Monday 29 April 2013

प्रज्ञा पारमिता, रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह


                         प्रज्ञा पारमिता
         बौद्ध धर्म की महायान-साधना में छः पारमिताओं फारोल-तु-छिन-पा के बारे में बताया गया है। प्रज्ञा पारमिता, दान पारमिता, शील पारमिता, क्षान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता और ध्यान पारमिता। प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा को छोड़कर शेष पाँचों पारमिताओं को उपाय, करुणा या पुण्य सम्भार कहा जाता है। प्रज्ञा पारमिता को ज्ञान सम्भार कहा जाता है। ‘पारमिता’ शब्द ‘परम’ से बना है। इसका अर्थ होता है, सबसे ऊँची स्थिति। पारमिता शब्द गुणों के पूरी तरह विकसित होने और सीमाओं-दशाओं-स्थितियों के बंधन से मुक्त होकर व्यापक विस्तार करने के अर्थ में प्रयोग होता है। इस तरह मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पाने के लिए, निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए ये छः पारमिताएँ आवश्यक होती हैं। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं को जीवन में उतारने की प्रेरणा देने का काम प्रज्ञा पारमिता के द्वारा होता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति और इसका विकास करुणा या उपाय या पुण्य सम्भार के द्वारा होता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं के द्वारा प्रज्ञा पारमिता को पूर्णता प्राप्त होती है। इस तरह ज्ञान सम्भार अर्थात् प्रज्ञा और पुण्य सम्भार अर्थात् दान, शील आदि पाँच पारमिताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। यह अवश्य है कि पुण्य सम्भार के बजाय ज्ञान सम्भार अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण होता है। ज्ञान सम्भार का स्थान सबसे पहले आता है, क्योंकि यह मानव को असत् से सत् की ओर जाने का रास्ता दिखाता है। यह मानव को आत्म दीपो भव की सीख देता है। यह उस दीपक की तरह बनने की सीख देता है, जो संसार के अंधकार में भटक रहे लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इस तरह ज्ञान सम्भार और पुण्य सम्भार दोनों मिलकर निर्वाण के मार्ग बन जाते हैं। निर्वाण प्रज्ञा के विकास की और प्रज्ञा के विकास के परिणाम के रूप में आए बदलाव की परम अवस्था है। निर्वाण शरीर के त्याग की या मृत्यु की स्थिति नहीं है। यह अविद्या या अज्ञान के त्याग की स्थिति है।
     प्रज्ञा के स्वरूप के बारे में विस्तार से बताने का कार्य आचार्य नागार्जुन ने किया है। उन्होने प्रज्ञा के साध्य व साधन स्वरूपों की स्थापना बौद्ध धर्म की महायान शाखा में की है। आर्यशत साहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र, पञ्चविंशतिसाहस्रिकासूत्र और अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र को क्रमशः बृहद प्रज्ञापारमितासूत्र, मध्यम प्रज्ञापारमितासूत्र और लघु प्रज्ञापारमितासूत्र के रूप में जाना जाता है। इन प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष के आधार पर आचार्य नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन की स्थापना की। आचार्य नागार्जुन द्वारा रचित मूल माध्यमिक कारिका में प्रज्ञापारमितासूत्रों का दर्शन पक्ष है।
     बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है। निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए तीन मार्ग— शील, समाधि और प्रज्ञा बताए गए हैं। शील की परम अवस्था समाधि में होती है और समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। प्रज्ञा का काम शील का शुद्धिकरण करना होता है। इस प्रकार प्रज्ञा बुद्धत्व या निर्वाण को पाने की पहली सीढ़ी भी है और अंतिम सीढ़ी भी है।
         बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य— दुख, दुख का कारण, दुख का निरोध और दुख निरोध के उपाय में भी प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दुख को दुख के रूप में समझने की चेतना का विकास प्रज्ञा के माध्यम से ही होता है। यदि दुख को, उसके सही स्वरूप को नहीं समझा जाएगा तब आर्य सत्य को और वास्तविकता को भी नहीं समझा जा सकता है। जब तक दुख के आवरण में छिपे सत्य को जानना संभव नहीं होगा, तब तक  दुख के निरोध की चेतना नहीं उत्पन्न होगी। जब तक इस चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक चेतना द्वारा बताए गए दुख के निरोध के उपायों पर अमल करने का विवेक उत्पन्न नहीं होगा। जब तक विवेक उत्पन्न नहीं होगा, तब तक बुद्धत्व या निर्वाण को पाना भी संभव नहीं हो पाएगा। चेतना और विवेक का जन्म प्रज्ञा के विकास से ही होता है। इस कारण प्रज्ञा को महायान साधना का केंद्र माना गया है।
         प्रज्ञा को बुद्धि, मति, धृति, विवेक और ज्ञान भी कहा जाता है। ये सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। लेकिन ज्ञान के विशेष, विलक्षण और पारमार्थिक स्वरूप के तौर पर प्रज्ञा अपने अन्य पर्यायों से पूरी तरह अलग और श्रेष्ठ है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को यदि किसी एक लिपि या भाषा में उपलब्ध विविध क्षेत्रों, जैसे- चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि का बहुत अच्छा ज्ञान है तो उसे ज्ञानी या विद्वान कहा जा सकता है, लेकिन उसे प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कई लिपियों या भाषाओं के माध्यम से ज्ञान के एक या कई क्षेत्रों में कोई व्यक्ति अच्छा विद्वान हो सकता है, मगर प्रज्ञावान नहीं हो सकता। यह ज्ञान भौतिक या सांसारिक कार्यों और व्यवहारों पर आधारित होता है। इस ज्ञान से मनुष्य को केवल भौतिक या सांसारिक लाभ ही हो सकता है। इसी तरह यह ज्ञान मानव के जीवन को केवल भौतिक रूप से ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह ज्ञान पारमार्थिक नहीं होता। मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण को इस ज्ञान से नहीं पाया जा सकता है।
   भौतिक या सांसारिक लाभ देने वाला यह ज्ञान तो मानव को वासनाओं और दुखों में धकेल देता है। जबकि प्रज्ञा वह आधार है, जो मानव-जीवन के पुण्यकर्मों को, मर्यादा को और मानव-जीवन की सार्थकता को स्थापित करती है। प्रज्ञा के द्वारा मानव को मुक्ति या निर्वाण का रास्ता मिलता है। दर्शन के अलग-अलग सिद्धांतों में प्रज्ञा को, इसके स्वरूप को और इसके संबंधों को बताया गया है।
  बोधिसत्व, करुणा, और निर्वाण, ये तीनों तत्त्व प्रज्ञा से जुड़े हुए हैं। इसी तरह कर्मवाद, कर्मनिष्ठा और कर्मफल भी प्रज्ञा से जुड़े हैं। प्रज्ञावान मानव अपने जीवन की सफलता के लिए इन तत्त्वों का महत्त्व समझता है और इन्ही के अनुसार अपने जीवन के आचरण पक्ष को चलाता है। जबकि विद्वान व्यक्ति इन तत्त्वों के महत्त्व को समझे बिना ही सांसारिक सुखों में ही खुश रह सकता है। इस तरह प्रज्ञावान और विद्वान के बीच के अंतर को समझा जा सकता है।
 किसी भी मानव में प्रज्ञा की उत्पत्ति संभव हो सकती है। इसके लिए विद्वान होना भी आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद हर एक मनुष्य के लिए प्रज्ञा को पाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वस्तु या संसार का उसके यथार्थ रूप में परिचय उसे नहीं मिल पाता। इस कारण वह सांसारिकता को उसी दृष्टि से देखते हुए दुख पाता रहता है या फिर दुख को ही सुख समझकर भूलवश अपने जीवन की सार्थकता को निरर्थकता में बदल बैठता है।
      महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन अपने चचेरे भाइयों, गुरु और परिजनों-मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर युद्ध करने से मना कर देते हैं। अपने परिवार के लोगों को मारकर युद्ध जीतना उनके लिए दुख का कारण बन जाता है। अर्जुन को इस तरह मोह और शोक में डूबा हुआ देखकर कृष्ण कहते हैं
                            अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति  पण्डिता:।।
      हे अर्जुन! तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जो दुख करने के योग्य नहीं हैं और प्रज्ञावान की तरह बातें कर रहे हो। प्रज्ञावान उनके लिए दुख नहीं करते, जो मर चुके हैं या जो जीवित हैं और मृत्यु की ओर लगातार जा रहे हैं। कृष्ण को अर्जुन की कमजोरी का पता चलता है। वे जानते हैं कि अर्जुन झूठी करुणा के जाल में फँस गया है। उसके मन में मानवता के लिए जो प्रेम है, वह सच्चा नहीं है। यह सच्ची करुणा का भाव नहीं है, यह आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की उत्पत्ति भी नहीं है। यह उस अज्ञान या वासना का परिणाम है, जिसने अर्जुन की प्रज्ञा को ढक लिया है। अर्जुन की अज्ञानता या अविद्या को दूर करने का काम कृष्ण करते हैं।
कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें संसार को एक रंगमंच की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर पात्र आते-जाते हैं, जन्म लेते और मरते रहते है। जीवन देने और लेने वाले पात्र अपने-अपने अभिनय को कुशलतापूर्वक करते हुए मंच से बाहर हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार भी है। इस संसार को ऐसी दृष्टि से देखने वाले लोग शोक में या मोह में लिप्त नहीं होते। सांसारिक जीवन में ऐसे लोगों को प्रज्ञावान या प्रज्ञाधारण करने वाला कहा जा सकता है।
    सांख्य दर्शन आत्मा को शाश्वत मानता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा को क्षणभंगुर माना गया है। दोनों ही दर्शन अपने-अपने तरीके से आत्मा की व्याख्या करके मानव जीवन के आचार पक्ष को प्रज्ञा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए नित्य और अनित्य के इस भेद को हटाकर यदि कर्मवाद के नजरिये से देखा जाए तो दोनों दर्शन उस कर्म को प्रधानता देते हैं, जो मानव मात्र के कल्याण की भावना को और करुणा की भावना को अपने साथ लेकर चलता हो।
    संसार के कई धर्मों, मतों और संप्रदायों में प्रज्ञा को श्रेष्ठ माना गया है। इसी कारण अनेक विधियों, अनेक कथाओं-उदाहरणों और नीतिवचन-उपदेशों के माध्यम से मानव को उस प्रज्ञा का परिचय देने का प्रयास करते हैं, जो इस संसार को उसके वास्तविक रूप में दिखाने में सक्षम है। संत कवियों ने भी अपनी वाणी में प्रज्ञा को बड़े ही सरल और सहज ढंग से व्यक्त किया है। सरहपा लिखते हैं-
                  जहँ मन पवन न संचरइ, रवि-शशि नाहिं पवेश।
                  तहँ मूढ़ चित्त  विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेस।।
प्रज्ञा को जानने के लिए धर्मों, मतों और संप्रदायों में की गई व्यवस्था तीन स्तरों में है। पहली सुनकर, दूसरी सुनकर उस पर चिंतन करते हुए और तीसरी भावना या विचार में बाँधते हुए। इसी कारण सत्संग, भजन, कीर्तन और प्रार्थना का विधान किया गया है। अपने वजूद को, अपने अस्तित्व को शून्य करके अपनी चिंता को संसार की चिंता के साथ जोड़कर चिंतन में लीन होने को श्रेष्ठ माना गया है। अगर सरल अर्थों में कहें तो प्रज्ञा मन और विचारों की वह स्थिति है, जो मानव को मानव से और दूसरे जीवों से प्रेम करना सिखाती है। यह अपने और पराए के अंतर को मिटाती है। यह सारे संसार के प्रति करुणा और प्रेम की भावना का विकास करती है। यह सच्चाई, ईमानदारी, दया, शांति और अहिंसा के भावों को समझाती है। जब प्रज्ञा की साधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब मानव अज्ञान या अविद्या से पार हो जाता है। यह स्थिति प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा की है। देवालयों में स्थित मूर्तियाँ और चित्र सामान्य व्यक्ति को यही शिक्षा देते हैं। इसी कारण अपने परिवार के प्रति प्रेम को ही नहीं, बल्कि विश्वबंधुत्व की भावना को श्रेष्ठ माना गया है। श्रुति, चिंतन और भावना धारण के माध्यम से प्रज्ञा की साधना करने के लिए किसी धर्मकेंद्र की, देवालय या पवित्र स्थान की जरूरत नहीं होती।
शायद इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उस स्थान पर प्रज्ञा का स्वरूप बताया, जहाँ पर संसार की निःसारता और संबंधों-रिश्तों-नातों की कड़वी हकीकत का पर्दाफ़ाश होने वाला था। अर्जुन धनुर्विद्या का महारथी था, राजशास्त्र और नीतिशास्त्र का ज्ञानी भी था, किंतु युद्ध के मैदान में जब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि तुम शोक न करने वालों पर शोक करते हो और ज्ञान की बातें करते हो, तब श्रीकृष्ण के इस कथन से यह अर्थ भी निकल रहा था कि तुम धनुर्विद्या, नीति और राजशास्त्र का ज्ञान रखने के बावजूद पूरी तरह से अज्ञानी हो, बुद्धिहीन हो।
    संभवतः यही कारण रहा होगा, कि भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश मृगदाव के घने जंगल में, टङ-सोङ-लुङ-वा-रि-दक्स-कि-नक़्स, में दिया, जहाँ सुंदर-सुसज्जित मंच न था, सांसारिक जीवन की चकाचौंध न थी, धन-दौलत भी नहीं थी। वह स्थान ऐसा था, जो यह बोध करा रहा था कि सारा संसार एक जंगल की तरह अव्यवस्थित, वीरान और हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। यह प्रतीक था, यह सच्ची स्थिति थी, सही स्थान था, जहाँ बैठकर उस प्रज्ञा से साक्षात्कार किया जा सकता था, उस प्रज्ञा की साझेदारी की जा सकती थी, जो इस जंगलनुमा संसार को सुंदर-सजीले उपवन में बदल सकती थी।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण या वस्तु के यथार्थ स्वरूप को गलत तरीके से जानने के कारण उपजी अविद्या के आवरण को हटाकर सच्ची विद्या या प्रज्ञा से साक्षात्कार करने हेतु आचार्य शांतिदेव ने निर्वाणकामी, मोक्षकामी लोगों को रास्ता दिखाया है—
                     इमं  परिकरं    सर्वं  प्रज्ञार्थं   हि   मुनिर्जगौ।
                     तस्मादुत्पादयेत् प्रज्ञां दुःखनिवृत्तिकाङ्क्षया।।
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 22.04.2013, प्रातः 7 बजकर 35   मिनट पर)
                                                                         डॉ. राहुल मिश्र 

Friday 28 December 2012


समकालीन हिंदी कहानियों में असंगठित क्षेत्र की घरेलू कामकाजी महिलाएं
                                                                                         

आधुनिकीकरण, विश्वव्यापारीकरण, यंत्रीकरण और जीवन-स्तर में आए बदलावों का सुखद पक्ष यह माना जाता है कि देश में समृद्धि आई है, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठा है। किंतु इसके साथ ही गांवों से पलायन भी बढ़ा है। गांवों के अशिक्षित-अल्पशिक्षित लोगों के सामने बेकारी की समस्या भी पैदा हुई है। गांवों से शहर आने वाले लोग महंगाई के दौर में गुजारा करने के लिए अपनी महिलाओं को संपन्न घरों में काम करने हेतु भेज देते हैं। इसके साथ ही घर की विपन्न आर्थिक स्थिति के कारण या अन्य तमाम कारणों से गांव से शहर भागकर आने वाली महिलाएं घरों में काम करके अपना गुजारा करती हैं।
बंबई-कलकत्ता-दिल्ली तथा बंगलौर की झोपड़पट्टियों पर किये गए शोध के अनुसार गांव से शरणार्थी बनकर शहर आने वाली ऐसी स्त्रियों में से अधिकतर घरों में चूल्हा-चौका करने या निर्माण-कार्यों में दैनिक मजदूरी का काम पकड़ लेती हैं, क्योंकि ऐसे कामों में तनख्वाह कम होने पर भी उनके लिए न्यूनतम अर्हता कुछ नहीं होती। गांठ में पैसा लेकर आईं या भू-स्वामित्व वाली स्त्रियों की तादाद इनमें बहुत कम है अधिकतर के लिए रोज कुआं खोदना रोज पानी पीना, यही सच है। अपने पीछे छोड़े गांव-समाज से इन औरतों का रिश्ता बहुत क्षीण-सा ही रह जाता है लिहाजा उधर से मदद मिलने की भी आशा नहीं होती।1 इस प्रकार इन महिलाओं की जिंदगी अपने मालिकानों के बीच ही केंद्रित होकर रह जाती है। जिन महिलाओं का परिवार नहीं होता, अविवाहित होती हैं या बेसहारा होती हैं उनके साथ यह मजबूरी और अधिक तीव्र होती है। चूंकि कार्य का यह क्षेत्र असंगठित होता है और दूसरी नौकरियों से, काम-धंधे से एकदम अलग किस्म का होता है और घर-परिवार से जुड़ा होता है, इस कारण इस क्षेत्र की कामकाजी महिलाएं कुछ अलग तरीके से शोषण का शिकार होती हैं। 
ऐसे ही शोषण को व्याख्यायित करती, वैचारिकता और भावुकता को उद्वेलित करती कहानी है- प्रख्यात कथाकार यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ की ‘लुगाईजात’। कहानी की पात्र गुलाबड़ी अपने बीमार पति के इलाज के लिए धन कमाने के लिए एक सेठ के बच्चे को पालने का काम करने लगती है। उसके इस काम के कारण उसका अपना बच्चा तो भूख से मरता ही है, बीमारी से उसका पति भी मर जाता है। पति और बच्चे की मौत के कारण बेसहारा हो गई गुलाबड़ी के रूप में सेठ को एक विश्वसनीय नौकरानी मिल जाती है, जिसे ‘धाय मां’ का खिताब देकर सेठ, सेठानी और उनके परिवार के लोग उससे जी भर मेहनत कराने लगते हैं। पति और बच्चे की मौत के बाद बेसहारा गुलाबड़ी ‘धाय मां’ के नाम पर सेठ के घर से भावनात्मक रूप से जुड़ जाती है और उसे अपना घर समझने लगती है, जबकि उसकी इस भावना का लाभ उठाकर सेठ-सेठानी और उनके बच्चे उसकी भावनाओं से खेलते हैं और वह सबके ताने-उलाहने भी यह समझकर सहती रहती है कि अब उसका घर यही है। कष्टदायी एकाकी जीवन और ताने-उलाहनों की पराकाष्ठा से तंग आकर जब गुलाबड़ी अखाराम के घर बैठ जाने का निर्णय ले लेती है, तब एक बार फिर से सेठ उसे ‘धाय मां’ होने की भावनाओं में बांधना चाहता है किंतु गुलाबड़ी अपने निर्णय पर दृढ़ रहती है।2
दरअसल, नौकरानी शब्द में जो ‘रानी’ है, वह उस भाव का प्रतिनिधित्व करता है, जो गुलाबड़ी जैसी महिलाओं के छले जाने का कारण बनता है। यह अपने में ऐसा कटु यथार्थ छिपाए हुए है, जिसे जानते हुए भी अनजाना रखा जाता है। वैसे तो घरों में बर्तन धोने वालियों के लिए ‘महरी’ शब्द का इस्तेमाल होता है, किंतु घर के अन्य कार्यों को भी करने वाली नौकरानी कहलाती हैं। इनका एक वर्ग ऐसा होता है, जो दिन भर के काम के बाद अपने परिवार के साथ रहता है, जबकि दूसरा वर्ग पूर्णकालिक होता है और अपने सेवायोजक के घर पर ही रहता है। घरेलू नौकर भी होते हैं, किंतु यह भावनात्मक रूप से घर के सदस्यों के साथ उतनी जल्दी और गहराई तक नहीं जुड़ पाते, जितनी जल्दी नौकरानियां जुड़ जाती हैं। ऐसा संभवतः नारी-सुलभ विशिष्टता के कारण होता है। प्रायः इनको चाची, बुआ, भौजी, बिट्टी, जिज्जी, दाई या ‘आंटी’ जैसे संबोधन भी मिल जाते हैं, जो छद्म भावात्मकता के ऐसे दुर्ग बना देते हैं, जिनके अंदर इन कामकाजी महिलाओं का शोषण होता रहता है। छद्म भावुकता के ऐसे ढोंग प्रायः सभी घरों में होते हैं, जिनको प्रथमदृष्टया समझ पाना सीधी-सादी, अपढ़-अल्पज्ञ ग्रामीण महिलाओं के लिए असंभव होता है। इसका लाभ उठाकर सभ्य समाज के लोगों द्वारा शोषित होना इनकी नियति बन जाता है। चंद्र जी की कहानी सभ्य समाज के इसी कटु यथार्थ को शिद्दत के साथ प्रकट करती है। समकालीन हिंदी कहानी ने स्त्री-विमर्श से जुड़े इस पक्ष को न केवल गहराई में उतरकर देखा है, वरन् बड़ी बेबाकी के साथ पेश भी किया है।
इसी तरह की एक और कहानी है- चारा (नारायण सिंह)। इस कहानी की मालकिन अपने छोटे भाई को प्रेरित करती है कि वह नौकरानी मीठू से प्रेम का चक्कर चलाए ताकि मीठू को भावनाओं में बांधकर उससे अधिक से अधिक काम लिया जा सके, उसका शोषण किया जा सके। मीठू अपनी मालकिन के छोटे भाई द्वारा स्वार्थवश किये जा रहे झूठे प्यार को नहीं समझ पाती और उसके घर को अपना ही घर समझकर जी-जान से घर के काम में जुटी रहती है, परिवार के लोगों को हर तरह से खुश रखने की कोशिश में ही लगी रहती है। किंतु एक दिन जब मीठू को इस सच्चाई का पता चलता है तो वह बहुत दुखी होती है और अंदर से इतना टूट जाती है कि घरों में काम करना ही बंद कर देती है, तब उससे बदला लेने के लिए उसे बदनाम किया जाता है।3 भावनाओं के साथ जुड़ी हुई ऐसी स्थिति और मानवीयता की हदें पार करके किये जाने वाले शोषण के कारण नौकरानियां असहज और लाचार हो जाती हैं।
घरेलू नौकरानियों के साथ लाचारी आर्थिक विपन्नता की भी होती है। गरीबी, अशिक्षा, मां-बाप-पति की बेकारी या घर चलाने जैसी मजबूरियों के चलते महिलाएं और युवतियां घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करने को विवश होती हैं। इनकी मजबूरी शोषण का प्रमुख कारण बन जाती है। घरों में खाना बनाने, बर्तन धोने और झाड़ू-पोंछा करने के साथ ही वह सभी कुछ करना उनकी ‘ड्यूटी’ में शामिल होता है, जिसकी दरकार घर के मुखिया से लेकर बच्चों तक किसी को भी होती है या हो सकती है। इस प्रकार संगठित क्षेत्रों की भांति इनके कार्य का दायरा निर्धारित नहीं होता और न ही इनके कार्य की अवधि (ड्यूटी ऑवर्स) ही निर्धारित होती है। सुबह दिन निकलने के साथ ही इनकी सेवा (ड्यूटी) चालू हो जाती है, जो देर रात तक अनथक चलती ही रहती है। अपने अस्तित्व को, अपने वजूद को मिटाकर अपने मालिकों की सेवा में मुस्तैद रहने वाली घरेलू नौकरानियां अपमान भी झेलती हैं, ताने-उलाहने भी सहती हैं, और यह सब उस हद तक होता है, जिसे सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
इसके बावजूद इनके अंदर विरोध की भावना तब तक नहीं पनपती जब तक स्थितियां हद से बाहर न हो जाएं। इसका प्रमुख कारण आर्थिक असुरक्षा के साथ ही भविष्य की चिंता होती है। प्रायः बेसहारा नौकरानियों के सामने अपने भविष्य का प्रश्न होता है और इसीलिए चंद्र जी की ‘गुलाबड़ी’ जैसी नौकरानियां अपना सहारा तलाशने लगती हैं। युवा नौकरानियों के संदर्भ में यह और भी तीव्र होता है, क्योंकि उनके साथ असुरक्षा का प्रश्न भी जुड़ा होता है। अर्चना वर्मा की कहानी ‘राजपाट’ की गंगा इसी असुरक्षा के कारण घर के ही युवा नौकर बाबूलाल की ओर आकृष्ट होती है। ‘अपना घर’ बनाने का सपना और भविष्य को सुरक्षित करने की चिंता का समाधान वह बाबूलाल में तलाशती है-
‘वैसे बाबूलाल अच्छा है पर गंगा के लिए वर की उतनी नहीं, जितनी घर की बात है।
उसने हिसाब लगा रखा है पूरा। अभी तो बच्चे इतने छोटे हैं कि एक नौकर, एक आया के बिना काम ही नहीं चलेगा। बाद में सिर्फ मर्द नहीं रखा जायेगा यहां। बहू-बेटी का घर है! तब वह चुपचाप बाबूलाल की जगह ले लेगी, बीच-बीच में इसीलिये वह अपने पाक कौशल का प्रमाण देती रहती है और बच्चों की देखभाल के अलावा भी बहुत-सा काम समेट कर जताती रहती है कि जरूरत पड़ने पर वह सारा घर संभाल सकती है।
बस बाबूलाल को साधना है। समझाना है। धीरे-धीरे बांधकर पंख कतरने हैं। सिखाना है कि यही है अपना आसमान।4
गंगा के मन में बैठे हुए सुनहरे भविष्य के सपने पूरे नहीं हो पाते और एक दिन ऐसा भी आता है, जब गंगा की मां उसे लेने आ जाती है। गंगा के मन में उम्मीद जगती है कि शायद उसकी मालकिन उसे रोक लें, क्योंकि वह अपनी मां के साथ नहीं जाना चाहती। वह जानती है कि उसे अपने घर में भी उपेक्षा ही मिलेगी, क्योंकि उसकी मां को केवल उसकी पगार से ही मतलब रहता है। उसको अपना भविष्य शहर में ही दिखाई देता है। बदली हुई स्थितियों को देखकर गंगा की मालकिन भी बदल जाती है। मालकिन को लगता है कि गंगा की अपेक्षा बाबूलाल अधिक उपयोगी है, लिहाजा वह गंगा को घर से जाने के लिए कह देती है। गंगा के सपने बिखर जाते हैं और उस पर दुश्चरित्र होने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है। अपने सपनों को साकार करने और अपने भविष्य के सपनों को सच करने की जंग में बाबूलाल और गंगा दोनों ही हार जाते हैं। किंतु भीष्म साहनी की कहानी ‘राधा-अनुराधा’ की राधा अपने भविष्य के लिए संघर्ष करती है और भागकर हमपेशा गढ़वाली नौकर से शादी कर लेती है।
 ‘राधा-अनुराधा’ की राधा अपना पेट काटकर, दिन-रात मेहनत करते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करती है, किंतु जब उसके भविष्य की बात आती है तो उसका बाप उसका हित सोचने के बजाय उसे बेचकर धन कामने की योजना ही नहीं बनाता, उसे कार्यरूप में परिणित भी कर डालता है-
    ‘क्यों बीबीजी, जवान लड़के से मेरा ब्याह करेगा, तो उसे जेब से पैसे देने पड़ेंगे,बूढ़े के साथ करेगा, तो उल्टे उसे पैसे मिलेंगे।..........
वह बूढ़ा मेरठ के पास कहीं रहता है और मेरे बाप को पूरे सतरह सौ रुपये देगा। और दो सौ रुपये तो मेरा बाप उससे ले भी आया है।’5
राधा अपनी मालकिन से भावनात्मक रूप से जुड़ जाती है और उससे अपने सुख-दुख बांटती किंतु जैसे ही उसकी मालकिन को पता चलता है कि राधा ने घर से भागकर शादी की है, वह राधा से जाने के लिए कह देती है। मालकिन को राधा से कोई हमदर्दी नहीं रह जाती। अपने मालिकानों से भी भावनात्मक और नैतिक समर्थन न पाकर राधा जैसी तमाम घरेलू नौकरानियां अलग-थलग पड़ जाती हैं। राधा जैसी तमाम घरेलू नौकरानियां अपनी विवशता, असुरक्षा और भविष्य के प्रति चिंता के कारण अपने घर-परिवार से भी कट जाती हैं, क्योंकि घर के साथ उनका रिश्ता धन कमाने भर तक सीमित रह जाता है। इस संदर्भ में प्रख्यात पत्रकार मृणाल पांडे लिखती हैं-
    ‘कुछ शोधों से यह बात भी सामने आई है, कि प्रवासी पुरुषों की तुलना में प्रवासी कमाऊ स्त्रियां अपने पीछे छोड़े परिवारों की रुपये-पैसे से अधिक मदद करती हैं। और आमदनी का अपेक्षया अधिक बड़ा हिस्सा पेट काटकर घरवालों को लगातार भेजती रहती हैं। फिर भी घरवाले उनको खास महत्व नहीं देते। यदि वे शादी करने घर आती हैं, तो प्रायः अपने ही खर्चे से शादी तथा दहेज का प्रबंध करती हैं। जो नहीं कर पातीं, वे अनब्याही ही रह जाती हैं।’6
समाज और परिवार के साथ संघर्ष करते हुए घरेलू नौकरानियों को पुरुष-प्रधान समाज की गिद्ध दृष्टि से भी संघर्ष करना पड़ता है। भीष्म साहनी की कहानी ‘राधा-अनुराधा’ के बंगाली बाबू राधा की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, किंतु इसको सहना राधा की मजबूरी बन जाता है, उसको डर होता है- घर छूट जाने का, बेकार हो जाने का-
    ‘राधा के मन में आया, कह दे, मैं बीबीजी से बता दूंगी। इससे बंगाली बाबू पीछे हट जायेगा, मगर इससे उसकी नौकरी रहेगी? उसने एक बार एक सरदार जी से ऐसे ही कह दिया था, तो दूसरे ही दिन घरवाली ने नौकरी छुड़वा दी थी।’7
इसका दूसरा और महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि घर की मालकिन की मौजूदगी में नौकरानियों का मालिकों द्वारा यौन शोषण कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः नहीं होता और इसकी संभावनाएं भी कम ही होती हैं। जबकि मालकिन और नौकरानी के दिन भर घर में रहने के कारण घरेलू नौकरानियों का शोषण खास तौर पर घर की मालकिनों द्वारा ही होता है। यहां पर एक प्रकार का विशिष्टताबोध और मालिकाना अहं अपनी भूमिका निभाता है। रवीन्द्र वर्मा की कहानी ‘घर में नौकर का घर’ इन्ही स्थितियों को उकेरती है-
    ‘कौशल्या को पहली बार ऐसी कोठी में रहने का मौका मिला था जिसमें सर्वेंट्स क्वार्टर था और इस प्रबंध पर वह मुग्ध थी। उसने आने के पहले ही महीने पति से कहा था कि अब वह हमेशा ऐसे ही घर का इंतजाम करे जिसमें नौकर का घर हो। उसी शाम अग्निहोत्री ने एक घंटी लगवायी थी जो मालती की कोठरी में बोलती थी, मगर जिसका बटन उनके बेड-रूम में था। तब से कौशल्या को यदि हरारत भी हो तो बटन दबाने से मालती और मालती के आने से एक गिलास पानी आ जाता था।’8
कौशल्या अपने मालिकाना अहं के कारण अपनी नौकरानी मालती की विवशताओं को, उसके निजी जीवन की आवश्यकताओं को नहीं देख पाती/देखना चाहती, इसीलिए मालती के सुखद अंतरंग क्षणों को भी छीन लेती है, वैसा ही कौशल्या के साथ भी हो जाता है, जब वह अपने पति का साथ चाह रही होती है और बॉस से डांट खाकर पति का ‘मूड’ उखड़ जाता है।
मालती की तरह गुलाबड़ी, राधा और मीठू अपने साथ होते अन्याय और ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ को सहती नहीं रहतीं, संघर्ष की क्षमता और आत्मबल के ऊपर भारी पड़ते पेट के संकट और असुरक्षा के भाव के बावजूद वे प्रतिकार को उद्यत हो उठती हैं, भले ही उन्हें निर्णायक हल मिले या न मिले। संघर्ष की यह चेतना आधुनिक युगबोध को प्रकट करती है, जो समकालीन हिंदी कहानियों में बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट हुई है।
इसका एकदम विपरीत पक्ष भी है। कुछ आपराधिक किस्म की नौकरानियां घर के लोगों के विश्वास की आड़ में चोरी या अन्य अपराध भी कर डालती हैं, जिस कारण लोगों का विश्वास टूट जाता है और इन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यदि ऐसे अपवादों को छोड़कर विचार किया जाय तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि घरेलू कामकाजी महिलाएं दयनीयता की पराकाष्ठा को पार करके अपना जीवन जी रही हैं। काम के बदले कम वेतन और शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक शोषण की स्थितियां इन्हें समाज में उस अधिकार के साथ, सम्मान के साथ नहीं जीने देतीं जिसको पाना प्रत्येक मानव का हक है। इतना ही नहीं पढ़ने-लिखने की उम्र में काम करने वाली कम उम्र की नौकरानियां और घरों का काम करते-करते बूढ़ी हो गई नौकरानियां भी शोषण का शिकार होती हैं। बूढ़ी नौकरानियों के शारारिक रूप से अक्षम हो जाने पर मालिक लोग उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं और इसलिए उन्हें कई तरह से प्रताड़ित करते हैं, दूसरी ओर इन नौकरानियों के सामने बुढ़ापे को पार करने का, भविष्य के निर्वहन का संकट खड़ा हो जाता है। इनके पास इतनी जमा पूँजी भी नहीं होती कि वे अपना जीवन गुजार सकें। कम उम्र की नौकरानियां अपने मालिकों के बच्चों को पढ़ते-लिखते देखकर; उनके अच्छे कपड़े, खिलौने, खान-पान आदि देखकर हीनताबोध से ग्रस्त हो जाती हैं। पढ़ाई-लिखाई संभव न हो पाने के कारण जीवनपर्यंत घरेलू नौकरानी बने रह जाना ही उनकी नियति बन जाती है। 
हिंदी कहानियों ने घरेलू कामकाजी महिलाओं के, नौकरानियों के दुख-दर्द को न केवल समझा है, वरन् व्यक्त भी किया है। ऐसी कहानियों की संख्या भले ही कम हो किंतु जितनी भी कहानियां लिखी गई हैं उन सभी में बड़ी गहनता के साथ, स्वाभाविकता और यथार्थ के साथ विषय का प्रतिपादन किया गया है। फिर भी इस संदर्भ में हिंदी कहानियों के लिए संभावनाएं शेष हैं, यथार्थ शेष हैं और इनको पूरा किये बगैर स्त्री विमर्श को भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता।

संदर्भ:
1.         महिला शरणार्थी की त्रासदी, परिधि पर स्त्री, मृणाल पांडे, राधाकृष्ण, दिल्ली, 1996
2.         लुगाईजात (कहानी), यादवेंद्र शर्मा चंद्र’, हंस, दिल्ली, जनवरी, 1989
3.         चारा (कहानी), नारायण सिंह, पाटलिप्रभा, धनबाद, मई-दिसंबर, 1993
4.         राजपाट (कहानी), अर्चना वर्मा, हंस, दिल्ली, फरवरी, 1987
5.         राधा-अनुराधा (कहानी), भीष्म साहनी, वाडचू (कहानी संग्रह), राजकमल, दिल्ली, 1978
6.         महिला शरणार्थी की त्रासदी, परिधि पर स्त्री, मृणाल पांडे, राधाकृष्ण, दिल्ली, 1996
7.         राधा-अनुराधा (कहानी), भीष्म साहनी, वाडचू (कहानी संग्रह), राजकमल, दिल्ली, 1978
8.         घर में नौकर का घर (कहानी), रवीन्द्र वर्मा, हंस, दिल्ली, फरवरी, 1989                                                                                                                   
                                                                                     
                                                                                                    डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 16 December 2012

ताँकांजलि : जापानी छंद का हिंदी संस्करण




पुस्तक समीक्षा       
           ताँकांजलि : जापानी छंद का हिंदी संस्करण                             
  लखनऊ निवासी डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं और उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी हैं। एक तो विज्ञान का अध्ययन और ऊपर से प्रशासनिक व्यस्तताएँ, फिर भी हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी साहित्य से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कि उनकी सत्रह कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कवि, गीतकार और शायर डॉ. नासिर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर द्वारा डी.लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गई है और सन् 1999 में लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भाषा विभाग में ‘डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर : व्यक्तित्व और कृतित्व’ विषय पर लघुशोध भी कराया गया है। डॉ. नासिर ने दोहा, सोरठा, कुण्डलिया और चौपाई जैसे प्रचलित छंदों के अतिरिक्त गीतिका, हरिगीतिका, घनाक्षरी और नवीन त्रिपदा छंद के साथ ही उर्दू की काव्य शैलियों- रूबाई, माहिया, त्राइले, ग़ज़ल तथा हिंदी ग़ज़ल और गीत भी लिखे हैं। डॉ. नासिर का ‘हाइकू शताष्टक’ जापान से आयातित वार्णिक छंद हाइकू का हिंदी संस्करण है। हिंदी और उर्दू की कविताओं में छंदों के नए-नए प्रयोगों, कथ्य की प्रभावोत्पादकता को लय के साथ जोड़कर गद्य की बेबाकी को विशुद्ध काव्य में उतारने के अनुसंधानों में सिद्धहस्त डॉ. नासिर ने जापान से नवागत वार्णिक छंद हाइकू का उर्दू संस्करण भी बनाया है, जिसमें 10,14,10 के क्रम में 34 मात्राएँ होती हैं।
  हाइकू की भाँति ताँका भी जापान का नवागत वार्णिक छंद है। यद्यपि उद्भव की दृष्टि से जापान में ताँका छंद का प्रचलन बहुत पहले ही शुरू हो गया था। इसमें 5,7,5,7,7 के क्रम में 31 मात्राएँ होती हैं और यह अतुकांत छंद होता है। इसकी अंतिम दो पंक्तियों के 7,7 अक्षरों को हटा देने पर हाइकू बन जाता है। लेखन की सरलता के कारण संभवतः हाइकू अधिक प्रचलित हो गया और हाइकू का जनक ताँका छंद कम प्रचलित ही रह गया। कुछ एक वर्षों से ताँका छंद भी प्रचलित हुआ है। हिंदी में ताँका का संस्करण भी आया है।
  डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की सद्यः प्रकाशित कृति ताँकांजलि इसी परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत कही जा सकती है। यद्यपि रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ और डॉ. भावना कुँअर के संयुक्त संपादन में ‘भावकलश’ नाम से एक ताँका संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसमें विश्व भर में फैले हिंदी के 29 कवियों के लगभग पाँच सौ ताँका संकलित हैं। इस संकलन से इतर एक ताँकाकार की रचना के तौर पर ताँकांजलि’ का अपना महत्त्व है। ताँकांजलि का महत्त्व डॉ. नासिर के अनुभवी, उम्रदराज़ व्यक्तित्व और व्यापक कृतित्व की बदौलत और अधिक बढ़ जाता है। कविता, गीत, ग़ज़ल और शेरो-शायरी में दैनंदिन जीवन से लेकर समाज, देश और विश्व की समस्याओं-हलचलों को चस्पा कर देने में सिद्धहस्त डॉ. नासिर की लेखनी ताँका शैली के जरिए और अधिक पैनेपन के साथ समस्याओं को, विचारों को और मुद्दों को पूरी शिद्दत के साथ इस कृति में उकेरती है।
  डॉ. नासिर समकालीन साहित्य विमर्श के महत्त्वपूर्ण पक्ष- स्त्री विमर्श से अपनी बात शुरू करते हैं-
काँटों के मध्य/दिल रहता ज़ख्मी/योषा फिर भी/बिखराती मुसकान/सुमनों के समान।4। और
ममतामयी/संतोष की मूरत/भोली सूरत/योषिता-उत्थान हो/सर्वत्र सम्मान हो।6।
  नवजात शिशु के लिए माँ की ममता ही सारा संसार होती है, उसी तरह धरती माता की ममता अपने पुत्रों के लिए होती है। ममता की महत्ता को ब्रह्माण्ड की व्यापकता से आँक कर ताँकाकार ने अपने विचारों की व्यापकता को शब्द दिए हैं-
माँ की ममता/होती सम ब्रह्माण्ड/ओर न छोर/अनादि व अनन्त/हरदम वसन्त।7।
  धरती की ममता के बदले उसे स्वार्थी मानव से मिलने वाली प्रदूषण की सौगात पर दो टूक टिप्पणी-
धरा अनिल/नभ एवं सलिल/किये जो मैले/स्वयं हुए दूषित/पंचभूत पुतले।8।
पर्यावरण प्रदूषण के खतरों की चेतावनी भी ताँका में मुखर हो उठती है-
वायु-वारि-भू/गगन प्रदूषित/हो रहे लुप्त/गिद्ध-चील-गौरैया/मानव! तेरी बारी।9।
अणु बमों से/हुआ है क्या हासिल/क्रुद्ध प्रकृति/विनाश के आसार/प्यारे! करो विचार।18।
  ताँकांजलि में पर्यावरण प्रदूषण को ही नहीं विचारों और तहजीबों के प्रदूषण को भी शब्द मिले हैं-
ठाँव-ठाँव ही/व्याप्त प्रदूषण है/लो! संगीत भी/हो रहा प्रदूषित/बिगड़ी तहजीब।12।
  डॉ. नासिर समाज के विकृत-घिनौने चेहरे को भी देखते हैं और उनकी कलम महँगाई, उग्रवाद और भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर भी चल पड़ती है। महँगाई की पराकाष्ठा पर वे लिखते हैं-
महँगाई ने/मचाया हाहाकार/हाटों में आग/आटा चावल साग/जनता हेतु ख्वाब।27।
जनता भूखी/हो गई, प्याज-रोटी/सोना-चाँदी से/जमाखोरों की चाँदी/खाक मिली आजादी।31।
सोना-चाँदी तो/अब हैं चाँद-तारे/आम आदमी/छू भी इन्हें न पाते/महँगाई के मारे।32।
महँगा आटा/महँगी हुई दाल/नेता फिर भी/सतत खुशहाल/जनता है बेहाल।30।
  बेहाल जनता का मार्मिक चित्रण भी ताँकाकार ने शिद्दत के साथ किया है-
यौवन भूखा/रोगी हुआ वृद्धत्व/शैशव सूखा/महँगाई ने मारा/बेकल सर्वहारा।35।
  एक ओर महँगाई की मार है तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार का काला साया है। ताँका में शब्दबद्ध भ्रष्टाचार की वेदना मुखर हो उठती है-
रोती जनता/भ्रष्टाचार अनन्त/हँसता नेता/सोचो! कैसे हो अब/भ्रष्टाचार का अन्त।36।
भूले संस्कार/पनपा भ्रष्टाचार/न्याय बीमार/बढ़ता अत्याचार/रूठ गई बहार।68।
  भ्रष्टाचार की व्यापकता की वेदना के बीच ताँकाकार को भरोसा है, वक्त बदलने का, उम्मीद है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जागरूक होगी। यही उम्मीद उनकी ताँका की पंक्तियों में साकार हो उठती है-
उठेगी आँधी/जाग्रत होंगे लोग/बोलेंगे हल्ला/भागेंगे भ्रष्टाचारी/आएगा फिर गाँधी।37।
फैले उजास/दूर हो भ्रष्टाचार/महँगाई को/हो जाये वनवास/बेकारी हो बेकार।39।
  यही उम्मीद आवाहन बन जाती है, भ्रष्टाचार के खिलाफ-
भ्रष्टाचारी का/कर दो मुँह काला/बोल दो हल्ला/भाग न पाये पापी/देश बेचने वाला।41।
  ताँकाकार का गुस्सा भ्रष्ट राजनेताओं पर भी उतर पड़ता है-
रचते स्वाँग/सेवक बनने का/बन जाते हैं/स्वामी पाकर वोट/खूब कमाते नोट।45।
बढ़ी गिरानी/चोरी औ’ बेईमानी/झूठों के नाना/नेता की मनमानी/व्यर्थ गई कुर्बानी।46।
  और काले धन पर-
धनी है देश/निर्धन देशवासी/काले धन का/चल रहा है धंधा/विदेशों से विशेष।44।
  भारत के बदलते चरित्र पर ताँकाकार की टिप्पणी-
कल कहते/‘सत्यमेव जयते’/मगर आज/सत्य बेचारा पस्त/झूठ कमीना मस्त।66।
कौन है ऐसा/आजादी न चाहता/पर भेड़िये/हुये कहीं आजाद/ग़ज़ालों का क्या होगा।91।
  ताँकाकार केवल राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याओं से ही नहीं उलझता, वरन् दर्शन के गूढ़ चिंतन को भी शब्दों में समेट लेता है। यथा,
मर्त्य लोक भी/अजब गजब है/भरमाता है/आता है जो जहाँ से/लौट वहीं जाता है।86।
जग सुंदर जीवन/सुखकर/और मरण/शांति का है पर्याय/दुखदायी संक्रांति।89।
बीता न काल/हम ही बीत गये/भरा ही रहा/समय का कलश/हम ही रीत गये।105।
  ताँकाकार प्रकृति के चित्रण के जरिये रहस्यवाद लेकर भी आता है-
ऋतु वासंती/कोकिल गाती गीत/कौवा अगीत/हुआ मोर मायूस/ग्रधृ दिखाते नृत्य।80।
  डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर एक ओर समस्याओं से जूझते, दर्शन पक्ष की, रहस्यवाद की बातें करते नज़र आते हैं तो दूसरी ओर ताँकांजलि में वे उर्दू-शेरो-शायरी की इश्क़िया रवायत के गुलशन की खुश्बू को इस कदर बिखेर देते हैं कि उस महक को लंबे अर्से तक ज़ेहन में ताज़ा रखा जा सकता है। देखिए एक बानगी-
बज़्म हसीन/वो जो नहीं मौज़ूद/सब बेकार/स्वप्न कहाँ साकार/मैं तो हूँ ग़मगीन।21।
  इसी तरह रीतिकालीन काव्य पंरपरा का नवीन कलेवर साकार हो उठता है-
कुंचित केश/काले-काले नयन/रूप अनूप/मुखड़ा है कि चाँद/बिखराता है धूप।23।
वो चन्द्रमुखी/मम चक्षु चकोर/उर में उठी/लख हर्ष-हिलोर/हुआ भावविभोर।20।
  ताँकांजलि में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भी झलक मिल जाती है-
सजी है सभा/गा रहा मधुघोष/उल्लू करता/मोबाइल पे बात/कौवा भी खुराफात।81।
निगल रहे/नभ के काले गार/ब्रह्माण्ड पिण्ड/साथ ही उजियार/बचेगा अँधियार।107।
एक सागर/ज्ञान का विज्ञान का/लहरा रहा/बूँद पाकर मूर्ख/एक इठला रहा।108।
  समग्रतः, ताँकांजलि में प्रकृति, परिवेश और जीवन पूरी शिद्दत के साथ प्रकट हुआ है। ताँकाकार का काव्य-कौशल, शब्द-चयन, विचारों का गुंफन और गाम्भीर्य मिल-जुल कर कृति की प्रासंगिकता को बढ़ा देते हैं तथा इसे निःसंदेह पठनीय और संग्रहणीय कृति बना देते हैं।
                                                                                                                      डॉ. राहुल मिश्र

Tuesday 7 August 2012

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी


महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी

हिमालय के साथ जुड़ा राहुल सांकृत्यायन का नेह-प्रेम जगजाहिर है। उन्होने ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र अर्थात् लदाख, तिब्बत और चीन तक कई बार यात्राएँ की हैं और यहाँ के धर्म, संस्कृति तथा ज्ञान को सारी दुनिया के लिये सुलभ बनाने में योगदान दिया है। राहुल जी का जितना लगाव ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र से रहा है, उतना ही लगाव निचले हिमालयी परिक्षेत्र से भी रहा है। देश-दुनिया में आते बदलावों के कारण परिवर्तन की तेज लहर जितनी धीमी गति से हिमालय के ऊपरी परिक्षेत्र में आई, उतनी ही तेजी के साथ परिवर्तन की बयार निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आई और उसे प्रभावित किया। निचले हिमालयी परिक्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग और दार्जिलिंग-कलिमपोंग का इलाका आता है। इन क्षेत्रों में अंग्रेज हुक्मरानों के आगमन के साथ ही आधुनिकता का विकास हुआ, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लगातार चलता ही रहा।

राहुल सांकृत्यायन ने ऊपरी हिमालय परिक्षेत्र में फैले ज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आते सांस्कृतिक एवं सामाजिक बदलावों का गहन अध्ययन भी किया है। उनका यह अध्ययन उनकी कहानियों में उतरा है। निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से उनका कहानी-संग्रह है बहुरंगी मधुपुरी । उनके इस कहानी-संग्रह में इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं।

कहानी-संग्रह का शीर्षक ही इन कहानियों की तासीर को बताने के लिये पर्याप्त है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का अपना अलग रंग है। इन कहानियों में कहीं अमीर लोगों के रहन-सहन को, उनके ऐशो-आराम और विलासिता को प्रकट किया गया है तो कहीं इस क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रकट किया गया है।

मधुपुरी  शब्द हिमालय की तराई की प्राकृतिक सुंदरता को, उसकी मधु सदृश्य मिठास को बताने का काम करता है। राहुल जी ने अपने कहानी-संग्रह बहुरंगी मधुपुरी  की भूमिका में अपनी कथा-भूमि को विलासपुरी भी कहा है। उनके द्वारा यह संबोधन दिया जाना काफी हद तक सही और प्रासंगिक सिद्ध हो जाता है, जब हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं।

भारत में जब अंग्रेज हुक्मरान आये तो उन्हें यहाँ की गर्मी ने बहुत सताया। इसी संकट ने मधुपुरी या विलासपुरी अर्थात् निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सौंदर्य से, यहाँ की शीतल-मंद-सुगंधित बयार से अंग्रेज हुक्मरानों को जोड़ दिया। इस तरह अंग्रेज अफसरों ने भारत में भी एक इंग्लैण्ड को पा लिया था और इसी कारण वे इस समूचे क्षेत्र को एक मिनी इंग्लैण्ड की तरह विकसित करने लगे थे। अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के अमीर-सेठ-साहूकार और राजे-महराजे भी इस क्षेत्र की तरफ आकर्षित हुए और इस तरह से यह क्षेत्र विलासपुरी के तौर पर विकसित हो गया। राहुल जी ने अपनी सभी कहानियों में इस स्थिति को पूरे कथा-रस के साथ, रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।

दूसरी ओर इन कहानियों में इस क्षेत्र के मूल निवासी भी हैं, जो अमीरों के अजीबोगरीब शौकों को देखते हैं, कभी-कभी उनका शिकार भी बनते हैं। अपमानित भी होते हैं और धन भी कमाते हैं।

ब्रिटिश भारत जैसे-जैसे आजादी की राह पर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे यह क्षेत्र भी अपना महत्त्व बढ़ा रहा था। विकास के नए-नए आयाम खुलते जा रहे थे। विकास की यह गति बहुरंगी मधुपुरी  की हर-एक कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलती दिखाई देती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ता है। अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं और भारत में देशी अंग्रेज रह जाते हैं। वे उसी पुरानी परंपरा को चलाना चाहते हैं। कहानी-संग्रह भी अपने अंत पर पहुँचता है। आखिरी कहानी काठ का साहब देशी अंग्रेजों की मानसिकता पर आधारित है। इस कहानी में भ्रष्टाचार भी है, शाही-रईसी शौक भी हैं और अमीर गरीब का भेद भी है। इस तरह आखिरी कहानी में हमें निचले हिमालयी क्षेत्र का वर्तमान देखने को मिलता है। वास्तव में यह कहानी-संग्रह इतिहास, संस्कृति और समाज में आते बदलाव को तो बतलाता ही है, साथ ही समाज की कड़वी हकीकत को भी हमारे सामने स्पष्ट कर देता है

                                                                                         डॉ. राहुल मिश्र

Saturday 14 July 2012

हे संचालक! तू महान है (व्यंग्य)


            हे संचालक! तू महान है  (व्यंग्य)
कोई भी आयोजन हो, छोटा या बड़ा, आयोजन की सफलता या असफलता का केंद्र बिंदु संचालक ही होता है। साथ ही संचालक के व्यक्तित्व से आयोजन के वैशिष्ट्य का दर्शन होता है।  संचालक जैसा होगा, श्रोता या दर्शक आयोजन के बारे में वैसी ही धारणा बनाएँगे। वैसे संचालक की परिभाषा तो रही है- कि वह व्यक्ति या व्यक्तित्व, जो संचालन करने की क्षमता रखता है, संचालक कहलाता है। जैसे, बीस डिब्बों वाली रेलगाड़ी को एक दाढ़ीबाबा चला रहे हैं, यह है सरकार का संचालन और व्यक्ति हुआ संचालक। लेकिन फिर भी लोग समाचारपत्रों के कंधे पर अपने विचारों को रखकर फायर कर देते हैं, लिहाजा समाचारपत्र हर रोज यही कहते हैं कि सरकार के संचालक तो बापू के वारिसान हैं और जो संचालक दूरदर्शन पर नजर आते हैं वो तो केवल दिखाने वाले हाथी दाँत के उदाहरण हैं। सरकारी योजनाओं, नीतियों और परियोजनाओं को चबा-चबाकर खाने वाले दाँत तो दूसरे हैं, जो दिखते नहीं हैं।
तमाम मठों के अधिपति अपने को धर्म का ठेकेदार मानते हैं और पीठाधीश्वर या हामीकार बनकर फतवा-फरमान जारी करते हुए धर्म के संचालक होने के नित नए प्रयोग और अनुष्ठान करते हैं। ऐसे बौखलाए और लाचार संचालक जिनके बारे में अपने द्वारा संचालित किए जाने का ढिंढोरा पीटते वो नई सदी की संचार क्रांति, भागमभाग और महँगाई की मार से स्वचालित हो गए हैं। वे निर्माण या ध्वंस के चक्कर में न पड़कर दो जून की रोटी के लिए मेहनत करना ज्यादा जरूरी समझते हैं और अपनी मजबूरी भी समझते हैं। मजबूरी तो धर्म संचालकों के सामने भी है, अगर संचालक पद का त्याग कर दिया तो अम्पाला या मर्सिडीज़ बेंज में लंबा-चौड़ा झंडा लगाकर घूमने, तरह-तरह के पकवान-व्यंजनों-मेवों और किस्म-किस्म के सुखों का रसास्वादन करने का सुख पल भर में छूट जाएगा।
तमाम समाज के ठेकेदार, जिन्हें समाज के बनने या बिगड़ने की बड़ी चिंता होती है; वे समाज की हर-एक गतिविधि पर अपनी पैनी नज़र रखते हुए समाज को प्रगतिशील बनाने, समाज को सुधारने और समाज को नई दिशा देने के लिए स्वयं संचालक बनकर सामने आते हैं। समाज के ऐसे ठेकेदारों को इसीलिए राजकाज की भाषा में स्वैच्छिक कहा जाता है। ये अपनी इच्छा से अपने सिर पर समाज को सुधारने और समाज का संचालन करने का ताज धारण करके समाजसेवा के रण में कूद पड़ते हैं। यह अलग बात है कि समाजसेवा के लिए सरकारी योजनाओं का शुभारंभ इनके घर भरो आंदोलन के साथ शुरू हो। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, क्योंकि जब तक स्वयंसेवा नहीं होगी तब तक समाजसेवा कैसे हो सकती है। स्वयंसेवा का भी अपना ‘स्टैंड’ है। स्वयंसेवक समाज के बड़े सेवकों में स्थान पाते हैं। इन स्वयं सेवकों में भारत-भारती का जज्बा पूरे उफान पर रहता है और इसी बूते यह समाज के संचालक होने का दम भरते हैं, जरूरत पड़ने पर ताल भी ठोंक देते हैं।
ताली बजाकर और ताल ठोंककर विदेशी परिधानों को धारण किए हुए ऊपर से नीचे तक, आहार से विचार तक विदेशी संगत में तराशे हुए एक अलग कुलीन तबके के उदाहरण पर, भारतीय समाज के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के उदाहरण पर अगर गौर किया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि हमारे संचालक तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया हैं। जब इन संचालकों से देशी संचालकों की मुठभेड़ हो जाती है, तब एशियन बनाम अल्सेशियन का मामला बन जाता है। तब लगता है कि हमारे संचालक बहुत लाचार और बेबस हैं, उनकी सोच को पाला मार गया है, उनकी सोच ने विस्तार पाना बंद कर दिया है। नई ‘जेनरेशन’ राष्ट्राभिमान और राष्ट्रप्रेम के बजाय विश्वप्रेम और विश्वबंधुत्व को ‘प्रमोट’ कर रही है। तभी तो अपनी तहजीब, अपनी पहचान की बलि देकर विचार और व्यवहार में ‘मल्टीनेशनलाइज़्ड’ हो रही है। यह ‘मल्टीनेशनलाइजेशन’ वैश्विक स्तर पर संचालकों का महासमूह है, एक महाआंदोलन है, जिसके आगे छुटभैये किस्म के संचालक सूरज के सामने दीपक जैसी गरिमा से मंडित होते हैं।
ऊपर की पंक्तियाँ जिस प्रकार के संचालकों का बखान कर रहीं हैं, वे स्थाई और ‘लाँग टर्म’ टाइप संचालक हैं। एकबारगी ऐसा सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ऐसे महान संचालक धरती पर संचालन करने के लिए ही भेजे गए हैं- जाओ, और युगों-युगों से असंचालित अर्द्धपशु मनुष्य रूपी जीव प्रजाति को अपने कुशल  संचालन से पूर्ण करके पूर्णता प्रदान करो। दूसरे किस्म के संचालक क्षणिक होते हैं, उनकी भी अपनी गरिमा होती है। जिस तरह किसी भी दबे-कुचले, मरहे-खुरहे व्यक्ति को आयोजन के अध्यक्ष पद पर आसीन कर देने पर उसमें त्रैलोक्य तेज और गंभीरता समा जाती है, ठीक उसी तरह आयोजन का संचालक चाहे कितना भी मूढ़ और अज्ञानी क्यों न हो मंच पर माइक के सामने परम वैभव और अनूठी विद्वता का परिचायक बन ही जाता है। हाँ, अगर संचालक नया है तो थोड़ा झिझक की वजह से भाषा और व्याकरण की गलती के साथ ही अप्रासंगिक उदाहरण कह जाता है। जैसे एक बार एक शोक सभा के आयोजन में संचालक महोदय ने ऐसा चुटकुला सुना दिया कि गमगीन माहौल अचानक ठहाकों में बदल गया और ठहाके भी इतने बुलंद थे कि अगर स्वर्गीय व्यक्ति वहाँ पर मौजूद होता तो उसे स्वयं पर शर्म जरूर आ जाती। कुछ ‘रजिस्टर्ड’ संचालक भी होते हैं, जिन्हें हर आयोजन में खासतौर पर संचालन करने के लिए बुलाया जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह लोग अपने घर में पुत्ररत्न की प्राप्ति पर गाने-बजाने के लिए ‘कुछ लोगों’ को बुलाते हैं। अब आप स्वयं ही समझ गए होंगे कि उनकी संज्ञा क्या होगी।
ऐसे संचालक हर बड़े से बड़े या छोटे से छोटे आयोजन के संचालक बनकर आयोजन की सफलता को पैमाने में कसते हैं। अपने यहाँ भी एक संचालक हैं, जिनका व्यक्तित्व चंद्रिका के समान शीतल है और अपने ललित ज्ञान की आभा से आयोजन को आलोकित कर देते हैं। अपने संचालन में ये साहित्य के लालित्य का प्रदर्शन करते हैं और आदि कवि से लेकर आधुनिक कवियों तक की रचनाओं के टुकड़े इस कदर सभा में बिखेर देते हैं कि तमाम मनीषियों को अपनी अगाध साहित्यसेवा में शर्म महसूस होने लगती है। वैसे अगर सब टुकड़े जोड़े जाएँ तो बेशक भानुमती का पिटारा बन सकता है। ऐसे लालित्य को बुंदेलखंड की भाषा में ललत्ता कहा जाता है। जब कोई बेटा समोसा खा लेने के बाद जलेबी खाने की ‘डिमांड’ अपनी माँ के सामने रखता है तो माँ उसे झिड़ककर कहती है- तैं बहुत ललत्ता हा। ऐसे ही हमारे बहुप्रचलित और बहुप्रचारित संचालक महोदय ने इस कदर रचनाएँ चुराईं हैं कि तमाम जीवित और तमाम दिवंगत रचनाकारों की आत्माएँ हर-एक आयोजन के दौरान इन संचालक महोदय के लिए यह बुंदेलखंडी वाक्य दोहराती हैं। लेकिन हमारे संचालक महोदय बिना किसी संकोच, झिझक या पूर्वाग्रह के अपने प्रदर्शन द्वारा अंधों में काना राजा वाली ‘पोजीशन’ बनाए हुए हैं। इस तरह का डटे रहने वाला जज्बा भी संचालकों की योग्यता में शुमार होता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि संचालक किसी भी आयोजन में वही स्थान रखता है, जो स्थान जीभ का मुँह में होता है। फिर चाहे जीभ तोतली भाषा में बोले या फिर हकलाए, सुनना तो पड़ेगा ही। संचालक को सहन करना श्रोताओं या दर्शकों की मजबूरी है और यह मजबूरी लाइलाज है। चाहे वह किसी आयोजन का संचालक हो या फिर दिल्ली में बैठा संचालक हो।
                                               डॉ. राहुल मिश्र