Saturday 14 July 2012

हे संचालक! तू महान है (व्यंग्य)


            हे संचालक! तू महान है  (व्यंग्य)
कोई भी आयोजन हो, छोटा या बड़ा, आयोजन की सफलता या असफलता का केंद्र बिंदु संचालक ही होता है। साथ ही संचालक के व्यक्तित्व से आयोजन के वैशिष्ट्य का दर्शन होता है।  संचालक जैसा होगा, श्रोता या दर्शक आयोजन के बारे में वैसी ही धारणा बनाएँगे। वैसे संचालक की परिभाषा तो रही है- कि वह व्यक्ति या व्यक्तित्व, जो संचालन करने की क्षमता रखता है, संचालक कहलाता है। जैसे, बीस डिब्बों वाली रेलगाड़ी को एक दाढ़ीबाबा चला रहे हैं, यह है सरकार का संचालन और व्यक्ति हुआ संचालक। लेकिन फिर भी लोग समाचारपत्रों के कंधे पर अपने विचारों को रखकर फायर कर देते हैं, लिहाजा समाचारपत्र हर रोज यही कहते हैं कि सरकार के संचालक तो बापू के वारिसान हैं और जो संचालक दूरदर्शन पर नजर आते हैं वो तो केवल दिखाने वाले हाथी दाँत के उदाहरण हैं। सरकारी योजनाओं, नीतियों और परियोजनाओं को चबा-चबाकर खाने वाले दाँत तो दूसरे हैं, जो दिखते नहीं हैं।
तमाम मठों के अधिपति अपने को धर्म का ठेकेदार मानते हैं और पीठाधीश्वर या हामीकार बनकर फतवा-फरमान जारी करते हुए धर्म के संचालक होने के नित नए प्रयोग और अनुष्ठान करते हैं। ऐसे बौखलाए और लाचार संचालक जिनके बारे में अपने द्वारा संचालित किए जाने का ढिंढोरा पीटते वो नई सदी की संचार क्रांति, भागमभाग और महँगाई की मार से स्वचालित हो गए हैं। वे निर्माण या ध्वंस के चक्कर में न पड़कर दो जून की रोटी के लिए मेहनत करना ज्यादा जरूरी समझते हैं और अपनी मजबूरी भी समझते हैं। मजबूरी तो धर्म संचालकों के सामने भी है, अगर संचालक पद का त्याग कर दिया तो अम्पाला या मर्सिडीज़ बेंज में लंबा-चौड़ा झंडा लगाकर घूमने, तरह-तरह के पकवान-व्यंजनों-मेवों और किस्म-किस्म के सुखों का रसास्वादन करने का सुख पल भर में छूट जाएगा।
तमाम समाज के ठेकेदार, जिन्हें समाज के बनने या बिगड़ने की बड़ी चिंता होती है; वे समाज की हर-एक गतिविधि पर अपनी पैनी नज़र रखते हुए समाज को प्रगतिशील बनाने, समाज को सुधारने और समाज को नई दिशा देने के लिए स्वयं संचालक बनकर सामने आते हैं। समाज के ऐसे ठेकेदारों को इसीलिए राजकाज की भाषा में स्वैच्छिक कहा जाता है। ये अपनी इच्छा से अपने सिर पर समाज को सुधारने और समाज का संचालन करने का ताज धारण करके समाजसेवा के रण में कूद पड़ते हैं। यह अलग बात है कि समाजसेवा के लिए सरकारी योजनाओं का शुभारंभ इनके घर भरो आंदोलन के साथ शुरू हो। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, क्योंकि जब तक स्वयंसेवा नहीं होगी तब तक समाजसेवा कैसे हो सकती है। स्वयंसेवा का भी अपना ‘स्टैंड’ है। स्वयंसेवक समाज के बड़े सेवकों में स्थान पाते हैं। इन स्वयं सेवकों में भारत-भारती का जज्बा पूरे उफान पर रहता है और इसी बूते यह समाज के संचालक होने का दम भरते हैं, जरूरत पड़ने पर ताल भी ठोंक देते हैं।
ताली बजाकर और ताल ठोंककर विदेशी परिधानों को धारण किए हुए ऊपर से नीचे तक, आहार से विचार तक विदेशी संगत में तराशे हुए एक अलग कुलीन तबके के उदाहरण पर, भारतीय समाज के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के उदाहरण पर अगर गौर किया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि हमारे संचालक तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया हैं। जब इन संचालकों से देशी संचालकों की मुठभेड़ हो जाती है, तब एशियन बनाम अल्सेशियन का मामला बन जाता है। तब लगता है कि हमारे संचालक बहुत लाचार और बेबस हैं, उनकी सोच को पाला मार गया है, उनकी सोच ने विस्तार पाना बंद कर दिया है। नई ‘जेनरेशन’ राष्ट्राभिमान और राष्ट्रप्रेम के बजाय विश्वप्रेम और विश्वबंधुत्व को ‘प्रमोट’ कर रही है। तभी तो अपनी तहजीब, अपनी पहचान की बलि देकर विचार और व्यवहार में ‘मल्टीनेशनलाइज़्ड’ हो रही है। यह ‘मल्टीनेशनलाइजेशन’ वैश्विक स्तर पर संचालकों का महासमूह है, एक महाआंदोलन है, जिसके आगे छुटभैये किस्म के संचालक सूरज के सामने दीपक जैसी गरिमा से मंडित होते हैं।
ऊपर की पंक्तियाँ जिस प्रकार के संचालकों का बखान कर रहीं हैं, वे स्थाई और ‘लाँग टर्म’ टाइप संचालक हैं। एकबारगी ऐसा सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ऐसे महान संचालक धरती पर संचालन करने के लिए ही भेजे गए हैं- जाओ, और युगों-युगों से असंचालित अर्द्धपशु मनुष्य रूपी जीव प्रजाति को अपने कुशल  संचालन से पूर्ण करके पूर्णता प्रदान करो। दूसरे किस्म के संचालक क्षणिक होते हैं, उनकी भी अपनी गरिमा होती है। जिस तरह किसी भी दबे-कुचले, मरहे-खुरहे व्यक्ति को आयोजन के अध्यक्ष पद पर आसीन कर देने पर उसमें त्रैलोक्य तेज और गंभीरता समा जाती है, ठीक उसी तरह आयोजन का संचालक चाहे कितना भी मूढ़ और अज्ञानी क्यों न हो मंच पर माइक के सामने परम वैभव और अनूठी विद्वता का परिचायक बन ही जाता है। हाँ, अगर संचालक नया है तो थोड़ा झिझक की वजह से भाषा और व्याकरण की गलती के साथ ही अप्रासंगिक उदाहरण कह जाता है। जैसे एक बार एक शोक सभा के आयोजन में संचालक महोदय ने ऐसा चुटकुला सुना दिया कि गमगीन माहौल अचानक ठहाकों में बदल गया और ठहाके भी इतने बुलंद थे कि अगर स्वर्गीय व्यक्ति वहाँ पर मौजूद होता तो उसे स्वयं पर शर्म जरूर आ जाती। कुछ ‘रजिस्टर्ड’ संचालक भी होते हैं, जिन्हें हर आयोजन में खासतौर पर संचालन करने के लिए बुलाया जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह लोग अपने घर में पुत्ररत्न की प्राप्ति पर गाने-बजाने के लिए ‘कुछ लोगों’ को बुलाते हैं। अब आप स्वयं ही समझ गए होंगे कि उनकी संज्ञा क्या होगी।
ऐसे संचालक हर बड़े से बड़े या छोटे से छोटे आयोजन के संचालक बनकर आयोजन की सफलता को पैमाने में कसते हैं। अपने यहाँ भी एक संचालक हैं, जिनका व्यक्तित्व चंद्रिका के समान शीतल है और अपने ललित ज्ञान की आभा से आयोजन को आलोकित कर देते हैं। अपने संचालन में ये साहित्य के लालित्य का प्रदर्शन करते हैं और आदि कवि से लेकर आधुनिक कवियों तक की रचनाओं के टुकड़े इस कदर सभा में बिखेर देते हैं कि तमाम मनीषियों को अपनी अगाध साहित्यसेवा में शर्म महसूस होने लगती है। वैसे अगर सब टुकड़े जोड़े जाएँ तो बेशक भानुमती का पिटारा बन सकता है। ऐसे लालित्य को बुंदेलखंड की भाषा में ललत्ता कहा जाता है। जब कोई बेटा समोसा खा लेने के बाद जलेबी खाने की ‘डिमांड’ अपनी माँ के सामने रखता है तो माँ उसे झिड़ककर कहती है- तैं बहुत ललत्ता हा। ऐसे ही हमारे बहुप्रचलित और बहुप्रचारित संचालक महोदय ने इस कदर रचनाएँ चुराईं हैं कि तमाम जीवित और तमाम दिवंगत रचनाकारों की आत्माएँ हर-एक आयोजन के दौरान इन संचालक महोदय के लिए यह बुंदेलखंडी वाक्य दोहराती हैं। लेकिन हमारे संचालक महोदय बिना किसी संकोच, झिझक या पूर्वाग्रह के अपने प्रदर्शन द्वारा अंधों में काना राजा वाली ‘पोजीशन’ बनाए हुए हैं। इस तरह का डटे रहने वाला जज्बा भी संचालकों की योग्यता में शुमार होता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि संचालक किसी भी आयोजन में वही स्थान रखता है, जो स्थान जीभ का मुँह में होता है। फिर चाहे जीभ तोतली भाषा में बोले या फिर हकलाए, सुनना तो पड़ेगा ही। संचालक को सहन करना श्रोताओं या दर्शकों की मजबूरी है और यह मजबूरी लाइलाज है। चाहे वह किसी आयोजन का संचालक हो या फिर दिल्ली में बैठा संचालक हो।
                                               डॉ. राहुल मिश्र     
    
    

Tuesday 17 January 2012

अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत


             अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत
  क व्यक्ति था अज्ञेय। सच्चिदानंद, हीरानंद वात्स्यायन। अप्रैल को है से था हो गया। सुंदर, भव्य, विराट, निर्बंध, अभेद्ध, अवेध्य व्यक्तित्व; यानि फूल-मालाओं के बीच सिर्फ़ एक चित्र, उतना ही चुप, उतना ही रहस्यावृत.... अज्ञेय।
हम लोगों ने आँखें खोलते ही उसी रौबदार नाम को अपने आस-पास पाया था... हवा, पानी, नदी, पहाड़ की तरह, आँगन पर छाये एक पेड़ की तरह जो बहुत कुछ देता है और बहुत कुछ छीन लेता है। एक दिन वह नहीं होता तो भाँय-भाँय करता आसमानी रेगिस्तान होता है। खुले आतंकप्रद विस्तार के नीचे हम बहुत छोटे हो जाते हैं....अवसन्न और दिग्भ्रांत.....1
यह पंक्तियाँ हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने अज्ञेय जी के देहांत के बाद हंस के मई, 1987 के संपादकीय में लिखीं थीं। अज्ञेय जी का जीवन संघर्षों और विविधताओं से भरा रहा, सन् 1930 से 1936 तक अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी के रूप में जेल यात्राएँ और उन्हीं अंग्रेजों की सेना में सन् 1943 से 1946 तक अधिकारी का दायित्व। अज्ञेय का चित्र देखें— रोबीला चेहरा, गर्वोन्नत भाल, जिजीविषा से भरी खोजी निगाहें, गजब की दृढ़ता; चेहरे की भाव भंगिमा के विपरीत अज्ञेय जी में अपार शालीनता होगी, सरलता और सहजता होगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
वस्तुतः ऐसे ही परस्पर विरोधी तत्त्वों के सायुज्य से, विविधताओं से, बड़े सुंदर तरीके से गढ़कर अज्ञेय का व्यक्तित्व बना है। इसी कारण अज्ञेय को जान पाना जितना कठिन है, उतना ही सरल भी है। इसी कारण अज्ञेय जी के साहित्य में विविधता और अनुभव क्षेत्र की व्यापकता के दर्शन जितने विस्तृत फलक पर होते हैं, उतने अन्यत्र ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते। अज्ञेय के साहित्य की समझ तभी विकसित हो सकती है, जब उनके व्यक्तित्व को, व्यक्तित्व में गहराई तक समाए हुए संतुलन के भाव को गहराई तक समझा जाए।
एक कवि के रूप में वे पारंपरिक भी थे और आधुनिक भी थे, और इनके समन्वय पर भी जोर देते थे— जो कवि अपने को ‘आधुनिक’ कहते या मनवाना चाहते हैं उनके लिए ‘पारम्परिक’ एक अवहेलना-सूचक विशेषण होता है; मेरे लिए वैसा कदापि नहीं है। वाचिक स्थिति पारंपरिक स्थिति थी; उस का कवि उसी में रहकर अपना सम्प्रेषण-धर्म निबाह सकता था। इसलिए इस अर्थ में पारम्परिक होना न केवल दोष नहीं था बल्कि अपने सामाजिक रिश्ते की सही पहचान और कवि-कर्म का सही निष्पादन था। दूसरे, यह भी उल्लेख्य है कि यह परिवर्तन न तो एक सीधी छलांग में सम्पन्न हो गया था, न एकाएक परम्परा को तोड़ कर आधुनिक हो जाने का श्रेय मेरा है। वैसा कहना ऐतिहासिक झूठ भी होगा, अनेक बड़े कवियों के साथ अन्याय  भी होगा, और आधुनिक होने की प्रक्रिया को ग़लत समझना भी होगा।संभवतः इसी कारण अज्ञेय प्रयोग पर जोर देते और नयेपन को स्वीकार भी करते थे। अज्ञेय (कितनी नावों में कितनी बार, 1967; सुनहरे शैवाल, 1967; क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, 1969; पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, 1974; महावृक्ष के नीचे, 1977; सर्जना के क्षण, 1979 आदि) ने भी ‘नई कविता’ में लिखा, किंतु तथाकथित ‘नए कवियों’ चोट की—
आ, तू आ,
हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे,
मुझे मुंह भर गाली देता—
आ, तू आ!
जयी, युग नेता, पथ-प्रवर्तक
आ, तू आ,
ओ गतानुगामी!
‘नई कविता’ में अनुभूति का बड़ा जोर था और इन कवियों ने ‘अज्ञेय’ को छोड़कर भिन्न मार्ग ग्रहण किया। उन्होने ‘अज्ञेय’ रूपी सूर्य को ‘अस्त’ हुआ समझ लिया वैसे ‘नई कविता’ के बीज प्रयोगवाद में ही निहित थे।’3
हिंदी की प्रचलित धारा के विपरीत एकदम अलग, नूतन और अभिनव स्थापनाएँ देने और विचार रखने के कारण हिंदी की प्रयोगशील धारा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि, यायावर-घुमक्कड़ अज्ञेय का साहित्यिक जीवन आलोचनाओं और विरोधों से भरा रहा। इसके बावजूद वह कभी भी विचलित नहीं हुए। वैचारिक विभेद के बावजूद फ्रायड और मार्क्स से वे प्रभावित हुए। वैचारिक विरोधियों के विरोधों के साथ ही दूसरों के साथ दृष्टि-भेद को स्वीकार करने में अज्ञेय अत्यंत उदार थे। सच्चाई को पूरे मन के साथ स्वीकार करना और उस पर अडिग रहना भी अज्ञेय की विशेषता थी। इन्ही कारणों से अज्ञेय की स्थिति उनके काव्य संग्रहों— ‘भग्नदूत’ और ‘चिंता’ के समय तक उपेक्षित-सी रही, ‘इत्यलम्’ और ‘हरी घास पर क्षण भर’ तक विवादित रही और ‘बावरा अहेरी’ से ‘अरी ओ करुणामय प्रभा’ तक आते-आते वे नई कविता के प्रमुख स्तंभ बन गए। उनके कटु आलोचक भी उनकी काव्य प्रतिभा के दबे मन से ही सही, कायल हो गए थे।
छायावादोत्तर कालीन कवियों में अज्ञेय एक ऐसे कवि हैं, जिनका शहरी और देहाती जीवन की अनुभूतियों पर समान अधिकार नजर आता है। ‘अज्ञेय एक ओर मध्यवर्गीय व्यक्ति-मन की कुंठा-निराशा को, औद्योगिक नगरों की असंगति- भरी सभ्यता को उसकी तीव्रता में पकड़ते हैं, तो दूसरी ओर उन्मुक्त प्रकृति या ग्राम-जीवन की किसी छवि, विषमता या व्यथा को व्यंजित करते हैं या प्रकृति और ग्राम्य-जीवन के बिम्ब लेकर अनुभूति या सौंदर्य का कोई स्वर उभारते हैं।’4 आधुनिक जीवन की विसंगतियों के साथ ही लोक-जीवन की विद्रूपताएँ, प्रकृति का सौंदर्य, क्रांति और विद्रोह का स्वर अज्ञेय की कविताओं में इस प्रकार स्थान पाता है कि जीवन का कोई कोना, संवेदना का कोई रंग या बौद्धिकता का की पक्ष छूट जाना असंभव की हद तक कठिन होता है। अज्ञेय की कविताओं में अनुभूति या संवेदना और बौद्धिकता का सामंजस्य इतने संतुलित रूप में है कि दोनों ही एक दूसरे को नियंत्रित करती और एक दूसरे के अभावों की पूर्ति करती नजर आती हैं। अज्ञेय के कवित्व में कोरी बौद्धिकता और संवेदना ही नहीं व्यंग्य भी शामिल है, देखिए उनकी बहुचर्चित कविता, बानगी के तौर पर—
‘साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ— (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना—
विष कहाँ पाया?’5
अज्ञेय को अच्छा कवि कहा जाए या गद्यकार, यह समझ पाना भी बहुत कठिन है। ‘शेखर- एक जीवनी’ के प्रकाशित होने के बाद डॉ. नगेंद्र सहित कई आलोचकों ने उन्हें मुख्यतः गद्यकार ही घोषित कर दिया। अज्ञेय के तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं और तीनों उपन्यास स्वयं में बेजोड़ होने के साथ ही विविधता को, विरोधी तत्त्वों को कुशलता के साथ जोड़े हुए हैं।
अज्ञेय के पहले उपन्यास- शेखर- एक जीवनी (1941) में भारतीयता की अमिट छाप है। उपन्यास के नायक शेखर का झगड़ा अपने पिता से इस बात को लेकर होता है कि वह हिंदी का पक्षधर है और उसके पिता अंग्रेजी के। उनके दूसरे उपन्यास- नदी के द्वीप (1951) के पात्र भुवन, रेखा और गौरा पर अंग्रेजियत का गहरा प्रभाव है। जबकि अज्ञेय के तीसरे उपन्यास- अपने-अपने अजनबी में भारतीयता और अंग्रेजियत का सुंदर तालमेल मिलता है।
अज्ञेय और जैनेंद्र की कथा-भाषा की तुलना करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि— ‘अज्ञेय की कथा-भाषा के कई रंग हैं, जो जैनेंद्र में इस रूप में नहीं दिखते। शायद यही कारण है जिससे जैनेंद्र के परवर्ती उपन्यासों में एकरसता जैसा भाव आने लगता है, जबकि अज्ञेय में भाषिक प्रयोगों के बीच नयी संभावनाएँ उभरती हैं। ‘शेखर’ की मूलगत भाषा ‘नदी के द्वीप’(1951) की प्रणय-गाथा में और अर्थ-सघन हो उठती है; फिर एकाएक ‘अपने-अपने अजनबी’(1961) में मृत्यु के साक्षात्कार-प्रसंग में अज्ञेय अपनी भाषा को एकदम बेलौस और रंगहीन कर लेते हैं। कथा-भाषा के इस विकास-क्रम में लेखक की उपन्यास-यात्रा प्रतिबिंबित होती दिखती है।’6
विरोधी तत्वों का सुंदर तालमेल अज्ञेय की शब्दावली और भाषा में भी मिलता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ ही अंग्रेजी शब्दों, मध्यवर्ग के घरेलू बोलचाल वाले ठेठ शब्दों और भाषा का प्रयोग विरोधी होकर भी इतने गुंथे हुए और परिपक्व रूप में मिलता है कि उसमें कहीं भी झोल नजर नहीं आता।
अज्ञेय के उपन्यासों की अपेक्षा उनकी कहानियों में तत्समता का दबाव कम है; व्यक्ति के आत्मसंघर्ष और परिवेश से संघर्ष में घरेलू, ठेठ देशी अंदाज अधिक मुखर हुआ है। एक ओर फक्कड़पन तो दूसरी ओर गाम्भीर्य और सटीक सम्प्रेषण अज्ञेय की विशेषता है। इसी विशेषता के और विविधता में रचा-बसा हुआ अज्ञेय का समग्र गद्य-साहित्य है। ‘अज्ञेय के कथा-साहित्य में सर्जनात्मक गद्य जैसा बहुस्तरीय है वैसा ही विधान उनके अकाल्पनिक गद्य-साहित्य में मिलता है। निबंध-रेखचित्र-संस्मरण-यात्रावृत्त-जर्नल-आलोचना-विचार-गद्य- पत्रकारिता का वैविध्य उनके लेखन में फैला है। भारतेंदु जैसा गद्य-प्रसार फिर अज्ञेय के यहाँ देखने को मिलता है। और यह आकस्मिक नहीं कि आधुनिकता का एक दौर वैचारिक स्तर पर भारतेंदु से शुरू होता है तो दूसरा दौर रचनात्मक स्तर पर अज्ञेय से।’7
हिंदी साहित्य में अज्ञेय को सामान्यतः क्रांतिकारी माना जाता है। यदि उनके प्रारंभिक साहित्य को देखें तो यह मान्यता सही भी प्रतीत होती है, इसके बावजूद उनकी क्रांति और क्रांतिकारिता के संदर्भ में धारणा एकदम विपरीत थी। अज्ञेय का मानना था कि एक क्रांतिकारी अपने विरोधी विचारों वाले व्यक्ति को बलात् अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगा रहता है। अपने विरोधी मत के अस्तित्व को, उसकी स्थिति को शत्रुतापूर्ण दृष्टि से देखते हुए क्रांतिकारी जब अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है तब वह कोई नयापन लाने के बजाय समाज की स्वाभाविक प्रगति को बाधित कर देता है। उनका मानना था कि क्रांति के बाद क्रांति और बदलाव-दर-बदलाव गतिशीलता का पर्याय है और इसको एकांगी/एकपक्षीय बनाकर नहीं रोका जा सकता। अज्ञेय द्वारा रचित इस चौपदी के माध्यम से उनके क्रांति के प्रति विचार अधिक स्पष्ट हो जाते हैं—
‘क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा;
उपप्लव निज में नहीं, उद्दिष्ट हो सकता हमारा।
जो नहीं उपयोज्य वह गति-शक्ति का उत्पाद भर है;
स्वर्ग की हो—माँगती भागीरथी भी है किनारा।।’8
क्रांति के प्रति ऐसी अवधारणा के फलस्वरूप ही वे संभवतः सनातन भारतीय संस्कृति और आध्यात्म की ओर अग्रसर हुए। यद्यपि अज्ञेय को नास्तिक बुद्धिवादी के रूप में जाना जाता है, फिर भी उनकी कविताओं— ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, आदि में अपने प्रति स्थापित मान्यताओं के विपरीत एक धार्मिक, आस्थावान सर्जक अज्ञेय का दर्शन होता है। आध्यात्मिकता और आस्तिकता के बावजूद धर्म के विषय में उनके विचार स्पष्ट थे। वे धर्म को व्यापार मानने के बजाय आत्मिक शांति का, कर्म के प्रति समर्पण का और सत्कर्म का माध्यम मानते थे। विद्वत्द्वय स्मृतिशेष विष्णुकांत शास्त्री एवं विद्यानिवास मिश्र (साथ ही अपनी पत्नी श्रीमती कपिला वात्स्यायन) के सानिध्य के फलस्वरूप उनका मन धर्म और आध्यात्म की ओर झुका। अनन्तश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती से उनकी भेंट भी संभवतः इसी के फलस्वरूप हुई। स्वामी जी का सानिध्य पाकर वे अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होते गए। वे प्रायः स्वामी जी से मिलते रहते और जीवनीय ऊर्जा ग्रहण करते। सन् 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना और संचालन भी उन्होने किया। ‘वत्सल निधि’ ने तमाम नए और पुराने साहित्यिकों को, पाठकों को और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं को पुरातन भारतीय ज्ञान-संपदा से, भारतीय साहित्य से परिचित कराने वाले महत्त्वपूर्ण मंच की भूमिका अदा की।
युवाओं जैसी ऊर्जा और कर्मठता के साथ समर्पित भाव से अपनी योजनाओं संलग्न रहने वाले अज्ञेय जी स्वयं को एक साहित्यकार से ज्यादा अपने परिवेश का, समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानते थे और उसी उत्तरदायित्व को पूर्ण करने को महत्त्व देते थे। महान उद्देश्य की पूर्ति के मार्ग में होने वाली क्षति को स्वीकार कर लेना भी उन्हें बखूबी आता था। इसके बावजूद उन पर व्यक्तिवादी होने का, आत्मकेंद्रित होने का आरोप लगाया जाता रहा। सच तो यह है कि अज्ञेय की समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति और समय के प्रति जितनी समर्पित दृष्टि थी, उसके प्रतिमान विरले ही मिलते हैं। उनकी कविताओं में इसके दर्शन होते हैं। देखिए एक बानगी—
‘कब तलक यह आत्मसंचय की कृपणता।
यह घुमड़ना त्रास;
दान कर दो खुले कर से, खुले उर से
होम कर दो स्वयं को समिधा बनाकर!
शून्य होगा, तिमिरमय भी,
तुम यही जानो कि अनुक्षण
मुक्त है आकाश!’9
ऐसा दायित्वबोध अज्ञेय जैसै महान् व्यक्तित्व को सरलता और सहजता के धरातल पर इस प्रकार उतार देता है कि वे केवल कृतिकार ही नहीं रह जाते वरन् कृतिकारों के सर्जक भी बन जाते हैं। अपनी महानता के ऊपर अपने दायित्व को स्थापित कर वे नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में सक्रिय हो जाते। जिस किसी में उन्हें रचनाधर्मिता नजर आती, संभावना नजर आती, उसे प्रोत्साहित करने में, प्रेरित करने में और परिष्कृत करके निखारने में वे यत्नपूर्वक संलग्न हो जाते थे। उदाहरण के तौर पर मदन वात्स्यायन का जिक्र किया जा सकता है। नया ज्ञानोदय के अप्रैल, 2005 अंक में मदन वात्स्यायन की कुछ कविताएँ छपी हैं, उनके देहांत के बाद। इसकी संपादकीय टिप्पणी का उल्लेख अज्ञेय के संदर्भ में करना समीचीन होगा। अज्ञेय, मदन वात्स्यायन को प्रोत्साहित करते हुए सितंबर, 1951 के ‘प्रतीक’ में लिखते हैं कि— बिहार के इस प्रतिभाशाली लेखक का हम स्वागत करते हैं। ‘शिफ्ट फ़ोरमैन’ के रचयिता का, जिन्होने औद्योगिक रसायन शास्त्र की शिक्षा पाई है... और यंत्र के निकट परिचय और यंत्र संचालक मानव का अदम्य विश्वास उनकी कविताओं में बोल रहा है।10
यहाँ राजेंद्र यादव की स्वीकारोक्ति का उल्लेख करना प्रासंगिक ही नहीं, आवश्यक भी होगा, वे लिखते हैं— ‘बेहद जटिल और अनेक किंवदंतियों का केंद्र था अज्ञेय का चक्रव्यूही व्यक्तित्व। बिना उनके इस बहुआयामी व्यक्तित्व को समझे, उनके साहित्य को नहीं समझा जा सकता और बिना उनके साहित्य को समझे उनके व्यक्तित्व में झाँक सकना मुश्किल है। ऐसे लोगों के साथ प्रायः एक दुर्घटना होती है- व्यक्तित्व के हटते ही रह जाता है उनका साहित्य, कभी अतिरिक्त मूल्यांकित तो कभी उपेक्षित। मालूम नहीं आने वाला समय ‘अज्ञेय’ का मूल्यांकन कैसे करेगा, लेकिन यह सही है कि अगर ‘अज्ञेय’ न होते तो हममें से बहुत लोग इस रूप में न होते, मेरी कहानी ‘खेल-खिलौने’ अज्ञेय ने सन् 51 में ‘प्रतीक’ में छापते हुए लंबी रचना लिखने का आग्रह किया था और उसी उत्साह में मैंने दो महीने में ही ‘प्रेत बोलते हैं’ लिख डाला था। उन्होने प्रशंसा करते हुए प्रारंभ और अंत बदल डालने की सलाह दी थी। तब मैंने नहीं बदला; दस वर्षों बाद दुबारा ‘सारा आकाश’ बनाते समय मुझे ‘अज्ञेय’ के सुझाव सही लगे थे।’11 ऐसा उदारमना व्यक्तित्व, ऐसी सहजता आज के साहित्य जगत् में दुर्लभ है।
संभवतः अज्ञेय जी ने गीता के दर्शन की, बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग की चर्चा अपने संदर्भ में नहीं की है, किंतु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही इनकी अमिट छाप दिखाई पड़ती है। अज्ञेय के व्यक्तित्व में, उनकी वैचारिकता में, उनके जीवन दर्शन में और इसके साथ ही उनके कृतित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का जैसा सुंदर तालमेल दिखाई देता है, जैसा संतुलन प्रकट होता है वह कहीं न कहीं गीता के दर्शन और मध्यम मार्ग से प्रेरित है। इसी कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, उनका समग्र जीवन उस कैनवस की तरह से है, जिसमें विरोधी रंगों को ऐसे भरा गया है, जो विरोध को त्यागकर एक-दूसरे के पूरक बने हुए प्रतीत होते हैं। सच है, उन्हें जान पाना-समझ पाना कठिन भी है और सरल भी। आज के साहित्य की दिशा और दशा को देखते हुए, चुनौतियों को जानते-समझते हुए अज्ञेय के कृतित्व को ही नहीं, उनके व्यक्तित्व को भी समझना होगा, उनसे प्रेरणा लेनी होगी, सीख लेनी होगी।
संदर्भ :
  1. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5
  2. भूमिका, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 9
  3. स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 1996, पृ. 104
  4. छायावादोत्तर काल, डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, दिल्ली, 2004, पृ. 631
  5. साँप (कविता), अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 46
  6. हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहाबाद, 1996, पृ. 109
  7. वही, पृ. 260
  8. शक्ति का उत्पात (कविता), पूर्वा, 1965, पृ. 233
  9. आवरण पृष्ठ, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996
  10. संपादकीय टिप्पणी, मदन वात्स्यायन की कविताएँ, नया ज्ञानोदय, अप्रैल, 2005, पृ. 09
  11. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5

     (नूतन वाग्धारा, बाँदा के अज्ञेय विशेषांक, 2011 में प्रकाशित)



Tuesday 25 October 2011

Volga Se Ganga (Rahul Sankrityayan) / वोल्गा से गंगा (राहुल सांकृत्यायन)


महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति...     
                   वोल्गा से गंगा : शाश्वत प्रवाह का शालीन दर्शन
वोल्गा से गंगा पुस्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई बीस कहानियों का संग्रह है। इस कहानी-संग्रह की बीस कहानियाँ आठ हजार वर्षों तथा दस हजार किलोमीटर की परिधि में बँधी हुई हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह कहानियाँ भारोपीय मानवों की सभ्यता के विकास की पूरी कड़ी को सामने रखने में सक्षम हैं। 6000 ई.पू. से 1942 ई. तक के कालखंड में मानव समाज के ऐतिहासिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अध्ययन को राहुल सांकृत्यायन ने इस कहानी-संग्रह में बाँधने का प्रयास किया है। वे अपने कहानी संग्रह के विषय में खुद ही लिखते हैं कि-
  लेखक की एक-एक कहानी के पीछे उस युग के संबंध की वह भारी सामग्री है, जो दुनिया की कितनी ही भाषाओं, तुलनात्मक भाषाविज्ञान, मिट्टी, पत्थर, ताँबे, पीतल, लोहे पर सांकेतिक वा लिखित साहित्य अथवा अलिखित गीतों, कहानियों, रीति-रिवाजों, टोटके-टोनों में पाई जाती है। इस तरह यह किताब अपनी भूमिका में ही अपनी ऐतिहासिक महत्ता और विशेषता को प्रकट कर देती है।
   राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित वोल्गा से गंगा की पहली चार कहानियाँ 6000 ई. पू. से लेकर 2500 ई. पू. तक के समाज का चित्रण करती हैं। निशा, दिवा, अमृताश्व और पूरुहुत, यह चारों कहानियाँ उस काल की हैं, जब मनुष्य अपनी आदम अवस्था में था, कबीलों के रुप में रहता था और शिकार करके अपना पेट भरता था। उस युग के समाज का और हालातों का चित्रण करने में राहुल जी ने भले ही कल्पना का सहारा लिया हो, किंतु इन कहानियों में उस समय को देखा जा सकता है।
   संग्रह की अगली चार कहानियाँ— पुरुधान, अंगिरा, सुदास और प्रवाहण हैं। इन कहानियों में 2000 ई. पू. से 700 ई. पू. तक के सामाजिक उतार-चढ़ावों और मानव सभ्यता के विकास को प्रकट करती हैं। इन कहानियों में वेद, पुराण, महाभारत, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों आदि को आधार बनाया गया है।
   490 ई. पू. को प्रकट करती कहानी बंधुल मल्ल में बौद्धकालीन जीवन प्रकट हुआ है। इसी कहानी की प्रेरणा से राहुल जी ने ‘सिंह सेनापति’ उपन्यास लिखा था।
   335 ई. पू. के काल को प्रकट करती कहानी ‘नागदत्त’ में आचार्य चाणक्य के समय की, यवन यात्रियों के भारत आगमन की यादें झलक उठती हैं।
   इसी तरह 50 ई.पू के समय को प्रकट करती कहानी ‘प्रभा’ में अश्वघोष के बुद्धचरित और सौंदरानंद को महसूस किया जा सकता है।
  सुपर्ण यौधेय, भारत में गुप्तकाल अर्थात् 420 ई. पू. को, रघुवंश को, अभिज्ञान शाकुंतलम् और पाणिनी के समय को प्रकट करती कहानी है। इसी तरह दुर्मुख कहानी है, जिसमें 630 ई. का समय प्रकट होता है, हर्षचरित, कादम्बरी, ह्वेनसांग और ईत्सिंग के साथ हमें भी ले जाकर जोड देती है।
   चौदहवीं कहानी, जिसका शीर्षक चक्रपाणि है, 1200 ई. के नैषधचरित का तथा उस युग का खाका हमारे सामने खींचकर रख देती है।
   पंद्रहवीं कहानी बाबा नूरदीन से लेकर अंतिम कहानी सुमेर तक के बीच में लगभग 650 वर्षों का अंतराल है। मध्य युग से वर्तमान युग तक की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपने माध्यम से व्यक्त करती यह छह कहानियाँ—  बाबा नूरदीन, सुरैया, रेखा भगत, मंगल सिंह, सफ़दर और सुमेर अतीत से उतारकर हमें वर्तमान तक इस तरह ला देती हैं कि हमें एक सफर के पूरे हो जाने का अहसास होने लगता है। इन कहानियों में भी कथा-रस के साथ ही ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस हद तक शामिल है कि कथा और इतिहास में अंतर कर पाना असंभव हो जाता है।
   राहुल सांकृत्यायन का यह कथा-संग्रह भले ही हिंदी के कथा-साहित्य की धरोहर हो, किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं में, इतिहास-भूगोल के अध्ययन में भी यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है। बहुत सरलता के साथ कथा-रस में डुबकियाँ लगाते हुए मानव-सभ्यता के इतिहास को जान लेने के लिए इस पुस्तक से अच्छा माध्यम दूसरा कोई नहीं हो सकता। यहाँ पर वोल्गा से गंगा के बारे में संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध करा देने का उद्देश्य भी यही होगा कि जिज्ञासु पाठकगण इस पुस्तक के माध्यम से अपने अतीत को आसानी से जान सकें।
                                         डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 9 October 2011

लंकाधिपति रावण का दहन


       क्या सचमुच रावण जल गया?
            हर साल दशहरा आता है। दशहरा विजयादशमी भी है, राम की रावण पर विजय का पर्व भी है। राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं और रावण बुराइयों का प्रतीक है। असली रावण को तो असली राम ने केवल एक ही बार मारा था, शायद पहली और आखिरी दफ़े, लेकिन उसके बाद समाज के ठेकेदार स्वयं को विशुद्ध रूप से राम समझते हुए रावण का पुतला जलाते चले आए हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि असली रावण तो जला ही नहीं है, साहित्य की भाषा में इसे आत्मसंतुष्टि कह दिया जाता है और लोकरीतियों की भाषा में रस्म अदायगी, क्योंकि असली रावण तो दिल में घुसा बैठा है, अंतरात्मा में भी समा गया है और कुछ महान लोगों की तो नस-नस में रावण समाया हुआ है।
समाज में रावण को कोई नहीं पूजता क्योंकि रावण तो दुराचारी था, घमण्डी था, अत्याचारी था। इसीलिये मर्यादापुरुषोत्तम राम ने मर्यादा की स्थापना के लिये रावण का वध किया था। लेकिन आज क्या हम अपने अंदर छिपे रावण का वध कर पाते हैं, संभवतः नहीं, क्योंकि आज हमारे अंतस् में मर्यादा स्थापित करने की शक्ति, कुरीतियों और बुराइयों से लड़ने की सामर्थ्य और अन्याय का विरोध करने की शक्ति नहीं रह गई है। क्या यह रावण के लक्षण नहीं हैं, जिन्हें हम नहीं छोड़ सके लेकिन रावण का पुतला जरूर जला दिया।
रावण तो तब भी लाख गुना अच्छा हो सकता है। कम से कम उसने अपने देश के लिये स्वयं को आहूत कर दिया। लेकिन आज तो पीठ पीछे छुरा घोंपने और छल-कपट की नीति चारों ओर चल रही है। दूसरी ओर राम हैं और धर्म है। रामायण काल में केवल एक ही धर्म था, उस धर्म की आड़ में उस समय भी समाज के अनेकों स्वार्थों की पूर्ति होती थी। चाहे इस तथ्य को भरत के राज्याभिषेक के उदाहरण से तौल लें या फिर शम्भूक के वध से, वैसे शूर्पणखा के नाक-कान काट लेना भी इस तथ्य का एक ज्वलंत उदाहरण हो सकता है।
आज कई धर्म और सम्प्रदाय हैं। सभी के अनुयायी अपने धर्म की आड़ में न जाने कितने स्वार्थ पूरे करते हैं। चाहे वह रामजन्मभूमि-बाबरी मसजिद का विवाद हो या ईसाई धर्मान्तरण की बात हो, पूरा देश जातिवाद और साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है। लोग देश-काल-समाज की मर्यादा को भूलकर अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में लगे हैं। देश का नेतृत्व करने वाले नेतागण इस आग में राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे हैं। यह वास्तविकता है, यह यथार्थ है, जिसे सबकी अंतरात्मा स्वीकार करती है, फिर भी अगले व्यक्ति के समक्ष स्वयं को हम मर्यादापुरुषोत्तम राम की तरह प्रदर्शित करते हैं। तब शायद इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता है कि राम के आवरण में रावण आज भी जीवित है। वह जला नहीं है, वह मरा भी नहीं है। वह तो आज भी अपना काम करता ही जा रहा है; गरीबों-मजलूमों को सताकर, दूसरे की वस्तु पर अपना हक़ जमाकर, सरकारी योजनाओं को पचाकर, राष्ट्रीय और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाकर, विभिन्न राष्ट्रीय करों की चोरी करके और इसी तरह के अनेक किस्म के कुकृत्य करते हुए। बदली हैं केवल समय के अनुरूप परिस्थितियाँ। तब का रावण कायर नहीं था, डरपोक भी नहीं था, आज का रावण शक्ल छुपाकर सामने खड़ा है। समाज की मर्यादा और राम के राज्य को चुनौती देते हुए अट्टहास कर रहा है। तमाम विभीषण, तमाम अबला सीताएँ और तमाम रामभक्त प्रतीक्षारत हैं कि मर्यादापुरुषोत्तम राम आवें और रावण का वध करके मर्यादा को पुनर्स्थापित करें।
   (आचार्य रामचंद्र शुक्ल की कहानी- ग्यारह वर्ष का समय, सन् 1903 ई. में प्रकाशित हुई थी। हिंदी की प्रारंभिक कहानियों में इसकी गणना होती है। इस कहानी को जब विचारों में बाँधता हूँ तो लगता है कि समय की गति कितने आयामों से चीजों को बदलती चली जाती है। आज (09 अक्टूबर, 2011) से ठीक ग्यारह वर्ष पूर्व दैनिक श्रीइंडिया, बाँदा में 09 अक्टूबर, 2000 को प्रकाशित अपने इस आलेख में मुझे कहीं बचकानापन नज़र आता है, कहीं समाज के प्रति जिम्मेदार एक नागरिक की चिंता नज़र आती है तो कहीं अपने विचारों को शब्दों में समेटने का जज्बा नज़र आता है। कुछ भी हो, मैं रोमांचित हो उठता हूँ, जब मुझे अपने लेखन के शौक के वे दिन याद आ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उम्रदराज हो गया हूँ और पुरानी बातों को रस्किन बॉण्ड की कहानी द काइट मेकर के पात्र महमूद की तरह याद करते हुए अपने वक्त को गुजारना चाहता हूँ। मुझको इससे कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है)
                                         डॉ. राहुल मिश्र     

Sunday 2 October 2011

बाँदा : परंपरा और नवीनता का एक शहर


   बाँदा : परंपरा और नवीनता का एक शहर              
बुंदेला शासकों से पहले उस शहर की हैसियत एक गुमनाम गाँव से ज्यादा नहीं थी। आज वह शहर बुंदेलखंड के एक मंडल का मुख्यालय है। मेरे लिए यह रोमांचकारी घटना से कम नहीं कि उस शहर में मेरा बचपन गुजरा है। यह कथा-यात्रा उस शहर की है, जिसके कलेजे को चीरती हुई पूरब से पश्चिम रेलवे लाइन गुजरती है। पूरब से घुसें तो किसी पुराने तालाब और हवेली के भग्नावशेष दिखाई देते हैं और पश्चिम से घुसने पर भूरागढ़ का किला और फिर केन नदी। बंबेसुर (वामदेवेश्वर) पहाड़ तो बहुत दूर से ही दिखने लगता है। हाँ ! यह वही बंबेसुर पहाड़, भूरागढ़ और केन नदी है, जो गोविंद मिश्र की कथाभूमि और केदारबाबू की कविताओं के सजीव पात्र हैं। आपने सही पहचाना, यह बांदा शहर ही है, जिसे महर्षि वामदेव की कर्मभूमि और महाकवि पद्माकर की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है।
कोल और भील आदिवासियों की आबादी के कारण इसे खुटला बाँदा कहा गया, आज भी एक मुहल्ला खुटला नाम से कायम है। यह महसूस करना भी कम रोमांचकारी नहीं है कि बायाँ का  ‘बा और दायाँ का दा मिलकर बाँदा बना, जहाँ वाम पक्ष भी उतना ही लड़ाका, जितना दक्षिण पक्ष। रहे होंगे महुबे वाले बड़े लड़इया’, अब तो बाँदा वाले बाजी मारे हुए हैं। वैसे शहर उतना बुरा नहीं, स्टेशन की चकाचक, नई-नवेली बिल्डिंग से बाहर आते ही हनुमान मंदिर और चाय-पान की दूकानों पर जुटी भीड़ कई गलत धारणाओं को सिरे से नकार देती है। हनुमान मंदिर में इधर कुछ दिनों से कीर्तन मंडली ने भी कब्जा जमा रखा है। कीर्तन मंडली के जरिए कबीरी, उमाह, फाग, ढिमरयाई और इसी तरह के लोकगीत गायकों को एक मंच मिल जाता है। यह उपेक्षित लोकगायक रात भर के लिए भीड़ को अपने मोहपाश में बाँध लेते हैं। वैसे भी स्टेशन रोड पूरे शहर के लिए टाइमपास करने और घूमने के लिए इकलौता अड्डा है। दिन में पं. जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के परिसर, कचेहरी और उसके आस-पास वाला भीड़ का दबाव शाम ढलते ही स्टेशन रोड की ओर खिसक आता है।
कचेहरी में जुटने वाली भीड़ को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां के लोगों को मुकदमे और न्यायपालिका पर कितना विश्वास है। संचार क्रांति से पहले कंधे में बंदूक टाँगकर निकलना यहाँ के लोगों का स्टेटस सिंबल हुआ करता था, भले ही जूते फटे हों, लेकिन अब बंदूक की जगह मोबाइल फोन ने ले रखी है। साथ में बंदूक भी हो तो कहने ही क्या ? वैसे कचेहरी की भीड़ बढ़ाने वालों में कुछ खबरची और छुटभैये टाइप के नेता भी होते हैं जो टाइमपास करने के लिए मूँगफली चबाते और पान की पीक से सड़कों पर अजीबोगरीब पेंटिंग बनाते टहलते रहते हैं।
कचेहरी चौराहे की अशोक लाट देश की आजादी में योगदान देने वाले बाँदा के वीरों को याद करती और आजाद देश की आजादी का बखान करती है। अशोक लाट की पार्कनुमा जमीन अब दूसरी भूमिका निभा रही है। शासन-प्रशासन से माँगें मनवाने वालों, धरना-प्रदर्शन करने वालों का, दीन-दुखियारों का यह इकलौता सहारा है और जनवरी से लेकर दिसंबर तक हर समय आबाद रहता है। जब लंबे समय तक कोई बड़ा नेता शहर में नहीं आता या कोई बड़ी घटना नहीं होती या फिर कोई राजनीतिक भूचाल नहीं आता तो शहर उदासियाँ ओढ़ लेता है। तब समाजसेवक, जनसेवक और भइये दिल्ली और लखनऊ की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगते हैं, जैसे बारिश की आस में किसान आसमान की ओर ताकता रहता है। बोतलबंद मिनरल वाटर यूज़ करने वाले केन नदी को बचाने की बात करने लगते हैं, महंगी कारों में घूमने वाले सर्वहारा समाज के दुखों-कष्टों की वेदना में व्यथित हो उठते हैं और चेहरे पर मायूसी का-मासूमियत का लेबल चिपकाकर भरोसा जीतने कोशिशें होने लगती हैं। शहर की राजनीतिक नब्ज़ इसी तरह असामान्य-असहज होकर धड़कती ही रहती है, कभी तेज- कभी धीमी।
इन सबसे अलग शहर का सबसे अहम वर्ग है, जो मॉडर्न स्टाइल के  कपड़े पहनता है, बम्बइया कट वाले बाल कतरवाता है, अनोखे किस्म से। फर्राटेदार बाइक से पढ़ने भी जाता है। इधर कुछ एक वर्षों में ही शहर में कोचिंग इंस्टीट्यूशनों की बाढ़-सी आ गई है, लिहाजा शहर की शिक्षा संस्थाएँ सिमटकर महज परीक्षा संस्थान बनकर रह गईं हैं। परीक्षा दो-डिग्री लो और बेरोजगारी का बिल्ला टाँगकर घूमो। सरकारी नौकरी के लिए रोजगार दफ़्तर के चक्कर लगाते, फॉर्म जमा करने के लिए साइकिलें दौड़ाते युवाओं की संख्या भी शहर में कम नहीं। कोई बड़ी फैक्ट्री-वैक्ट्री न होने के कारण बेकार टहलना और भी आसान।
इनके बावजूद चौक बाज़ार बाँदा, चाँदनी चौक से कमतर नहीं। देर रात तक गुलज़ार रहने वाला चौक बाज़ार शहर की समृद्धि की निशानी है। यह अलग बात है कि ज्यादातर खरीददार इंदिरा नगर और सिविल लाइन्स जैसे पॉश इलाकों के बाशिंदे होते हैं। बाकी तो खाली जेब में हाथ डाले हुए बाज़ार की रौनक देखते हुए महेश्वरी देवी के दर्शन करके घर को लौट जाते हैं। महेश्वरी देवी अपने गगनस्पर्शी मीनारनुमा मंदिर में बैठकर ऊँचे ख्वाब देखने को असीसती रहती हैं। नवरात्र में देवी गीतों (उमाह) और पारंपरिक दीवारी नृत्य से महेश्वरी देवी मंदिर ही नहीं मानो सारा शहर ही पुरनिया हो जाता है।
चौक बाज़ार से आगे बढ़ें तो शंकर गुरु चौराहा आता है। शंकर गुरु हलवाई के वंशज तो शहर छोड़कर चले गए, लेकिन बाँदा के मशहूर सोहन हलवा के कारण याद कायम है। ऐसे ही बोड़ाराम हलवाई के लड़कों-नातियों ने खुद को असली वारिस सिद्ध करने का शांतियुद्ध छेड़ रखा है—बोड़ेराम की असली दूकान। अब अगर सभी असली हैं तो नकली कौन ? यह असली-नकली का भेद शहर को आज नहीं पता चल सका। अगर आपको पता चले तो बताइएगा जरूर।
शंकर गुरु चौराहे से मनोहरीगंज पहुँचा जा सकता है। कहा जाता है कि वर्तमान कालवनगंज मुहल्ला जिस भू-भाग पर बसा है, वहाँ कभी बड़ा-सा तालाब हुआ करता था। 18वीं शताब्दी के मध्य में जब छत्रसाल के पौत्र राजा गुमान सिंह ने बाँदा को अपना मुख्यालय बनाया तब उन्होने इस तालाब की मरम्मत कराई, लिहाजा इसे राजा का तालाब कहा जाने लगा। अंग्रेज हुक्मरान मिस्टर रिचर्डसन के उत्तराधिकारी मिस्टर मेनवेरिंग ने इस तालाब की पुराई करवाकर आबादी बसाई। कोतवाली की तरफ उन्ही के नाम पर एक मोहल्ला मनोहरी गंज के नाम से बन गया।
मनोहरी गंज के आगे अलीगंज है, जहाँ सेठ जी के अहाते में आज भी रामा जी के वंशज मराठी ब्राह्मण रहते हैं और यहाँ की मिट्टी में आज भी मराठाकालीन बाँदा की गौरवशाली परंपरा को महसूस किया जा सकता है। यहीं पर हिंदू-मुस्लिम एकता और सौहार्द का प्रतीक रामा जी का इमामबाड़ा है। लाख बदलाव आ जाने के बाद भी, राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान भी बाँदा ने रामा जी द्वारा स्थापित परंपरा को नहीं छोड़ा, इसीलिए चाहे ईद हो या दशहरा, सारे बाँदावासी मिलजुल कर मनाते हैं।
लखनऊ और दिल्ली से लाए गए बीजों से शहर में ऐसी मजलिसें और परिषदें पैदा हो गईं हैं जो जबरिया भय का भूत दिखाकर शहर को आतंक और खौफ का चादर ओढ़ाना चाहती हैं। इसके बावजूद कव्वाली और मुशायरे के दौर चलते ही रहते हैं और छोटी बाजार से निकलने वाली प्रभात फेरी तो मानो यहाँ के बाशिंदों के जीवन का ही अंग है। दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए दौड़ते-भागते लोगों को नबाब टैंक में लगने वाले कजली मेले और केन किनारे भूरागढ़ में लगने वाले नटबली के मेले का बेसब्री से इंतजार रहता है। नटबली मेले के बहाने भूरागढ़ की राजकुमारी और बल्ली नट की प्रेम कहानी के दुखद अंत को शहर याद करता है। यह अलग बात है कि शहर में अब चंद प्रेम कहानियाँ विफल भी हो जाती हैं या फिर बड़े विद्रूप तरीके से समाप्त हो जाती हैं।
दीवान कीरत सिंह द्वारा रनगढ़ की तर्ज पर बनवाए गए भूरागढ़ को बाँदा में बुंदेला शासकों के शासन का प्रतीक कहा जा सकता है। भूरागढ़ अपने अस्तित्व को बचाए रखने में भले ही विफल हो गया हो, फिर भी इसके जर्रे-जर्रे में गर्व की अनुभूति की जा सकती है। सन् सत्तावन की गदर में फाँसी पर लटकाए गए हजारों रणबाँकुरों की आवाजें आज भी भूरागढ़ में गूँजती हैं। जब तक बाँदा में अंग्रेज हुक्मरान रहे, भूरागढ़ के सामने से गुजरते हुए सम्मान के तौर पर हैट उतार लेते थे। अब देशी हुक्मरानों को इसकी जरूरत महसूस नहीं होती। तेजी से बढ़ती हुई आबादी ने शहर के दर्जनों तालाबों और सार्वजनिक स्थलों को लील लिया है।
भू-अभिलेखों में दर्ज है कि बाँदा की आबादी उत्तर की ओर भवानीपुरवा और दक्षिण की ओर लड़ाकापुरवा में थी। भवानी और लड़ाका मउहर राजपूत वंश के शासक ब्रजराज (ब्रजलाल) के भाई थे और यहाँ उनका आधिपत्य था। नए-नए मुहल्लों के पीछे यह नाम तो छिप ही गए, आबादी के विस्तार ने तमाम खेतों को-पुरवों को विहार, कॉलोनी और नगर में बदल दिया। आस-पास के गाँवों के लोग शहरी हो जाने के फेर में बाँदा में बस गए।
शहर में बन गए बड़े-बड़े और महँगे होटल, लॉज व मैरिजहाउस सुनियोजित तरीके से शहर को आधुनिक बनाने के महान् उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। रंग-बिरंगी रौशनियों के बीच आर्केष्ट्रा की धुनों पर थिरकते युवा और चंद बुजुर्ग कदम शहर को आधुनिकता की ओर ले जाने के लिए सक्रिय दिखाई देते हैं। वेलेन्टाइन्स डे और फ्रेन्डशिप डे जैसे इम्पोर्टेड डेज़ से भी शहर अनजान नहीं है। इसीलिए कुछ खास दिनों में बुके और गिफ्ट आइटम की दुकानें शहर में आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ जाती हैं। अजीब-सा मादक और खुश्नुमा माहौल बन जाता है, जिंदगी की तमाम समस्याओं से जूझते लोगों से दूर कहीं। इधर दो-एक वर्षों के भीतर शहर में खुल गए बीयर बार ने आधुनिकता के नए सोपान खोले हैं।डांस बार तो नहीं हैं, लेकिन शहर को इनकी जरूरत महसूस होने लगी है।
दूसरी ओर, कड़कड़ाती ठंड में रजाई ओढ़कर रामलीला देखनेवालों, छोटी बाजार के श्रीकृष्णरास मंडल में होने वाली रासलीला देखने के लिए घंटों इंतजार करने वालों और आल्हा प्रतियोगिता में रात भर तन्मयता के साथ आल्हा सुनने वालों, कव्वाली–मुशायरों में वाह-वाह करने वालों की तादाद भले ही कम हो गई हो, लेकिन परंपराएँ जिंदा हैं।
शहर की जीवन-धारा कही जा सकने वाली केन नदी भी तमाम रिवाजों से, तीज-त्योहारों-पर्वों और उत्सवों से गाहे-ब-गाहे जुड़ जाया करती है-- बिना जाति, धर्म का भेद किए हुए। बच्चों की तरह घुटुरुअन चलती केन, अल्हड़ जवानी की इठलाती केन और बूढ़ी-शांत-वीतरागी केन, गोविंद मिश्र की कहानियों और केदारबाबू की कविताओं की प्यास बुझाती केन शायद अब शहर के लिए नदी मात्र रह गई है, उसका अस्तित्व सिमटने लगा है। केदारबाबू अगर जिंदा होते तो उन्हें कितना दुख होता, शहर नहीं जानता।


अस्तित्व तो भूरागढ़ किले, निम्नी पार वाले महल, बारादरी और इनकी जैसी तमाम इमारतों का भी सिमट गया है। बहुत से लोग अपनी संततियों को इन खंडहरोंके बारे में बता पाने, बुंदेलखंड के गर्वपूर्ण अतीत से परिचित करा पाने में असमर्थ हो जाते हैं। बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत की भग्नावशेष निशानियों के साथ ही खपरैल-मिट्टी वाले कच्चे मकानों का अस्तित्व भी सिमट रहा है, जहाँ प्रेम, स्नेह, सौहार्द और भाईचारा होता था, संयुक्त परिवार होते थे, जहाँ पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को तमाम ज्ञान की बातें अनायास ही मिल जाती थीं, दादी-नानी की रोचक कहानियाँ मिलती थीं। अथाई लगती थी, चौपालें होती थीं, लोगों के दुख और सुख सबके हो जाते थे, कुल मिलाकर जीवन सरल, सहज, सुखद और सुंदर हो जाता था।
पुरातनता बनाम नवीनता के संघर्ष को; सामाजिक और मानवीय मूल्यों, संस्कारों व जीवन-स्तर में आ रहे बदलाव को यहीं से जाना और समझा जा सकता है। बाँदा जैसा हर शहर संक्रांति काल के अधकचरे दौर में फँसा रहता है, हमेशा, हर सदी में। उसके लिए अपने अतीत को छोड़ पाना जितना कठिन होता है, उतना ही वर्तमान की गति के साथ दौड़ पाना भी कठिन होता है।
यह कहानी बाँदा जैसे हर शहर की हो सकती है। बुंदेलखंड के तमाम शहरों और कस्बों की हो सकती है,जिन्हें मुम्बई और दिल्ली की हवा तो मिलती है, लेकिन वैसा पोषण नही मिलता, लिहाजा कुपोषण के शिकार होकर वे बड़े विकृत तरीके से विकसित होते हैं।
{नगर पालिका परिषद्- हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) की वार्षिक पत्रिका बुंदेली दरसन 2011, अंक 04, में प्रकाशित}                                                                               
                                         डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 25 September 2011

बुंदेलखंड के सोमनाथ

बुंदेलखंड के सोमनाथ :  खंडहर में बसा इतिहास

 पुराने समय में शिवभक्त राजा, शासक या धर्मभीरु लोग अपने नाम के साथ नाथ या ईश्वर जोडकर शिवमंदिर का निर्माण कराया करते थे, किंतु सोमनाथ का नाम प्रायः गुजरात के प्रभासपत्तन नामक स्थान पर चालुक्य शासकों द्वारा बनवाए गए सोमनाथ मंदिर के लिए रूढ हो गया था। बुंदेलखंड क्षेत्र में पाठा की दुर्गम विंध्य श्रृंखलाओं के बीच सोमनाथ मंदिर, नाम सुनकर जितना आश्चर्य होता है उससे कहीं अधिक आश्चर्य मंदिर को देखकर होता है क्योंकि मंदिर का स्थापत्य मन को मोह लेने वाला है।
  यह क्षेत्र पुरातनकाल से ही धर्म, संस्कृति और मानव सभ्यता का बड़ा केंद्र रहा है। यहाँ कई राजवंश भी कायम रहे हैं जिनके प्रतीक गौरवपूर्ण अतीत के साक्ष्य के रूप में इस क्षेत्र में कायम हैं। पुरातन महत्त्व का ऐसा ही यह गुमनाम-सा प्रतीक चित्रकूट जनपद में कर्वी से मानिकपुर मार्ग पर स्थित चर गांव में है।
यह मंदिर वृत्ताकार पहाडी पर बना है। मंदिर तक पहुँचने के लिए बनी सीढियों के पास लाल बलुए पत्थर से बनी मुगदरधारी योद्धा, नृत्यगणेश मूर्तियों के साथ ही चित्रात्मक प्रस्तरों के भग्न खंड रखे हुए हैं। संभवतः इन प्रस्तरों को गांव के लोगों ने इस प्रकार रखा होगा। मंदिर में पडी हुई भावात्मक प्रस्तर कलाकृतियाँ, भग्न मूर्तियाँ इस बात को साबित करतीं हैं कि मंदिर बहुत पुराना होगा और इसका स्थापत्य भी अपने आप में बेजोड रहा होगा।
खंडहरनुमा मंदिर को देखने से पता चलता है कि इसमें अष्टकोणीय मण्डप रहा होगा, जिसकी छत गिर चुकी है। मण्डप के गुंबदों में अप्सराओं की सुंदर मूर्तियां हैं। मण्डप के पीछे गर्भगृह जैसा है, जहां शिवलिंग स्थापित है। यह गर्भगृह सुरक्षित लगता है, किंतु इसमें हुए नवनिर्माण को देखकर लगता है कि इसमें कुछ बदलाव हुआ है, यह किस कारण से हुआ, इसको कुछ कहा नहीं जा सकता। मण्डप के आगे की ओर बनी चारदीवारी से अनुमान लगता है कि यहाँ एक बड़ा मंदिर रहा होगा जो पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। गर्भगृह और मण्डप का पिछला हिस्सा भी एकदम ध्वस्त हो चुका है।
इस खंडहरनुमा गर्भगृह और मण्डप की प्रदक्षिणा के लिए एक रास्ता जैसा बनाया गया है, जिसमें रखे हुए विभिन्न आकार-प्रकारों के शिवलिंगों को देखकर ऐसा अनुमान होता है कि इसमें छोटे-छोटे कई शिव मंदिर रहे होंगे। इसी तरह मंदिर के प्रदक्षिणा-पथ के दोनों ओर टूटी-फूटी मूर्तियों, मण्डप के भग्नावशेषों और गुंबदों-प्रस्तरों को व्यवस्थित करके रखा गया है। इनमें से कई मूर्तियाँ दैनंदिन जीवन को व्याख्यायित करती हैं। इन मूर्तियों में से कुछ युद्ध की भी हैं, कुछ मातृ रूप प्रकट करती मूर्तियां हैं, कुछ मूर्तियों में दैवासुर संग्राम दर्शाया गया है और ऐसी ही एक विशालकाय प्रतिमा शेषशायी विष्णु की भी है। गुंबदों पर बनी विभिन्न मूर्तियों के साथ ही अन्य तमाम प्रस्तर मूर्तियों की अपनी एक विशेषता है कि उनके सिर के ऊपर गूमड़ जैसा बना हुआ है, जैसे कोई छोटा-सा शिवलिंग बना हो। यह गूमड़ या शिवलिंग भारशिवों के प्रतीक माने जाते हैं।
  इस क्षेत्र में नागवंशी भारशिवों का शासन था, जिनकी राजधानी नचना-कुठार (पन्ना, म.प्र.) में थी और उपराजधानी भारगढ़ (वर्तमान बरगढ़) थी। सोमनाथ मंदिर के निकट स्थित एक छोटे से गाँव बरकोठ या भारकोट का इतिहास भी ऐसे ही इनसे जुड़ा होगा। भारशिव शासक शैव मत के कट्टर अनुयायी थे और सिर पर शिवलिंग धारण किये हुए भारशिव प्रतिमाएं इनका प्रतीक होती थीं। गुप्त शासकों के शक्तिशाली होने पर नागवंशी शासकों ने उनसे रोटी-बेटी का संबंध स्थापित किया और इस तरह इस क्षेत्र के नागवंशी शासक गुप्त राजाओं के माण्डलिक बन गए तथा गुप्त शासकों का इस क्षेत्र में परोक्ष शासन स्थापित हुआ। सोमनाथ मंदिर में मिलने वाली भारशिव प्रतिमाएं और इनके साथ ही शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह मंदिर गुप्तकाल की स्थापत्य कला की प्रेरणा लेकर, गुप्तकाल के स्थापत्य की तर्ज पर दूसरी से चौथी शताब्दी के मध्य भारशिवों द्वारा बनवाया गया होगा।
भारशिव (नागवंशी) शासकों की यह भी विशिष्टता रही है कि वे आदिवासी जीवन जीते हुए तथा शैव साधना करते हुए विधर्मी और परराष्ट्राक्रांताओं को पछाड़ते रहे हैं। यदि इतिहास को खंगाला जाय तो यह समझ में आता है कि गुप्त शासकों की सत्ता स्थापित करने और उनके शासन को समृद्ध, सफल बनाने में नागवंश के शासकों का अमूल्य योगदान रहा है। जब बुंदेलखंड में गुप्त शासकों की पकड़ धीमी पड़ने लगी तब बुंदेलखंड में गुप्त शासकों के मांडलिक वाकाटक शासकों का आधिपत्य कायम हुआ। वाकाटक शासकों के प्रतीक तो प्राप्त होते हैं, किंतु नागवंश के शासकों के प्रतीक बहुत कम ही मिलते हैं। इतिहास में दर्ज है कि नागवंशी शासक युद्ध आदि में व्यस्त रहे और इन्होने अपने शासन के प्रतीक स्थापित नहीं किये। इस कारण से भी यह मंदिर अनूठा, अद्वितीय, अतुलनीय और दुर्लभ सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में आता है।
चर ग्राम के लोग बताते हैं कि चालीस वर्ष पहले तक यह मंदिर काफी हद तक ठीक स्थिति में था। बीहड़ में होने के कारण यह आक्रांताओं की नज़र में नहीं आया और शायद इसी कारण यह सुरक्षित भी रह सका। किंतु बाद में इस मंदिर की दुर्लभ मूर्तियां चोरी होती गईं। ग्रामवासियों से यह भी पता चला कि मंदिर में एक नागेश्वर शिवलिंग भी था जिसमें एक शिलालेख था। उस शिलालेख से मंदिर के इतिहास पर कुछ रोशनी पड़ सकती थी, किंतु उसकी चोरी हो चुकी है। लेकिन यह मंदिर नागशासकों का होगा इस तथ्य को नागेश्वर शिवलिंग के माध्यम से पुष्ट किया जा सकता है।
धार्मिक, पुरातात्त्विक विशिष्टता के साथ ही इस क्षेत्र का प्राकृतिक सौंदर्य भी गजब का है। चारों ओर हरियाली से भरी हुई विंध्य पर्वत श्रृंखला, मंदिर के पीछे की ओर बहती वाल्मीकि नदी और आगे चलकर वारुणी-वाल्मीकि नदियों का संगम ऐसे सुरम्य, मनोहारी प्राकृतिक दृश्य का सृजन करता है कि मन मुदित हो उठता है। बेशक, सोमनाथ मंदिर का भ्रमण धर्म, इतिहास, संस्कृति और प्रकृति के समवेत साहचर्य का अनूठा, अद्भुत आनंद देने वाला है।
यह गुप्तकालीन शिव मंदिर अपने अस्तित्व की आखिरी साँसें गिन रहा है। मंदिर के पूर्वोत्तर में बरकोठ गाँव, पूर्व की ओर लालापुर की पहाडी, देउरा-नेउरा की पहाडी और लहरी पुरवा है, यह सभी ऐतिहासिक महत्त्व के स्थल हैं और इन स्थलों पर ध्वंसावशेष आदि भी प्राप्त होते हैं, जो प्रायः नष्ट हो चुके हैं।


                      (दैनिक जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ, 30 मई, 2011) 
                                                          
डॉ. राहुल मिश्र