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Saturday 19 April 2014

प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू


प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू
मनाली से लेह का सफ़र तय करते वक्त 5260 मीटर ऊँचे तङलङ ला दर्रे के पहले पङ गाँव पड़ता है। इस गाँव के आगे तङलङ ला की तराई के गाँवों के पास गाड़ियों को देखते ही वहाँ के निवासी गाड़ियों की ओर दौड़ पड़ते हैं और यात्रियों से पानी माँगते हैं। कुछ लोगों ने रास्ते के किनारे तारकोल के खाली ड्रम रख दिए हैं। मनाली-लेह राजमार्ग से अकसर आने-जाने वाले लोग अपने साथ ज्यादा मात्रा में पानी लाते हैं और इन ड्रमों में डाल देते हैं। लगभग पंद्रह-बीस वर्ष पहले मनाली-लेह राजमार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों की याददाश्त में यह वाक़या जीवंत होगा। इन दिनों तङलङ ला की तराई वीरान ही नज़र आती है। इस वीरानी का कारण वहाँ के अधिकांश निवासियों का विस्थापन है।
लदाख अंचल मुख्य रूप से तीन भागों में बँटा है- नुब्रा, जङ्स्कर और चङ्थङ। चङ्थङ का शाब्दिक अर्थ ‘उत्तर का मैदान’ होता है। चङ्थङ का मैदान एक ओर चीन अधिकृत तिब्बत तक तथा दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश तक फैला हुआ है। चङ्थङ के समद रोकछेन, खरनग और कोरजोक क्षेत्रों में रहने वाले घुमंतू आदिवासी चङ्पा कहलाते हैं। चङ्थङ के प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार लगभग 100- 150 वर्ग किलोमीटर है।
तङ्लङ् ला के पश्चिम की ओर खरनग क्षेत्र है और दक्षिण-पूरब की ओर कोरजोद क्षेत्र है। यो दोनों क्षेत्र हरियाली और जल की उपलब्धता के संदर्भ में अपेक्षाकृत समृद्ध हैं। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतुओं को प्रकृति की मार अपेक्षाकृत कम ही सहनी पड़ती है।
तङ्लङ् ला के पूरब की ओर समद रोकछेन क्षेत्र में विस्तृत मैदान और ऊँचे-ऊँचे ग्लेशियर हैं। दूर-दूर तक फैले मैदानों में पानी का भीषण संकट है। यहाँ के लोगों को पानी के लिए बहुत ऊँचाई पर जाना पड़ता है, जो बहुत कष्टसाध्य होता है। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतू आदिवासी यात्रियों से पानी माँगकर अपना जीवन चलाने का प्रयास करते हैं।
समुद्र तल से लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर विस्तृत  इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व सबसे कम है। यहाँ लगातार हवाएँ चलती रहतीं हैं और वनस्पति के नाम पर केवल घास उगती है। घास के बड़े-बड़े मैदानों के कारण ये दुनिया सबसे ऊँचे चरागाहों में से एक है। भारत का सीमांत क्षेत्र होने के कारण यहाँ पर वर्ष-भर फौजी जमावड़ा भी रहता है। पर्यटन के लिए प्रसिद्ध पङ्गोङ झील, त्सोमोरीरी झील तथा पङमिग झील भी इसी क्षेत्र में है।
खरनक, कोरजोक और समद रोकछेन क्षेत्रों के चङ्पा आदिवासी अपने-अपने क्षेत्रों में पुरातन-परंपरागत जीवन-शैली का अनुसरण करते हुए पशुपालन करते आए हैं। ये एक स्थान पर रहने के बजाय चारा-पानी की तलाश में वर्ष-भर भटकते रहते हैं। चङ्पा आदिवासी याक, भेड़, बकरी और घोड़े पालते हैं। यहाँ पर लंबी और छोटी, दोनों प्रजातियों की भेड़ें पाई जातीं हैं। इनसे विश्वप्रसिद्ध एवं बेशकीमती पशमीना ऊन पाया जाता है। याक की खाल और ऊन का भी व्यावसायिक उपयोग होता है। चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर निर्भर होता है। महिलाएँ मक्खन बनाने, उपले बनाने और दूध को सुखाकर छुरपे बनाने का काम करतीं हैं। घुमंतू जीवन जीते हुए चङ्पा आदिवासी ऊन, खाल, मक्खन, छुरपे आदि का संग्रह करके उन्हें निचले इलाके के खेतिहर ग्रामीणों को देकर बदले में गेहूँ, जौ, मटर, चना आदि लेते हैं। इनका सत्तू बनाकर सर्दियों में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह समूचे चङ्थङ क्षेत्र के लोगों का जीवन घुमंतुओं और खेतिहर स्थाई निवासियों के अन्योन्याश्रित संबंधों पर आश्रित रहता है।
चङ्पा घुमंतुओं की पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक और बहुपति प्रथा पर चलती है। ये लोग किसी स्थान पर एक से दो माह ठहरते हैं। याक के मोटे ऊन से बने तंबुओं (डोक्सा) में पूरा परिवार एकसाथ रहता है और अपना जीवन बसर करता है। सर्दियों के लिए ये लोग भेड़ की खाल से बने कोट (लक्पा), जूते (पागू) और ऊन से बने मोजे, टोपी (तिबि) आदि का इस्तेमाल करते हैं। बीमारियों के इलाज के लिए ये लोग पारंपरिक चिकित्सा (अमची) और तांत्रिक पद्धति का सहारा लेते हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि चङ्पा घुमंतू अपने जानवरों के लिए चारे की तलाश में तिब्बत से इस क्षेत्र में आए और यहीं बस गए। कुछ तिब्बती घुमंतू, जो बाद में इस क्षेत्र में आए, उन्हें खम्-बा कहा जाता है। ये लोग घुमंतू जीवन जीने का साथ ही खेती भी करते हैं। चङ्पा समुदाय खम्-बा और लदाख के अन्य मूल निवासियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करता है।
लोत्सर और तङ्ग्युक(घुड़दौड़) इनके प्रमुख पर्व हैं। लोत्सर नव वर्ष की शुरुआत का पर्व है, जिसमें प्रत्येक परिवार अपने घर में क्रमशः कार्यक्रम और प्रीतिभोज का आयोजन करता है, तथा सभी लोग मिलजुल कर उसमें सम्मिलित होते हैं। तङ्ग्युक में प्रत्येक परिवार का पुरुष सदस्य भाग लेता है। सजे-सजाए घोड़ों में घुडदौड़ होती है। परिवार की महिलाएँ प्रतिभागी पुरुषों को छङ (एक प्रकार की देशी शराब) पिलातीं हैं।
कुल मिलाकर चङ्पा घुमंतुओं का जीवन कष्टप्रद होने के बाद भी रोमांच से भरा हुआ होता है। बाहरी समाज पर आश्रित नहीं होने के कारण आधुनिकता की चकाचौंध का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। सन् 1974 में जारी किए गए गजेटियर के मुताबिक चङ्पा घुमंतुओं के एक हजार परिवार इसी प्रकार अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
स्वयं में खुश और खुशहाल रहने वाले चङ्पा घुमंतुओं का वर्तमान निराशाओं, संकटों और विभीषिकाओं से भरा हुआ है। खरनक गाँव के निवासी शेरिंग पलजेस बताते हैं कि लगभग 25 वर्ष पूर्व खरनक क्षेत्र में चङ्पा घुमंतुओं के 70-80 परिवार ही बचे थे। ये सभी ज़ारा, पङ्छेन, यारङ्, साङ्ता, लोक्मोछे आदि गाँवों में भ्रमण करते हुए पशुपालन करते थे। इन दिनों मात्र 20-25 परिवार ही खरनक क्षेत्र में बचे हैं, जो घुमंतू जीवन बिता रहे हैं। कमोबेश ऐसी ही स्थिति समद रोकछेन और कोरजोक की है। ये परिवार भी घुमंतू जीवन छोड़कर विस्थापित होना चाहते हैं। चङ्पा घुमंतू अपनी मातृभूमि से विस्थापित होकर लेह के निकट खरनकलिङ्, चोगलमसर में और लेह-मनाली राजमार्ग पर रोङ् गाँव के आसपास बस गए हैं।
 अपने विस्थापन के दर्द को टूटी-फूटी हिंदी में बयाँ करते हुए शेरिंग पलजेस बताते हैं कि सर्दी के मौसम में एक ओर तङ्लङ् ला और दूसरी ओर बारालाचा दर्रों के बर्फ से ढँक जाने और रास्ते बंद हो जाने के बाद लगभग 6 माह के लिए हमारा इलाक प्राकृतिक जेल में तब्दील हो जाता है। बर्फीली हवाओं से जानवरों को बचाना बहुत कठिन हो जाता है। उन दिनों भोदन और पानी की भी बहुत समस्या होती है। बर्फ को पिघलाकर पानी का बंदोबस्त करना पड़ता है। हर साल हजारों पशु बर्फीली हवाओं के कारण मरते हैं। निचले इलाके के खेतिहर लोगों के साथ वस्तु विनिमय की परंपरागत व्यवस्था भी समाप्त हो गई है, इस कारण गेहूँ, जौ, मटर आदि भी नहीं मिल पाते हैं।
शेरिंग पलजेस बताते हैं कि चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर आश्रित होता है, इसलिए वे पशु हत्या के लिए अपने पशुओं को कसाइयों को नहीं बेचते, मगर परंपरागत व्यवस्था टूट जाने के कारण उन्हें ऐसा करने को मजबूर होना पड़ता है। वे बताते हैं कि इसी कारण उन्होंने घुमंतू जीवन त्यागकर विस्थापन को भले ही स्वीकार कर लिया हो, मगर मातृभूमि के प्रति लगाव उन्हें बार-बार कचोटता रहता है।
भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर लदाख की सशक्त उपस्थिति ने भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लदाख के मुख्यालय लेह में अपना पर्यटन व्यवसाय चलाने वाले स्थानीय प्रतिनिधि देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों के सामने चङ्पा घुमंतुओं को प्रदर्शनी के तौर पर पेश करने से बाज नहीं आते हैं। इसका लाभ चङ्पा घुमंतुओं को तो नहीं मिलता, बशर्ते ‘टू नाइट थ्री डेज़ विद चङ्पा नोमैड्स’ जैसे ‘पैकेजेस’ के माध्यम से पर्यटन व्यवसायियों की जेबें जरूर भर जातीं हैं। रोङ्, खरनक, मरखा, जङ्स्कर, लाहुल-स्पीति ट्रेकिंग रूट भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन में अनाधिकृत दखल देते हैं।
इतना ही नहीं, चङ्पा घुमंतुओं का स्वकेंद्रित जीवन, अनूठी जीवन-शैली और मुख्यधारा से दूरी भी उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। प्रगति के विशालकाय प्रतिमानों का जो स्वरूप जङ्स्कर और नूब्रा घाटियों में, साथ ही लेह के आसपास के इलाकों में देखने को मिलता है, वह चङ्थङ के चङ्पा घुमंतुओं से बहुत दूर है। खरनग, कोरजोद र समद रोगछेन में चिकित्सालयों और विद्यालयों के भवन भले ही देखने को मिल जाएँ, शेष सुविधाएँ मिल पाना संभव नहीं है।
वर्ष 2012 की शुरुआत में ही भीषण बर्फीले तूफान के कारण हजारों जानवर इस क्षेत्र में मारे गए थे। इतनी विशाल विभीषिका ने चङ्पा घुमंतुओं को आर्थिक तौर पर इतनी बुरी तरह से तोड़ दिया कि वे लेह तथा अन्य संपन्न गाँवों/कस्बों में दिहाड़ी मजदूरी तक करने को मजबूर हो गए। यह भले ही लदाख अंचल के अनियमित विकास की क्रूर तसवीर पेश करता हो, योजनागत विकास में लगे पैबंदों को उजागर करता हो, अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों के माथे की लकीरों को बयाँ करता हो और पर्यटन के नाम पर इंसान को ही नुमाइश बना देने की वीभत्स मानसिकता को सामने लाता हो, मगर शेरिंग पलजेस जैसे युवाओं की आँखों के आँसू नहीं पोंछ सकता। चङ्पा घुमंतू आदिवासी पर्यटकों के ‘फोटो एलबम’ की शोभा बढ़ा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू लगभग आधे वर्ष तक प्रकृति की जेल में कैद रहते हैं और विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर हैं, इसलिए मानव-विकास सूचकांक को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू आदिवासी आजाद देश में विस्थापन की जिंदगी जी रहे हैं। इस हकीक़त को जज्ब़ कर पाना सभ्यता और मानवता के लिए मुमकिन नहीं है।
                                                                  डॉ. राहुल मिश्र










(केंद्रीय समाज कल्याण विभाग, दिल्ली की मासिक पत्रिका, 
समाज कल्याण के दिसंबर, 2013 अंक में प्रकाशित)