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Sunday 25 September 2016

लदाख की थङ्का चित्रकला

लदाख की थङ्का चित्रकला

हिमालय के ऊँचे-ऊँचे पहाड़, आसमान को छूते हुए। पहाड़ों की चोटियों पर चमकती सफेद बर्फ। साफ, धुले हुए जैसे दिखने वाले नीले गगन में तैरते रूई के गोलों जैसे बादलों के झुंड। सूरज की रोशनी में लालिमा से भरी बादलों की टुकड़ियाँ। प्रकृति के इस मनमोहक नजारे को लदाख की धरती पर देखा जा सकता है। लदाख में प्रचलित चित्रकलाओं में प्रकृति के ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं। लदाख धर्म और साधना की भूमि रही है, इसलिए यहाँ की अधिकांश चित्रकला भी धार्मिक आस्था से जुड़ी हुई है। धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाले चित्र इस क्षेत्र में बहुत पुराने समय से प्रचलित रहे होंगे, इसलिए लदाख की गोनपाओं में सुशोभित पट्टचित्र, जिन्हें स्थानीय भाषा में थङ्का कह जाता है, उनमें ऐसे प्राकृतिक सौंदर्य को देखा जा सकता है। मोटे कपड़े में बने हुए बुद्ध, बोधिसत्व, तांत्रिक देवी-देवताओं और तांत्रिक मंडलों आदि के चित्रों को थङ्का कहा जाता है। अगर अतीत में उतरकर देखें, तो इन पट्टचित्रों या थङ्काओं में लदाख के अतीत की झाँकी देखने को मिलती है।
लदाख के इस प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जीवन की जटिलता भी कम नहीं है। आवागमन के साधनों की, संसाधनों की और दैनिक जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं की कमी यहाँ के जीवन को जटिल बना देती है। जब जीवन कठिन हो जाता है और जीवन की कठिनाइयों से जूझने के लिए कोई बाहरी रास्ता नज़र नहीं आता, तब एक ही रास्ता बचता है- आस्था का। अतीत में, जब जीवन की जटिलताएँ बहुत ज्यादा थीं, उस समय आस्था भी प्रबल थी। इसी कारण पूजा और साधना के लिए विविध माध्यमों का विकास हुआ। साधकों और तपस्वियों के लिए साधना के अलग रूप हो सकते हैं, मगर आम जनता के लिए उन कठिन रास्तों को अपनाना कठिन होता है। शायद इसी जरूरत ने आम जनता के लिए आस्था के फलने-फूलने के माध्यमों का विकास किया। बौद्ध धर्म में इसी कारण मूर्तियों, स्तूपों, चित्रों, देवालयों और मठों को पूजा एवं साधना में विशेष स्थान मिला। संस्कृत में श्लोक है-
संबुद्धचित्र-  मूर्त्यादिस्तूपसद्धर्मसंमुखः ।
पुष्पैः धूपैः पदार्थैश्च यथाप्राप्तैः सुपूजयेत् ।।
अर्थात्, भगवान् बुद्ध के चित्र, मूर्ति, स्तूप आदि सद्धर्म के प्रतिरूप हैं। इनके समक्ष अपनी भक्ति-भावना को प्रकट करना ही सच्चा धर्म है। इसलिए पुष्प, धूप और अन्य पूजा-सामग्री के साथ पूरी आस्था के साथ इनकी पूजा करनी चाहिए। इससे पुण्य का लाभ होता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध की मूर्तियाँ, उनके चित्र और स्तूप आदि की पूजा का विशेष विधान लदाख अंचल में देखने को मिलता है। विभिन्न परंपराओं तथा शैलियों से संपन्न ये कलाएँ  बोधिप्राप्ति के लिए उपयोगी बनकर लदाख के जनजीवन में गहराई तक उतरी हुई हैं। बौद्ध धर्म में शमथ, अर्थात् मन की शांति पाने का प्रयास ही साधना के प्रथम चरण में होता है। इस प्रकार शमथ या मन की शांति ही साधना की पहली सीढ़ी है, जिसे पाने के बाद अभिज्ञा बल, अर्थात् समझने-विचारने की शक्ति प्राप्त होती है। इस अभिज्ञा बल की साधना से सम्बोधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सम्बोधि के स्तर तक पहुँचने के लिए साधकों को शमथ की पहली सीढ़ी चढ़नी होती है, जो मूर्ति तथा चित्रकलाओं के माध्यम से पाई जा सकती है। आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा ने इसी कारण शमथ की साधना हेतु मूर्ति तथा चित्रकलाओं के महत्त्व पर बल दिया है।
लदाख अंचल अपने अतीत से ही बौद्ध साधना का प्रमुख केंद्र रहा है और यहाँ पर अनेक कलाओं का विकास भी होता रहा है, जिनका महत्त्व बौद्ध धर्म की साधनाओं में, विभिन्न साधना-पद्धतियों में है। स्तूपों, मूर्तियों और भित्तिचित्रों के साथ ही लदाख अंचल में प्रचलित थङ्का चित्रकला इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास का इतिहास भी बहुत रोचक और विविधता से भरा हुआ है। भोट भाषा में एक धर्मशासक जिग-तुल का उल्लेख मिलता है, जिन्हें भारतीय परंपरा में राजा भयजित के रूप में जाना जाता है। राजा भयजित ने एक ब्राह्मण के दिवंगत बेटे को पुनः जीवित करने के लिए ब्रह्मा जी के कहने पर ब्राह्मण के बेटे का चित्र बनाया और ब्रह्मा जी ने उसे जीवन दिया। इस प्रकार राजा भयजित को संसार के पहले चित्रकार के रूप में जाना गया। राजा भयजित या जिग-तुल से ब्रह्मा जी ने कहा कि जिस तरह पर्वतों में मेरु श्रेष्ठ है, पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है, उसी तरह विभिन्न कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है, इसलिए चित्रकला को प्रोत्साहित करो। इसके उपरांत ही ब्रह्मलोक के राजा और विश्वकर्मा जी ने चित्रकला की शिक्षा उपलब्ध कराई और इसके लाभ को, इससे होने वाले धर्मार्थ को जनता के लिए सुलभ कराया। चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित इस लोककथा का वर्णन बौद्ध ग्रंथ तंग्युर में मिलता है। एक अन्य लोककथा के अनुसार चित्रकला का उद्भव वर्तमान बिहार के मगध राज्य में हुआ। यहाँ के राजा बिंबिसार और राजा उत्तायण घनिष्ठ मित्र थे और एक-दूसरे को बहुमूल्य उपहार भेजा करते थे। एक बार उत्तायण ने बहुमूल्य मणि बिबिंसार को भेजी। बदले में बिंबिसार ने उन्हें भगवान बुद्ध का चित्र भेजना सुनिश्चित किया। भगवान बुद्ध की अलौकिक छवि से ऐसी विलक्षण किरणें निकलने लगीं कि चित्रकारों को चित्र बनाना ही कठिन हो गया और तब भगवान बुद्ध ने कहा कि कपड़े पर पड़ रही मेरी छाया को ही रंग दो। इस तरह बने हुए चित्र को बिंबिसार ने अपने मित्रको उपहारस्वरूप भेजा और यहीं से चित्रकला की शुरुआत हुई। बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान बुद्ध के चित्र बनाने की कला का वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में विनय सूक्त, मंजुश्री मूलकल्प और समवरोदया तंत्र आदि का उल्लेख किया जा सकता है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास को इन कथाओं और ग्रंथों में देखा जा सकता है।


लदाख में थङ्का चित्रकला के विस्तार की एक धारा कश्मीर से आई। कहा जा सकता है कि लदाख अंचल में चित्रकला का प्रारंभिक आगमन कश्मीर से ही हुआ। कश्मीर में हर्ष के समय से ही कुछ ऐसे चित्रकार थे, जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। कश्मीर में नाग शैली के साथ ही गौड़ीय और कोंकणी शैली भी प्रचलित थी, जो लदाख अंचल के निचले इलाकों में प्रचलित हुई। लदाख में थङ्का चित्रकला की दूसरी धारा तिब्बत से आई। तिब्बत में थङ्का चित्रकला की परंपरा नेपाल और चीन से पहुँची। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा स्रोंङ्-चेन-गम्पो ने नेपाल की राजकुमारी भृकुटी देवी और चीन की राजकुमारी कोंग-जोङ् से विवाह किया था। इन दोनों के साथ ही नेपाली चित्रकला शैली और चीनी चित्रकला शैली का तिब्बत में विस्तार हुआ। इस कारण दोनों रानियों को तारादेवी के अवतार के रूप में प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है। नेपाली और चीनी चित्रकला परंपरा मूलतः भारतीय ही थी, जो स्थान और समय के अनुरूप अपने परिवर्तित रूप में तिब्बत में विकसित हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत के प्रख्यात अनुवादक लोचावा रिंचेन जङ्पो के साथ कश्मीरी चित्रकला परंपरा भी तिब्बत पहुँची। इस तरह तिब्बत में कश्मीरी, पाल, चीनी, नेपाली, मंगोलियाई और खोतानी चित्रकलाओं के संगम से एक नई चित्रकला परंपरा का उदय हुआ। तिब्बत में विकसित हुई इस चित्रकला परंपरा में दो प्रमुख पद्धतियाँ प्रचलित हुईं। इनमें मन्-रिस् चित्रकला परंपरा का विकास नेपाल की शैली के प्रभाव में हुआ। इसमें नीले, हरे और सुनहरे चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। करमा-गरङिस् या गरचित्र परंपरा का विकास चीनी शैली से हुआ। इसमें हलके रंगों का प्रयोग होता है। तिब्बत का त्सङ् नामक स्थान थङ्का चित्रकला के अध्ययन-अध्यापन एवं निर्माण के लिए प्रसिद्ध था और यहाँ पर विकसित हुई थङ्का चित्रकला शैली को स्थान-नाम के अनुसार त्सङ्-रिस् नाम मिला। लदाख के भिक्षुगणों ने प्रायः यहीं से अध्ययन करके लदाख में त्सङ्-रिस् नामक चित्रकला शैली को विकसित किया। इस कारण लदाख में त्सङ्-रिस् थङ्का चित्रकला अपेक्षाकृत अधिक देखने को मिलती है।    
जिस समय कश्मीर सहित दुनिया के तमाम देशों में बौद्ध धर्म की महायान परंपरा का अस्तित्व सिमट रहा था, उस समय तिब्बत में यह परंपरा फल-फूल रही थी। लदाख अंचल के अनेक भिक्षु और बौद्ध विद्वान ज्ञानार्जन के लिए तिब्बत जाते थे। लदाख से तिब्बत आवागमन का यह क्रम तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के आसपास अपने चरम पर था। चूँकि महायान साधना पद्धति में चित्रकला का महत्त्वपूर्ण स्थान था, इस कारण लदाख के भिक्षुओं को चित्रकला का ज्ञान अनिवार्य रूप से प्राप्त करना होता था। वे लदाख लौटते समय थङ्का चित्रों के साथ ही इनके निर्माण का ज्ञान भी अपने साथ लाए और कालांतर में लदाख में थङ्का चित्रकला की उस परंपरा का विकास हुआ, जिसे आज हम जीवंत रूप में लदाख की धार्मिक परंपराओं और रिवाजों में देखते हैं। लदाख में विभिन्न कलाओं का विकास पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में हुआ। इसी अवधि में लदाख में थङ्का चित्रकला भी विकसित हुई। लदाख की अनेक गोनपाओं में इस अवधि के थङ्का चित्रों को देखा जा सकता है। इनमें से कई थङ्का चित्र अत्यंत दुर्लभ हैं और धार्मिक महत्त्व के साथ ही यहाँ के निवासियों की कलाप्रियता को भी प्रदर्शित करते हैं।
थङ्का चित्रों को बनाना अत्यंत पुनीत और धार्मिक कार्य माना जाता है। इस कारण थङ्का चित्रकारों को बौद्ध धर्म में बताए गए शील और विनय का पालन करना अनिवार्य होता है। बदलते परिवेश में भले ही नियमों में शिथिलता आई हो, गमर आज भी तङ्का चित्रकार बड़ी सरल और विनम्र जीवन-शैली व्यतीत करते देखे जा सकते हैं। थङ्का चित्रों को बनाने के लिए जिस मोटे कपड़े का प्रयोग होता है, उसे काशिका कहा जाता है। काशी से आने के कारण ही संभवतः इसे काशिका कहा जाता है। कपड़े को चित्रांकन के लिए तैयार करने से पहले गुनगुने पानी में गोंद और चूना मिलाकर भिगोया जाता है, फिर उसे लकड़ी के बने साँचे में कस दिया जाता है। इसे धूप में सुखाने के बाद चूने का पानी छिड़ककर घिसा जाता है। कड़ी मेहनत के बाद यह चित्रांकन के लिए तैयार होता है। थङ्का चित्रों के निर्माण के लिए शास्त्रीय विधि से माप और रंगों का चयन किया जाता है। देवी-देवताओं, धर्मपालों और मंडलों के चित्र-निर्माण हेतु निश्चित माप और रंग-संयोजन होता है। माप और रंग-संयोजन के आधार पर थङ्का चित्र कई प्रकार के होते हैं। लदाख में विभिन्न प्रकार के थङ्का चित्रों को बनाने का प्रचलन है। इनमें त्सोन-थङ् थङ्का विभिन्न प्रकार के तैलीय रंगों को सफेद पृष्ठभूमि में उकेरकर करके बनाई जाती है। सेर-थङ् थङ्का में सोने की परत पर सिंदूरी रंग से चित्रण किया जाता है। ङुल-थङ् में छोन-थङ् और सेर-थङ् का मिश्रण होता है। नग-थङ् थङ्का का निर्माण सफेद कपड़े पर काले रंग की पृष्ठभूमि देकर सुनहरे रंग के साथ रंगकर किया जाता है। थग-डुब थङ्का का निर्माण सोने और चाँदी के धागों से किया जाता है। छ़ेम-डुब थङ्का का निर्माण अनेक धागों की कढ़ाई के द्वारा किया जाता है। रेशमी वस्त्र पर गोस-डु थङ्का का निर्माण होता है, जबकि लेन-देबस् थङ्का में सफेद कपड़े पर कपड़ों के रंग-बिरंगे टुकड़ों को चिपकाकर चित्राकृति दी जाती है। तैलीय रंगों के प्रयोग की सुगमता के कारण वर्तमान में त्सोन-थङ् थङ्का के निर्माण का प्रचलन देखा जा सकता है।
थङ्का निर्माण की प्रकिया में सबसे पहले खाका बनाने का काम होता है, जिसे नक्-च्यत् कहा जाता है। खाके में रंग भरने के काम को त्सोन कहते हैं। रंगों के संयोजन और उनके विस्तार को शिब-छा कहते हैं। चित्र में रंगों को गहरा करके छाया दर्शाने का काम कम-म्दंग्स (skam mdangs) कहलाता है। चित्र में सोने की जैसी चमक पैदा करने हेतु ग्जी (gzi) और सुनहरे रंग से किनारा करने के लिए सेर-च्यत् का कार्य संपन्न किया जाता है और अंत में आँखों के निर्माण स्च्यन-फस के साथ चित्र अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। बने हुए चित्र को उपयोग के लिए तैयार करने और सुरक्षित रखने हेतु सुंदर-से रंग-बिरंगे आयताकार कपड़े कोङ्-शम् में बीचोबीच सिल दिया जाता है। कपड़े के दोनों किनारों पर सुंदर नक्काशीदार बेलनाकार लकड़ी लगाई जाती है, जिस पर कपड़े को लपेटा जा सके। इस प्रकार थङ्का चित्र तैयार हो जाता है।

लदाख की धार्मिक परंपराओं में थङ्का चित्रों का बहुत महत्त्व होता है। इन्हें गोनपाओं में प्रदर्शित किया जाता है। लदाख की अनेक प्रमुख प्राचीन गोनपाओं में अनेक बहुमूल्य थङ्काएँ हैं। इनमें से कई थङ्काएँ पाँच से दस मीटर तक लंबी भी हैं। ये प्राचीन बहुमूल्य थङ्काएँ गोनपाओं के वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के समय श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। बेशकीमती थङ्काओं के साथ ही विभिन्न देवी-देवताओं, अर्हतों, धर्मपालों, तांत्रिक मंडलों की अनेक थङ्काएँ भी गोनपाओं में श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। लदाख की लोकपरंपरा में थङ्का चित्रकलाओं को जीवित-जीवंत रखने के लिए अनूठी व्यवस्था की गई है। समाज के धनी व्यक्ति अकसर गंभीर बीमारियों से बचने के लिए या किसी गंभीर बीमारी से बच जाने पर थङ्का चित्र का निर्माण कराकर गोनपा में भेंट करते हैं। इसके साथ ही अपने दिवंगत प्रियजन की आत्मा की शांति के लिए भी लोग थङ्का चित्रों का निर्माण कराते हैं और उन्हें गोनपाओं में चढ़ाते हैं। लोकपरंपरा में जीवित रहने के कारण थङ्का चित्रों के निर्माण की पुरानी परंपरा आज भी जीवित है। लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला को संरक्षित एवं सवर्द्धित करने हेतु जम्मू-कश्मीर के हस्तशिल्प विभाग द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है। आजकल परंपरागत थङ्का चित्रकला के साथ चित्रांकन की आधुनिक पद्धतियों के संयोजन से चित्रांकन की नई तकनीक विकसित हुई है, जिसकी आजकल बहुत माँग है। लदाख में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को भी थङ्का चित्र बहुत प्रभावित करते हैं और वे भी अत्यंत आस्था के साथ इन्हें खरीदते हैं।
इस प्रकार लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ लदाख में बौद्ध धर्म की अपनी अनूठी धार्मिक पहचान को सहेजे हुए है। लदाख की थङ्का चित्रकला के माध्यम से एक ओर भारतीय चित्रकला संरक्षित है, तो दूसरी ओर यह थङ्का चित्रकला देश-दुनिया को अपने अनोखे आध्यात्मिक ज्ञान से आलोकित भी कर रही है।
कार्यकारी संपादक- नूतनवाग्धारा


      (दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख द्वारा वृत्तचित्र-निर्मा एवं दिनांक 13 नवंबर, 2015 को 1800 बजे प्रसारित)
(एक तिब्बती थङ्का चित्रकार)
                   

Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)













Saturday 3 January 2015

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष ऐसी प्रक्रिया है, जो समाज की छोटी से छोटी इकाई से लगाकर बड़ी से बड़ी इकाई तक, स्वयं में सामाजिक इकाई बनकर रह गए आज के व्यक्ति तक इस तरह चलती है, जो कभी असंतोष, असहमति, पीड़ा, विद्रोह को जन्म देती है तो कभी जीवन को गति और सार्थकता देती है। यह प्रक्रिया मानव-मात्र में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में व्याप्त है, युगों-युगों से। संघर्ष की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम संघर्ष की सार्थकता के प्रतिमान बनते हैं। जीवन के इस गुण-धर्म से साहित्यकार का वास्ता भी युगों-युगों का है। ऐसे में आज के साहित्यकार का संघर्ष की प्रक्रिया से गहरा जुड़ाव होना स्वतः-स्वाभाविक है।
संघर्ष के साथ आज की कविता का संबंध वर्तमान युगबोध के सापेक्ष है। जीवन की यातनाओं को, भोगे हुए यथार्थ को, समाज की विसंगतियों को और परिवर्तित होते मूल्यों के संक्रमण को कविता में उसी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने, प्रकट करने का सार्थक प्रयास अमृतसर (पंजाब) निवासी शुभदर्शन की काव्य-कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ में हुआ है। एक जागरूक पत्रकार अपने समय के यथार्थ को, अपने परिवेश को विविध आयामों से देखता भी है, विश्लेषण भी करता है और सत्यान्वेषण की कामना से संप्रेषित भी करता है। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ कृति के रचनाकार शुभदर्शन एक पत्रकार होने के नाते स्वयं को इन्ही विशिष्टताओं के साथ कवि-कर्म में उतारते हैं। इसी कारण शुभदर्शन का समीक्ष्य काव्य-संग्रह एक जरूरी दस्तावेज़ भी बन जाता है और यथार्थ को परखने का एक मानदंड भी बन जाता है।
‘संघर्ष बस संघर्ष’ में कवि-पत्रकार शुभदर्शन की सैंतीस कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता- घुटन के पैबंद में ही व्यवस्था की विद्रूपताओं के बीच घुटते रहने की पीड़ा फूट पड़ती है-
कब खुलेगा दरवाजा/कब देगा कोई दस्तक/उलाहनों की संकरी गली में/लगी उम्मीदों की हाट पर।। (पृ.19)
भोली थी माँ कविता में माँ के बहाने आधी दुनिया के उस दर्द को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे भोगते रहना कभी मजबूरी लगता है, कभी सरल स्वभाव लगता है तो कभी भावनाओं का व्यापार लगता है। भोली-सी माँ जख्म़ों की चारदीवारी और दुख की छत को घर समझते हुए सबकुछ सहती जाती है। कभी परिवार के लिए, कभी बच्चों की खातिर अपने जीवन को गलाते हुए जब माँ रूपी सुरक्षा कवच टूट जाता है, तब उपजने वाली रिक्तता अहसास दिलाती है कि माँ का होना जीवन में कितनी अहमियत रखता है। वसीयत से मनफी, तस्वीर में अहसास नहीं होता, जड़ उखड़ने से और संघर्ष की विरासत कविताओं में माँ के साथ जुड़कर यथार्थ के विविध आयाम इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि एक-एक शब्द चलचित्र के एक-एक दृश्य की तरह दौड़ता नज़र आता है। एक ओर माँ है, सबकुछ न्योछावर करती हुई और दूसरी ओर आज के युग का कृष्णा है-
कृष्ण की खाल में/आ चुका है कंस/कैसे निभेगा/गोपियों का साथ/बलात्कार व सैक्स हिंसा में/बदल गईं हैं--अठखेलियाँ/भारी हो गया है/पाप का गोवर्धन/पूतना का दूध पीते-पीते/अब मथुरा नहीं जाएगा कृष्ण/न ही करेगा वध/किसी कंस का/वह तो व्यस्त है/भरने तिजोरी/स्विस बैंकों के चेस्ट।। (कब बड़े होगे कृष्णा, पृ.123)
माँ के बहाने कवि ने घटती संवेदना, जड़ से उखड़ते जाने की त्रासदी, संस्कारों के संक्रमण, पलायन, गँवई-गाँव की विरासत के बिखराव और मानवीय मूल्यों के विघटन की स्थितियों को परखा है। संस्कार का सॉफ्टवेयर! कविता कंप्यूटर के युग में इन्ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है।
शुभदर्शन की कविताओं में गौरैया चिड़िया के रूप में एक और प्रतीक है। गाँवों के घरों में, लोगों के आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव के बीच गौरैया का भी स्थान है। वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की संवाहक है। शहरीकरण, आधुनिकीकरण और सबसे ज्यादा मानवीय मूल्यों का संक्रमण उस गौरैया के लिए घातक बन जाता है। शहर की ओर गौरैया और सैय्याद गौरैया कविताएँ इस प्रतीक को साथ लेकर ऐसा ताना-बाना बुनतीं हैं कि समाज की मानसिकता में आ रहे बदलाव की पूरी तसवीर नज़रों के सामने आ जाती है। इस बदलाव से टकराता कवि अभिशप्त अभिमन्यु बनकर हारने को विवश हो जाता है, फिर भी उसके हाथ में गांडीव थमा दिया जाता है, संघर्षरत रहने के लिए। इसी संघर्ष को, हारकर भी निरंतर संघर्षरत रहने की विवशता को, या अनिवार्यता को कवि अपने लोगों के साथ बाँटता भी है और समाज की मानसिकता का पर्दाफाश भी करता है-
इतने उतावले क्यों हो/दोस्त/इत्मीनान रखो/तुमसे वादा किया है/सच बताने का/--बताऊँगा/जरा रुको/अभी मुझे पूरी करनी है/--आत्मकथा/शायद वहीं से मिल जाएं तुम्हें/उन सवालों के उत्तर/जो/समय-समय पर/तुमने उछाले थे/भरी सभा में/मुझे जलील करने। (आत्मकथा, पृ.89)
समीक्ष्य कृति में कवि का संघर्ष वर्तमान के यथार्थ की विकृतियों के साथ भी होता है और वैचारिकता के स्तर पर जीवन जीने के दर्शन-पक्ष पर उभरती विकृतियों के स्तर पर भी होता है। इसमें सबसे अधिक कचोटने वाली स्थिति संवेदनहीनता की बनती है, जब व्यक्ति अपने परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं से इस प्रकार विलग हो जाता है, मानो वह संज्ञाशून्य हो-
भागम-दौड़ के युग में/खिलौना बने संस्कार/चलती-फिरती मूरतें/क्या फर्क है--दोनों में /सोचता है राजा
वे भागदौड़ कर रहे हैं/और हम बिसात पर बैठे निभा रहे हैं/--फ़र्ज/नचा रहे हैं लोगों को/वे भी संवेदनहीन/--हम भी।। (संवेदनाहीन, पृ.86-87)
कवि निहायत दार्शनिक अंदाज़ में कहता है-
संवेदना रिश्तों में होती है/संवेदना घर में होती है/मानवता में भी होती है/--संवेदना/पर दोस्त/जब तन जाती है/अवसादों की भृकुटी/तो मजबूर हो जाता है/--आदमी/उसी संवेदना का गला दबाने/जिसके दावे करते/नहीं थकती जुबान।। (संवेदना और व्यवहार, पृ.88)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ दैनंदिन जीवन की, अपने आस-पास की अनेक स्थूल-सूक्ष्म घटनाओं का तार्किक-भावुक परीक्षण-अन्वेषण करतीं हैं। इनके साथ ही दर्शन का पक्ष भी जुड़ा है, जो सहजता के साथ रास्ता दिखाने का प्रयास भी करता है, बिना उपदेशात्मक प्रपंच का परचम उठाए हुए। बहुआयामी-बहुविध संघर्ष का स्वरूप कविताओं में ऐसा है, जिसे बदलाव की उम्मीद है, जिसमें सकारात्मक वैचारिकी का ऐसा पक्ष है, जो पाठक के मन को उद्वेलित किए बिना नहीं छोड़ता। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ की कविताएँ पाठक की संवेदना को झंकृत कर संघर्ष की ओर उन्मुख कर देतीं हैं। गहन मंथन के लिए प्रेरित कर देतीं हैं।
समीक्ष्य कृति की शुरुआत में ही डॉ. रमेश कुंतल मेघ द्वारा किया गया विश्लेषण है। इसके जरिए पुस्तक की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जाती है। ब्लर्ब पर डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु और डॉ. हुकुमचंद राजपाल की टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी को मिलाकर पुस्तक को पढ़ने से पहले पाठक के मन में एक वैचारिक माहौल बन जाता है और पुस्तक अपने उद्देश्य तक सहृदय पाठक को पहुँचाने में सफल हो जाती है। शुभदर्शन की कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ इसी कारण हिंदी साहित्य के लिए, समय के इतिहास के लिए और वर्तमान के संदर्भ के लिए महत्त्वपूर्ण भी है, संग्रहणीय भी है।
(संघर्ष बस संघर्ष, शुभदर्शन, युक्ति प्रकाशन, दिल्ली-85, वर्ष- 2011, मूल्य- 250/-)

डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)