तक भंडार की एक और पहचान राधाकृष्ण बुंदेली के नाम से भी कायम थी। इस छोटी-सी दूकान में साहित्यकारों, शोध छात्र-छात्राओं का और अलग-अलग विषयों के जिज्ञासुओं का दिन-दिनभर जमावड़ा लगा रहता था। कभी कोई किताबें खरीदने या बेचने आ जाता तो उसका काम निबटाकर फिर से साहित्यचर्चा शुरू हो जाती। विजय पुस्तक भंडार में अकसर विदेशी पर्यटक भी बैठे नजर आ जाते।
विजय पुस्तक भंडार की रोजमर्रा की जिंदगी में यह दृश्य कब से कायम है, मेरे लिए यह बता पाना बहुत कठिन है। क्योंकि अपने बचपन से मैंने हमेशा इस क्रम को देखा है। पढ़ाई के दिनों में किताबें लेने के लिए हमलोग भी वहाँ पहुँच जाते थे। बाद में, जब बुंदेली साहित्य, संस्कृति से जुड़ाव शुरू हुआ तो साहित्यचर्चा में शामिल होने लगे। संरक्षक के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में राधाकृष्ण बुंदेली की नसीहतें, बातें बहुत प्रभावित करतीं। कभी कोई बुंदेली कहानी, बुंदेली लोकगीत या इतिहास का कोई प्रसंग बुंदेली जी से सुनने को मिल जाता तो वह हमेशा-हमेशा के लिए याददाश्त में बैठ जाता। ऐसे ढेरों प्रसंग, कहानियाँ-किस्से और लोकगीत हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन गए। यहीं से बुंदेलखंड के इतिहास, तहजीब और लोकरंग को शब्द देने की प्रेरणा मिली। राधाकृष्ण बुंदेली हमारे लिए प्रेरणास्रोत बने, जिन्होंने बुंदेली माटी के प्रति भावनात्मक लगाव का बीज रोपा। ऐसा महसूस करना मेरे लिए आश्चर्य से भरा हुआ नहीं है कि मेरे जैसे कई युवाओं को प्रेरणा बुंदेली जी से ही मिली होगी।
राधाकृष्ण बुंदेली बुंदेलखंड की माटी के जमीन से जुड़े साहित्यकार, इतिहासकार थे। इस कारण बुंदेलखंड की तहजीब को, यहाँ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने का उनका नजरिया एकदम अलग था। सामान्य रूप से इतिहास का अध्ययन ऐसा होता है, जिसमें संवेदनात्मक, भावात्मक अनुभूति नहीं होती है। बुंदेली जी की इतिहास-दृष्टि इसके विपरीत थी, इसके कारण उनके द्वारा रचे गए विविध लेखों में बुंदेलखंड की ऐतिहासिक विरासत की जानकारी भावनात्मक रूप से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कायम करने की सामर्थ्य रखती है, जो उनके लेखन कौशल को अद्भुत वैशिष्ट्य प्रदान कर देती है।
बुंदेलखंड के प्रत्येक क्षेत्र, विविध जनपदों में भाषाई विविधता अनूठे किस्म की है। राधाकृष्ण बुंदेली का भाषाई विविधता पर अध्ययन भी उत्कृष्ट था। उन्होंने बुंदेलखंड के विविध क्षेत्रों की बोलियों के साम्य-वैषम्य का अध्ययन किया, उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य किया। वे बुंदेली बोलियों का व्यवहार भी बड़े रोचक ढंग से करते थे। बातों के दौरान अक्सर अलग-अलग बोलियों का यथावत् और स्पष्ट प्रयोग सुनकर क्षेत्र-विशेष के प्रति अलग-सा आकर्षण पैदा हो जाता था। विविध बोलियों का व्यवहार करते हुए अक्सर वे चिंतित हो जाते थे। खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग के माध्यम से स्वयं को शिष्ट और पढ़ा-लिखा प्रदर्शित करने के प्रयासों में अपनी भाषाई पहचान के अस्तित्व को मिटाने की नीयत उन्हें बहुत चिंतित करती थी। हमलोगों से वे अक्सर पूछते कि तुम लोगों को कितने प्रकार की बुंदेली बोलियाँ आतीं हैं। बाद में नसीहत भरा संदेश, कि बुंदेली बोलियों को व्यवहार में रखो, उनमें साहित्य लिखो, कहानियाँ लिखो, आदि।
राई, आल्हा, ढिमरियाई, कछियाई, दादरा, सोहर और ऐसे ही तमाम लोकगीतों का सस्वर पाठ करते राधाकृष्ण बुंदेली की चिंता लोकगीतों की पुरातन परंपरा के सिमटते जाने पर भी मुखर हो उठती थी। बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान का यह बहुत बड़ा पक्ष है। कुछ विशेष प्रायोजित आयोजनों के अतिरिक्त इन विधाओं का व्यवहार-लोक सिमटता जा रहा है। सहजता के स्थान पर प्रदर्शन हावी होता जा रहा है। इनके संरक्षण के लिए और इन विधाओं के कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए राधाकृष्ण बुंदेली सदैव प्रयासरत रहे। बुंदेलखंड के लोकगीतों पर उन्होंने कई शोध-छात्रों का निर्देशन भी किया।
बदलती जीवन-शैली, आधुनिकता के प्रभाव और लोकसंस्कृति को पिछड़ेपन की निशानी समझने की मानसिकता के कारण बुंदेली संस्कृति और बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत से समाज की बढ़ती दूरियों को बुंदेली जी ने शिद्दत से महसूस किया। उन्होंने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को देश-दुनिया के सामने लाने और समाज को अपनी तहजीब, अपने इतिहास से जोड़ने के लिए सर्वाधिक लोक-प्रचलित माध्यम- फिल्म का उपयोग किया। इसके लिए उन्होंने अपने संसाधनों से, अपने अनथक प्रयासों से कालंजर के ऊपर लंबी फिल्म का निर्माण किया।
सन् 1986 में उन्होंने सीमित तकनीकी संसाधनों का उपयोग करके कालंजर दर्शन नामक फिल्म निर्माण की शुरुआत की। इसमें विश्वविख्यात ऐतिहासिक-पौराणिक दुर्ग कालंजर की चालीस किलोमीटर की परिधि में आने वाली ऐतिहासिक धरोहरों का फिल्मांकन किया। राधाकृष्ण बुंदेली ने पटकथा लेखन, संवाद लेखन, पात्र-चयन और निर्देशन आदि दायित्वों का स्वयं निर्वहन किया। तकनीकी के विविध प्रयोगों के माध्यम से फिल्म को रोचक और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए अध्ययन भी किया और नवीन अनुसंधान भी किया। कालंजर के आसपास की ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही यहाँ पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं और भौगोलिक विशिष्टताओं को पूरे यथार्थ के साथ, समग्रता के साथ उन्होंने फिल्माया। लगभग नौ घंटे की यह फिल्म आठ वर्षों के अनथक परिश्रम के बाद बनकर तैयार हुई। इस फिल्म में मड़फा, रौली गोंडा, रसिन और पाथर कछार समेत अनेक दुर्गम स्थानों का फिल्मांकन हुआ है। उस दौर में इन दुर्गम स्थानों तक अकेले पहुँच पाना ही बहुत कठिन हुआ करता था। डाकुओं के अलावा सड़क मार्ग की अनुपलब्धता, लोगों की दूषित मानसिकता और प्राकृतिक आपदाएँ आदि अनेक बाधाओं से जूझते हुए बुंदेली जी ने फिल्म निर्माण पूरा करके नए लोगों को प्रेरणा देने का कार्य भी किया और बुंदेलखंड की सच्ची सेवा भी की। कालंजर दर्शन फिल्म ने कालंजर को विश्व सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिलाने की दिशा में सार्थक योगदान दिया।
कालंजर के अतिरिक्त अन्य स्थानों के संरक्षण, देखभाल और जन-जागरूकता हेतु बुंदेली जी के प्रयास अनवरत जारी रहे। वर्ष 2010 में चित्रकूट के चर गाँव के नजदीक स्थित गुप्तकालीन और भारशिव शासकों द्वारा निर्मित सोमनाथ मंदिर की उनकी यात्रा के साथ हमलोगों की सुंदर-रोचक यादें जुड़ी हुई हैं। सत्तर वर्ष की उम्र में अपनी शारीरिक विवशताओं को दरकिनार करते हुए हमारे अनुरोध पर उन्होंने सोमनाथ मंदिर चलने की स्वीकृति दे दी। दिन-भर के कार्यक्रम में उन्होंने मंदिर के स्थापत्य के बारे में, मंदिर के निर्माण के काल निर्धारण के बारे में और मंदिर से जुड़े अनेक साक्ष्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी और लगभग एक घंटे के वृत्तचित्र के निर्माण का हमारा संकल्प सफल हो सका, सार्थक हो सका। वृत्तचित्र निर्माण के बाद सोमनाथ मंदिर को राष्ट्रीय पुरातात्त्विक धरोहर के रूप में संरक्षित किए जाने हेतु हमारे अभियान को उनका संरक्षण, मार्गदर्शन जीवन पर्यंत प्राप्त होता रहा।
राधाकृष्ण बुंदेली ने आजीवन बुंदेलखंड की सेवा की और निस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से उनकी सेवा उन तमाम लोगों के लिए मार्गदर्शक बन गई, जिनके लिए शोशेबाजी, दिखावेबाजी करके यश प्राप्ति की या अर्थ प्राप्ति की लिप्सा पहला महत्त्व रखती है। बुंदेली जी को बुंदेली विकास संस्थान, बसारी, छतरपुर के द्वारा सन् 2011 में राव बहादुर सिंह बुंदेला सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त थियोसोफिकल सोसायटी, बुंदेलखंड टीवी एवं फिल्म प्रोडक्शन यूनिट, संस्कार भारती, बुंदेलखंड अमृत महोत्सव सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा, कालंजर शोध संस्थान, अमर शहीद क्रांतिकारी मंगल पांडे फाउंडेशन, नौटंकी कला केंद्र, मंडल समाचार पत्र संपादक संघ, इंटैक और राष्ट्रीय एकीकरण अनुभाग सहित अनेक संस्थाओं और संगठनों ने उन्हें विभिन्न सम्मानों/पुरस्कारों से सम्मानित किया।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने व्यास ऋषि के जन्म-स्थान- अदरी, चिल्ला (बाँदा) और सोमनाथ मंदिर, चर, चित्रकूट की खोज में अमूल्य योगदान दिया। हम युवाओं के लिए उनकी प्रेरणा, उनकी कर्मठ जीवनी-शक्ति अमूल्य है। बिना किसी लालसा के निष्काम भाव से बुंदेलखंड की सेवा करने का जो भाव बुंदेली जी के जीवन में, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखने को मिलता है, वह अत्यंत दुर्लभ है। विशेषकर आज के भौतिक युग में, टूटते-बिखरते मानवीय मूल्यों के दौर में अपनी माटी के लिए समर्पण का भाव बहुत कम देखने को मिलता है। विजय पुस्तक भंडार के माध्यम से व्यवसाय की अपेक्षा समाजसेवा को महत्त्व देते हुए, वंचितों-गरीबों को शिक्षा के लिए अवसर उपलब्ध कराते हुए वहीं से बुंदेलखंड के नेह-प्रेम की अलख जगाने वाले राधाकृष्ण बुंदेली का व्यक्तित्व और उनका कृतित्व अनूठा था। विजय पुस्तक भंडार एक प्रतिष्ठान मात्र नहीं, शक्ति का, संप्रेषण का, जागृत चेतना का केंद्र था। हम सभी के लिए यह गौरव की बात है कि हमें बुंदेली जी का संरक्षण प्राप्त हुआ और बुंदेली माटी से भावनात्मक जुड़ाव जोड़ पाने का एक आयाम मिला। हमारे बीच से बुंदेली जी का जाना एक ऐसे निर्वात का सृजन कर गया है, जिसकी भरपाई की संभावना कोसों दूर तक नजर नहीं आती। उनकी उपस्थिति का अहसास मात्र शेष है, जो असीमित शांति देता है, प्रेरणा देता है और उनके सपनों को साकार करने हेतु संघर्ष की शक्ति देता है। उनकी स्मृतियों को कोटिशः नमन।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुंदेली बसंत- 2014, बसारी, छतरपुर (मध्यप्रदेश) में प्रकाशित}

Friday 18 April 2014

निराले हीरे की खोज

निराले हीरे की खोज
महान घुमक्कड़ स्वामी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन को एक पुरातत्त्ववेत्ता, चिंतक-विचारक एवं उपन्यासकार-कथाकार के रूप में जाना जाता है। यह सत्य है कि उन्होंने रूस, जापान, चीन, तिब्बत आदि देशों की यात्राएँ कीं और उन यात्राओं के माध्यम से प्राप्त किए हुए ज्ञान ने उन्हें ज्ञान की इन तमाम विधाओं का महारथी बना दिया। उन्होंने अपनी यात्राओं का बड़ा रोचक वर्णन करके यात्रा-वृत्तांत और यात्रा-साहित्य की विधा को भी साहित्य-जगत् में स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ये यात्राएँ प्रायः मैदानी और पठारी-पहाड़ी इलाकों की हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने समुद्री यात्राओं के रोमांच और रहस्य को भी अपने यात्रा-वृत्तांत में शामिल किया है।
समुद्र और समुद्री यात्राएँ आदिकाल से ही मानव के लिए रहस्य और रोमांच का हिस्सा रहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसा बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व इस रोमांच से अछूता रह जाए, यह संभव नहीं था। इसी कारण उन्होंने अपनी पुस्तक निराले हीरे की खोज में समुद्र को, समुद्र के रोमांच को इतनी बारीकी से उतारा है कि हकीकत और कल्पना के बीच अंतर करना ही कठिन हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक निराले हीरे की खोज में बीस उपशीर्षक हैं, जिनमें समुद्र की यात्राओं से जुड़ी बीस अलग-अलग घटनाएँ हैं, बीस अलग-अलग बाधाएँ हैं, जिन्हें पार करते हुए निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। पुस्तक का पहला उपशीर्षक ही ‘समुद्र का उपद्रव’ है, जो समुद्र में उठने वाली भीषण समुद्री हवाओं के कारण यात्रा की शुरुआत को ही संकटग्रस्त कर देता है, किंतु समुद्री यात्री हरिकृष्ण, मोहन और विक्रम उससे बच निकलते हैं। इसी तरह यात्रा आगे चलती रहती है। यात्रा के अलग-अलग पड़ावों के रूप में किताब में बने उपशीर्षक भी बड़े मजेदार और आकर्षक हैं— जैसे रेतीली खाड़ी में दो स्टीमर, महागर्त का तल, बंगले वाला आदमी, कप्तान का संदेश, भयंकर बुलबुला, मुर्दों की गुफा, मोहनस्वरूप का भूत, शैतान की आँख, पुष्पक का अंत और जल-भित्तिका आदि।
ये उपशीर्षक भी अपने अंदर छिपे रहस्य-रोमांच में पाठकों को खींच लेते हैं। इन्हीं में बँधकर अद्भुत समुद्री यात्रा का आनंद प्राप्त होता है। इसके साथ ही आपसी सूझ-बूझ, समझदारी, तुरंत निर्णय लेने की शक्ति, समन्वय और एक साथ कार्य करने की भावना जैसी नसीहतें सहजता से ही सीखने को मिल जाती हैं। राहुल सांकृत्यायन की दूरदर्शिता भी समुद्री यात्रा में प्रकट होती है। उन्होने समुद्र के जीवन के हर-एक पक्ष को इस तरह से और बड़ी बारीकी के साथ उतारा है, जैसे वे समुद्री यात्राओं के विशेषज्ञ हैं। कहीं पर भी कोई कमी छूट गई हो, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता।
निराले हीरे की खोज में चलने वाली समुद्री यात्रा का आखिरी पड़ाव ‘आँख के जानकार’ के रूप में आता है। इसी पड़ाव में ब्राजील की राजधानी रियो-दी-जेनेरो में पहुँचकर समुद्री यात्रियों हरिकृष्ण, मोहनस्वरूप और उनके साथियों को वह निराला हीरा देखने को मिलता है। वह निराला हीरा विश्व के तमाम प्रसिद्ध हीरों से अलग किस्म का है। संसार के कई बड़े हीरों से भी बड़ा हीरा खोज लिया जाता है। यह हीरा कोहिनूर हीरे से और मुगले आजम हीरे से भी ज्यादा वजनी है, इसका वजन 300 कैरेट है।
इस प्रकार निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। यदि विश्व साहित्य पर एक नजर डालें तो लगभग हर भाषा के साहित्य में ऐसी रोमांचक यात्राएँ, खोजपूर्ण यात्राएँ मिल जाएँगी। किंतु उनमें से कुछ ही ऐसी यात्राओं को हम पढ़कर अपनी याददाश्त में जिंदा रख पाते हैं, जो वास्तव में रोचक होने के साथ ही तथ्यपूर्ण और विशेष रूप से गुँथी हुई होती हैं। ऐसी ही एक यात्रा ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ को सभी जानते होंगे। अगर ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ की तुलना राहुल सांकृत्यायन के निराले हीरे की खोज से की जाए तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी में लिखी हुई यह बहुत महत्त्वपूर्ण, रोचक, ज्ञानवर्धक और साहसिक यात्रा-कथा है। 




डॉ. राहुल मिश्र 

Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}