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Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित


Thursday 20 May 2021

 


अंतिम राय का सच : कहानियों से ज्यादा सच्चाई

‘अंतिम राय का सच’, अपने इस नाम से ही बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली कहानियों की नई प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक मेहरा की सृजनधर्मी लेखनी की उपज है। यह सन् 2019 में दिल्ली के नमन प्रकाशन केंद्र से प्रकाशित हुई है। त्रिलोक मेहरा का नाम हिमाचलप्रदेश के वरिष्ठ कथाकारों में आता है। हिमाचलप्रदेश के कांगड़ा जनपद के बीजापुर गाँव में सन् 1951 में जन्मे त्रिलोक मेहरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय रही है। स्वाभाविक रूप से उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्षों और चुनौतियों को उस समय से देखा और भोगा है, जो देश की आजादी के बाद समग्र राष्ट्रीय चरित्र बने रहे हैं। त्रिलोक मेहरा के दो अन्य कहानी-संग्रह- ‘कटे-फटे लोग’ और ‘मम्मी को छुट्टी है’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही उनका एक उपन्यास- ‘बिखरते इंद्रधनुष’ भी सन् 2009 में प्रकाशित हो चुका है। कथा-साहित्य के अतिरिक्त हिमाचलप्रदेश की लोकसंस्कृति, लोकजीवन और हिमाचली जन-जीवन के संघर्षों पर आधारित अनेक शोधपरक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मेहरा जी की कई रेडियो वार्ताएँ और कहानियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता और साहित्यिक संलग्नता को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।

त्रिलोक मेहरा जी के साहित्यिक अवदान का परिचय यहाँ पर देना इसलिए आवश्यक लगा, क्योंकि एक रचनाकार का भोगा हुआ यथार्थ, उसका देखा हुआ यथार्थ उसकी रचनाओं की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करता है। साहित्य के साथ ही सामाजिक जीवन में निरंतर संलग्न और सक्रिय रहने के कारण मेहरा जी की यह कृति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। इसकी बानगी हमें संग्रह के शीर्षक से ही मिल जाती है। किसी भी कृति का शीर्षक अपना पहला प्रभाव डालता है। अमूमन पुस्तक को खरीदते समय उसका शीर्षक देखकर एक छवि कृति के संबंध में, कृति में संग्रहीत सामग्री के संदर्भ में बनती है। यह पहली दृष्टि अपना विशेष महत्त्व भी रखती है, और प्रभाव भी उत्पन्न करती है। कृति के शीर्षक के आकर्षण का यह पक्ष अंतिम राय का सच में निखरकर आता है। कृति अपनी ओर आकृष्ट करती है- यह ऐसी कौन-सी अंतिम राय है, जिसका सच व्यापक समाज के साथ जुड़ता है, यह प्रश्न एकदम मन में कौंध उठता है।

कहानी-संग्रह का नाम जहाँ अपनी ओर खींचता है, वहीं दूसरी ओर संग्रह की प्रतिनिधि और शीर्षक-कहानी भी कम प्रभावी नहीं है। अंतिम राय का सच कहानी उस अंतिम राय की बात करती है, जिसके बाद सलाह-मशविरों के लिए जगह बचती नहीं है, और केवल निर्णय लेना ही शेष रह जाता है। यही निर्णय कहानी के पात्र रमेश वर्मा और उसके साथियों की गरजती बंदूकों में दिखता है। यह अंतिम राय कैसी है, उसकी बानगी तो कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है- “वहाँ अपने-अपने सुझावी भाषणों की तश्तरियाँ सभी आगे सरका कर खिसक गए थे, पर काम करने के लिए कोई आगे नहीं आया था, और अगर आया था, तो वह था- रमेश वर्मा।” (पृ. 86) पहाड़ी जीवन में, जंगलों के बीच ग्रामीण इलाके के किसान दयनीय जीवन जी रहे हैं। वे सभी जीवधारियों पर आस्था रखते हैं, सभी जीवों के जीवन का सम्मान करते हैं, लेकिन स्थितियाँ ऐसी जटिल हो चुकी हैं, कि किसानों का अपना जीवन ही संकट में फँसकर रह गया है। उनके अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। ऐसी दशा में उनके लिए सलाह कितनी कारगर है, यह देखने का प्रयास कहानी करती है। नेताओं के पास सलाह के अलावा कुछ भी नहीं है। संसद अपनी अंतिम राय देकर यह मान लेती है, कि उसकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो चुकी हैं, लेकिन इस अंतिम राय का सच किसी के हित में नजर नहीं आता है।

संग्रह की शीर्षक-कहानी हिमाचलप्रदेश के सुदूरवर्ती गाँवों की उस जटिल समस्या की ओर संकेत करती है, जिससे निबटने के लिए ग्रामीण समाज अपनी पुरातन परंपरागत जीवन-शैली के विपरीत जाने को विवश होता है। हिमाचलप्रदेश के गाँवों में बंदरों के आतंक से किसानों का जीवन दूभर हो गया है। उनके खेत, उनकी फसलें इतनी बुरी तरह से तबाह हो रहीं हैं, कि उन्हें बंदूक उठाने को विवश होना पड़ रहा है। पर्यावरणप्रेमियों से लगाकर धर्मभीरुओं तक सबकी अपनी दृष्टि है, लेकिन यह कहानी इन सबसे अलग हटकर किसानों के नजरिये से देखती है। यही इस कहानी की विशिष्टता है।

समीक्ष्य कृति में बारह कहानियाँ संकलित हैं। कृति की शीर्षक कहानी के साथ ही अन्य कहानियाँ भी अलग-अलग तरीके से जीवन को देखती हैं, मन के भावों को पकड़ती हैं। संग्रह की पहली कहानी है- घर-बेघर। यह कहानी मोह में बँधे एक ऐसे पिता की विवशताओं को व्यक्त करती है, जिसका पुत्रमोह पिता के साथ ही कई जिंदगियाँ बरबाद करता है। सुंदर, सुशील और कामकाजी जाह्नवी का विवाह मानव से हुआ है। मानव शारीरिक रूप से विकलांग है, क्योंकि उसके एक ही किडनी है। मानव के पिता इस सच्चाई को इसलिए छिपा लेते हैं, ताकि उनके बेटे का विवाह हो सके। जाह्नवी इस सच्चाई को जान जाती है, और अपने भविष्य को देखते हुए  नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। यही जिद जाह्नवी के चरित्र पर उंगली उठाने का कारण बनती है। मानव जाह्नवी का भावनात्मक भयादोहन करता है। जाह्नवी इस दबाव में नहीं आती, और अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने निर्णय पर अडिग रहती है। वह मानव को अपनी किडनी नहीं देती। अंततः मानव की माँ उसे अपनी किड़नी देती है। जाह्नवी अपना फर्ज निभाते हुए ससुराल आती है, लेकिन उसके प्रति परिवार के लोगों की मानसिकता बदलती नहीं है। कहानी स्त्री-सशक्तिकरण को एकदम अलग दृष्टि से देखती है। एक ओर जाह्नवी है, और दूसरी ओर मानव की माँ है। यहाँ स्त्री ही स्त्री की विरोधी बन जाती है। जाह्नवी अपने बच्चों के लिए और अपने भविष्य के लिए सजग-सचेत रहती है। उसकी सजगता परिवार को पसंद नहीं आती, दूसरी ओर जाह्नवी अपने साथ हुए धोखे के बाद भी संबंधों को निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है।

समय के साथ कहानी जातिवादी बंधनों में जकड़े समाज की पड़ताल करती है, साथ ही समाज के दोहरे चरित्र को परत-दर-परत उघाड़ती है। कहानी की नायिका हरप्रीत खुले विचारों वाली युवती है। हरप्रीत के पिता भी खुले विचारों वाले हैं, लेकिन केवल अपने लिए...। अपनी बेटी के लिए वे दूसरे मानक गढ़ते हैं, निभाते हैं। हरप्रीत के साथ हरदेव के संबंध को वे पचा नहीं पाते हैं। भुजंगा सिंह ने इसी कारण अनेक वर्जनाएँ गढ़ रखी हैं। वे समाज में तिरस्कृत और अपमानित नहीं होना चाहते। उन्हें इसकी चिंता रहती है। इस कारण वे हरप्रीत पर अपनी गढ़ी हुई वर्जनाओं को लादते हैं। वे हरदेव को अपमानित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते। कहानी दो पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को इतनी सहजता और साफगोई के साथ व्यक्त करती है, कि समाज का कटु यथार्थ खुलकर सामने आ जाता है। कहानी में भुजंगा सिंह की पत्नी सुरिंदर कौर का चरित्र दो पाटों के बीच पिसता हुआ दिखता है। हरदेव के पिता जातिवादी सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं। भुजंगा सिंह अपनी बेटी को इतनी छूट देते हैं, कि वह किसी सरदार से प्रेम करने लगे, लेकिन हरप्रीत की जिद के आगे वे विवश हो जाते हैं। समाज में खिंची जातिवाद की विभाजक रेखाओं की गहराई को कहानी बखूबी आँकती है।

गोल्डी के लिए केवल कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से आगे की कथा कहती दिखाई पड़ती है। समाज में एक ओर जातिवाद की गहरी खाइयाँ हैं, जिन्हें पाटने का प्रयास करता युगल समय के साथ कहानी में है। दूसरी तरफ गोल्डी के लिए केवल कहानी में आधुनिकता और उच्छृंखलता का दर्शन होता है। लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी आयातित मानसिकता के कारण गोल्डी इस संसार में आता है। हरिओम और रचना के उच्छृंखल संबंध समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर भी आधुनिकता के फेर में वे उस स्थिति में पहुँच जाते हैं, जिसका सबसे पहला असर नवजात गोल्डी पर पड़ता है। इसके बाद रचना इस दंश को भोगती है। हरिओम के परिवार से उसे कोई सहारा नहीं मिलता। रचना के लिए समाज के ताने-उलाहने तो हैं ही, साथ ही गोल्डी को पालने की चुनौती भी है। यही चुनौती उसे इतना शातिर बना देती है, कि वह अपनी सीमाएँ लाँघकर ओमप्रकाश के परिवार को बरबाद करने में पीछे नहीं हटती। अपने लिए एक सहारा खोजती महिला दूसरी महिला के सहारे को किस तरह छीन लेती है, उस स्थिति को यह कहानी बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट करती है। ओमप्रकाश को उसकी पत्नी सविता से दूर करना रचना का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ओमप्रकाश का जीवन भी एक समय के बाद ऐसे अवसाद और दुःख से भर जाता है, जो आधुनिकता की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों की ओर संकेत भी करता है, सावधान भी करता है। रचना अत्यंत जटिल व्यक्तित्व वाली महिला के रूप में कहानी में दिखाई देती है। विवाहेतर संबंधों की विद्रूपताएँ भी कहानी में दिखाई पड़ती हैं।

उच्छृंखल यौन-संबंधों पर केंद्रित एफ.आई.आर.कहानी की नायिका एक बालिका है। वह कम उम्र की है, और गोल्डी के लिए केवल की पात्र रचना जैसी शातिर नहीं है। इसी कारण वह भावनाओं में बह जाती है, और भानु के छलावे में फँस जाती है। उसका मन एक ओर अपने बूढ़े दादा से धोखेबाजी करते हुए भयभीत होता है, लेकिन दूसरी तरफ उस पर भानु के छलावे का फंदा इतना मजबूत होता है, कि उसके लिए निकल पाना आसान नहीं रह जाता। कहानी कमउम्र बालिका की मनःस्थिति को बखूबी व्यक्त करती है। अंत में उसके द्वारा सारी सच्चाई को ईमानदारी के साथ अपने बूढ़े दादा से बताया जाना आश्वस्त करता है, कि जीवन के संघर्षों से हार मानने के स्थान पर चुनौतियों का डटकर सामना करना अच्छा विकल्प है। जहाँ एक ओर इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता है, वहीं दूसरी ओर समीक्ष्य कृति की अन्य कहानी- अखाड़ा में संबंधों के बीच पसरी चालबाजियों की बिसातें हैं। कहानी स्वार्थ में पड़कर आपसी रक्त-संबंधों और पारिवारिक मर्यादाओं को नष्ट कर देने वाली मानसिकता को प्रकट करती है।

अखाड़ा में गाँव के फौजी का दामाद भी फौजी है और उसने अपनी ससुराल में सास-ससुर की जमीन में कब्जा कर रखा है। घर से बेटा और बहू बेदखल हो चुके हैं। बेटे और बहू को अपने दिवंगत पिता के लिए सहानुभूति है, किंतु बड़डेला, यानि फौजी का दामाद उन्हें दूर ही रखना चाहता है। जब वह कहता है, कि- हम लाशों से खेलते आए हैं। क्या हुआ, यह अपने घर की लाश है।तब परिवार और आपसी संबंधों की मर्यादाओं का बिखराव, उनकी टूटन पाठक के अंतस् में उतरकर जम जाती है। कथाकार ने इस स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में समेटा है।

समीक्ष्य कृति में नखरो नखरा करेगी कहानी एकदम अलग तरीके से समाज का चित्रण करती है। इसमें महिलाएँ हैं, जो बिशनी के नेतृत्व में संगठित हो रही हैं। उनके संगठित होने का कारण समाज में महिला सशक्तिकरण नहीं, बल्कि स्वयं को साक्षर और समर्थ बनाना है। कहानी किसी भी तरह से उस महिला-सशक्तिकरण का परचम नहीं उठाती, जिसके नाम पर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए जाते हैं। यहाँ गाँव की महिलाएँ स्वतः प्रेरित हैं, और उन्हें केवल मार्गदर्शन मिल रहा है, वह भी अपने बीच की ही बिशनी के माध्यम से...। बिशनी के सहयोग के लिए नखरो चाची आगे आती हैं। नखरो चाची का व्यक्तित्व भी बहुत साधारण-सा है। वह बिशनी और तोमर से प्रेरित होती है, और केवल इसी कारण महिलाओं को शिक्षित करने के लिए चलाए जाने वाले अभियान से जुड़ती है, बाद में पढ़-लिख भी जाती है।

 समीक्ष्य कृति में हाय कूहल और टिटिहरियाँ एकदम अलग तासीर की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में हिमाचलप्रदेश का लोकजीवन ही नहीं झलकता, वरन् हिमाचलप्रदेश में आती बदलाव की बयार के बीच बिखरते प्रतीकों की असह्य-दुःखद पीड़ा भी झलकती है। कूहल और घराट की थमती आवाज के पीछे आधुनिक संसाधनों का पैर पसारना है। दीनानाथ कोहली, जिनका उपनाम कूहल से बना है, आज केवल यही एक पहचान शेष रह गई है, क्योंकि कूहल तो कब के शांत हो गए। घराट भी नहीं बचे। पहाड़ में गरजते बुलडोजर की आवाज लोगों के मन में संदेह पैदा करती है। जिनके घर में पीहण रखा है, वे जरा निश्चिंत दिखते हैं। जिन लोगों के पीहण नहीं पिसे हैं, वे कूहल के लिए चिंतित होते हैं। सभी को कोहली से...घराटी से आशा है, कि वह कुछ करेगा-

क्या करें अब? पीहण, पत्थर और पनिहारिये सब गूँगे, ठगे से पड़े थे। पर कब तक? वे उदास होने के लिए नहीं आए थे। उस चुप्पी को उनमें से किसी ने तोड़ा-

कोई मर गया है क्या? कुछ बोलो।

हाँ, कुछ गाओ। दूसरी आवाज थी।

क्या गाएँ? गाने सारे घराट ने चुरा लिए। अनपीसे पीहण वाला रोया।

तो चिल्लाओ।

दीनानाथ कोहली के सामने चल रहा संवाद उस अंधकारमय भविष्य का खाका खींचता है, जो सबसे ज्यादा घना-गहरा दीनानाथ के सामने है। दीनानाथ उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधि है, जिसका जीवन गाँव के देशी-घरेलू उद्योगों के सहारे चलता है। देशी तकनीक के ऊपर चल रहा बुलडोजर गाँव की अपनी पहचान को, घराट को खा चुका है... कूहल के गाने को शांत कर चुका है। अब केवल आधुनिक होते गाँव में परंपरा के टूटने की चिल्लाहट ही शेष बची है।

टिटिहरियाँविकास की अंधी दौड़ की सच्चाई को खोलती है। बाँध का निर्माण विकास के प्रतिमान भले ही गढ़े, लेकिन इसके कारण किसानों को अपनी जमीनों से वंचित होना पड़ रहा है। वन काटे जा रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है। मंगतराम, जगतराम और विश्नो ताई आदि ग्रामीणों ने विकास की जिस कीमत को चुकाया है, उसका पूरा आकलन यह कहानी करती है। किसानों को मुआवजे की रकम के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना पड़ रहा है। सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों का गठजोड़ किसानों के मुआवजे को भी हड़प जाना चाहता है। बच्चों को सरकारी नौकरी जैसे वायदे तो दूर की कौड़ी बन गए हैं। किसानों और बाँध बनने के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के विरोध को दबाने के लिए ठेकेदारों के गुर्गों के साथ खाकी वर्दी भी मिल गई है। पूरे परिवेश में विस्थापित जन-समुदाय की निराशा का अंधकार घना होता जा रहा है- हम दुत्कारे हुए जीव थे। आज तक रोते रहे हैं। अब यह लोहदूत हमें पाटने आ गया है। पचास साल कम नहीं होते। काम करने की पूरी जिंदगी होती है। यहाँ बसाने की कतरने अभी भी हमारे पास हैं, इस जगह सो सँवारा है, सजाया है। कहाँ जाएँ अब? यह प्रश्नचिन्ह उन तमाम विस्थापितों के जीवन के सामने लगा हुआ है, जिन्हें अनियंत्रित विकास ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया है। कहानी बड़ी सहजता के साथ आज के इस जटिल प्रश्न को उठाती भी है, और पाठक के मन को उद्वेलित भी करती है।

समीक्ष्य कृति में भ्यागड़ा औरकब्र से बोलूँगा, ऐसी कहानियाँ हैं, जो आतंकवाद के दो अलग-अलग चेहरों को सामने लाती हैं। भ्यागड़ा ऐसे गीत को कहते हैं, जो सुबह के समय गाया जाता है। यह शीर्षक कई अर्थों में कहानी के कथ्य को सामने लाता है। धर्मांधता की काली और अँधेरी रात के बीत जाने के बाद जो सुबह आएगी, उसे भ्यागड़ा के सुर से सजाया जाएगा। यह कहानी एक आशा का संचार करती है, जो आतंक का शमन कर सकेगी। कहानी का पात्र याकूब मागरे भले ही भटकाव में आकर आतंक के साथ हो लिया हो, लेकिन आतंक के कारण उसके जीवन पर कसता शिकंजा उसे सोचने को विवश कर देता है, और फिर वह अपने पुराने जीवन की ओर लौट चलता है। उसकी बाँसुरी फिर से भ्यागड़ा की धुन गुनगुनाने लगती है। धार्मिक कट्टरता के नाम पर गीत-संगीत, वेश-परिवेश पर लगाए जाने वाले बंधनों को, बंदिशों को याकूब नकार देता है।

कब्र से बोलूँगा का याकूब मोहम्मद भी धर्मांधता और आतंकवाद के चंगुल में फँसता है। पहाड़ों में जीवन सरल नहीं होता। वहाँ मजदूरी करने वाले लोगों पर पुलिस भी शक करती है, और छिपे हुए आतंकी भी। इन जटिल स्थितियों के बीच आतंकवाद और आतंकियों से दूर रहने के स्थान पर उनके साथ हो जाने की स्थिति को गाँववाले देखते हैं। सड़क-निर्माण में मजदूरी करने वाला याकूब मोहम्मद आतंकियों की गिरफ्त में इस तरह आता है, कि उसके सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। रामलीला में सुग्रीव की भूमिका निभाते हुए वह सच में बालि का वध करने को उद्यत हो जाता है। कहानी आतंकवाद की उस मनःस्थिति को परखने की कोशिश करती है, जिसके कारण समाज में मिल-जुलकर रहने वाला सामान्य-सा व्यक्ति भी आतंकी बन जाता है।

समीक्ष्य कृति की अंतिम कहानी है- छोटू। यह कहानी भी कई परतों में समाज की विषमताओं को खोलती है। गाँव में रहने वाले सीधे-सादे छोटू को शहर की चकाचौंध अपनी ओर खींचती है। गाँव को छोड़कर शहर जाने वाला छोटू शहर में संपन्न और शहरी तो नहीं बन पाता, उल्टे घरेलू नौकर बनकर शाह पत्रकार के घर में सिमट जाता है। कहानी उस ज्वलंत मुद्दे को उठाती है, जिसकी चर्चा अकसर सुर्खियों में आ नहीं पाती, लेकिन समाज में ऐसी स्थितियाँ शिद्दत के साथ देखी जा सकती हैं।

संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ एक बड़े फलक पर अलग-अलग चित्रों को समेटती हैं। हिमाचल के लोकजीवन को समेटने के साथ ही मन-मानसिकता में आते बदलावों को कहानियों में देखा जा सकता है। कहानीकार त्रिलोक जी ने हिमाचल के लोकजीवन से जुड़े अनेक शब्दों का प्रयोग करके संग्रह को विशिष्ट बनाया है। कूहट, घराट, पीहण, टल्ली, कुकड़ी, टब्बर, छकराट, खिंद और भ्यागड़ा जैसे शब्द हिमाचल की अपनी बोली-बानी के साथ पाठक को जोड़ते हैं।

सरल-सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा के साथ ही रोचक शैली के साथ हरएक कहानी अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। भ्यागड़ाऔर कब्र से बोलूँगा कहानियाँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं, क्योंकि ये कहानियाँ अनागत के भाव को व्यक्त करने वाली हैं। कल के सुख की कामना वह विशिष्ट भाव है, जो साहित्य को दिशा-निर्देशक बनाता है। आतंकवाद की विभीषिका के बीच जो सुखद भविष्य दिख रहा है, वह इन कहानियों में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की समकालीन चिंतनधाराओं, प्रवृत्तियों और विमर्शों का अत्यंत सहज रूप इन कहानियों में  दिखता है। कथ्य की विशिष्टता और सामयिक यथार्थ से निकटता समग्र कहानी-संग्रह की निजी विशेषता है। इसी कारण समीक्ष्य कृति पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है। 

समीक्ष्य कृति- अंतिम राय का सच / त्रिलोक मेहरा / नमन प्रकाशन, नई दिल्ली / प्रथम संस्करण 2019 / मूल्य 250 रुपये / पृष्ठ-134

(हिमप्रस्थ, शिमला, वर्ष- 64-65, मार्च-मई, 2021, अंक- 11/12/1, संपादक- नर्बदा कँवर)

डॉ. राहुल मिश्र

Wednesday 8 January 2020

बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा (एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)


बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा
(एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)
अगर यह पता चले, कि रामलीला देखने का शौक भी किसी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है, और रामलीला देखने के लिए जाना ही किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसी ‘रामलीला’ का रूप ले सकता है, कि चौदह वर्षों के बजाय जीवन-भर का वनवास मिल जाए, तो सुनकर निश्चित तौर पर अजीब लगेगा। इसके बाद अगर पता चले, कि यह वनवास उस व्यक्ति के लिए संकट का लंबा समय लेकर जरूर आया, मगर संकटों-विपत्तियों से भरे कालखंड ने उस व्यक्ति को ऐसी बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी, जिसने कालांतर में उस व्यक्ति को एक देश का जनकवि ही नहीं राष्ट्रकवि बना दिया, तो बेशक आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहेगा। इस तमाम बातों के साथ ही अगर यह कह दें, कि वह महान व्यक्ति अपने बुंदेलखंड का बाँका नौजवान था, तब क्या कहेंगे? शायद जुबाँ पर शब्द नहीं आ पाएँगे, केवल और केवल गर्व की अनुभूति होगी...निःशब्द रहकर....।
बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यह यात्रा-कथा उसी गर्वानुभूति की ओर ले जाने वाली है, जिसमें बुंदेलखंड का एक बाँका नौजवान तमाम मुश्किलों-कष्टों को सहते हुए, संघर्ष करते हुए न केवल अपना नाम रोशन करता है, वरन् समूचे बुंदेलखंड का गौरव बढ़ाता है। निश्चित तौर पर उसके संघर्ष के पीछे, उसकी जिजीविषा के पीछे बुंदेलखंड के पानीदार पानी और जुझारू जमीन के तमाम गुणों ने अपना असर दिखाया था।
यहाँ जिस बाँके बुंदेलखंडी नौजवान की सूरीनाम पहुँचने और वहाँ के क्रांतिकारी जनकवि बनने यात्रा-कथा है, उसने अपने जीवन के संघर्षों को, साथ ही अपने गिरमिटिया साथियों के संघर्षों को डायरी में उकेरा, जिसने बाद में आत्मकथा का रूप ले लिया। संघर्ष के कठिन समय में लिखी गई उनकी डायरी के अस्त-व्यस्त पन्नों को समेटकर जुटाई गई जानकारी और उनकी दो पुस्तकों से एक व्यक्ति का ही नहीं, एक युग का, एक देश का अतीत परत-दर-परत खुलता है। उनकी दैनंदिनी के पन्नों को समेटकर सन् 2005 में ‘आटोबायोग्राफी ऑफ एन इंडेंचर्ड लेबर- मुंशी रहमान खान’ नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था।
मुंशी रहमान खान अपने बारे में परिचय देते हुए अपनी कृति- ज्ञान प्रकाश में लिखते हैं-
कमिश्नरी इलाहाबाद में जिला हमीरपुर नाम ।
बिंवार थाना है, मेरा मुकाम भरखरी ग्राम ।।
सिद्ध निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्वी पाय ।
मास शत्रु तिथि तेरहवीं डच-गैयाना आय ।।
गिरमिट काटी पाँच वर्ष की, कोठी रूस्तम लोस्त ।
सर्दार रहेउँ वहँ बीस वर्ष लों, लीचे मनयर होर्स्त ।।
अग्नि व्योम इक खंड भुईं ईस्वी आय ।
मास वर्ग तिथि तेरहवीं गिरमिट बीती भाय ।।
खेत का नंबर चार है, देइक फेल्त मम ग्राम ।
सुरिनाम देश में वास है, रहमानखान निज नाम ।।
मुंशी रहमान खान ने अपने बारे में लगभग सारी बातें इन पंक्तियों में बता दीं, किंतु उनका सूरीनाम तक का सफर इतना भी सरल नहीं था। मोहम्मद खान के पुत्र मुंशी रहमान खान का जन्म हमीरपुर जिले के बिंवार थाना में आने वाले भरखरी गाँव में सन् 1874 ई. को हुआ था। मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे एक सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए थे। बचपन से ही जिज्ञासु और कलाप्रेमी मुंशी रहमान खान को रामलीलाओं से बड़ा लगाव था। संभवतः इसी कारण वे अध्यापन-कार्य से बचने वाले समय का सदुपयोग रामलीला आदि देखने में किया करते थे।
सन् 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद बुंदेलखंड अंचल में भी अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था, और वर्तमान बुंदेलखंड का हमीरपुर जनपद संयुक्तप्रांत के अंतर्गत आ गया था। हमीरपुर से लगा हुआ कानपुर नगर बड़े व्यावसायिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था और अंग्रेजों के लिए बड़ा व्यावसायिक केंद्र था। दूसरी तरफ, कानपुर का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी रहा है। सचेंडी के राजा हिंदू सिंह ने कानपुर में रामलीलाओं के मंचन की शुरुआत सन् 1774 ई. में की थी। इसके बाद कानपुर के अलग-अलग इलाकों, जैसे- जाजमऊ, परेड, गोविंदनगर, पाल्हेपुर (सरसौल) आदि की रामलीलाओं के कारण कानपुर की अपनी प्रसिद्धि रही है। रामलीला के अंतर्गत आने वाली धनुषयज्ञ की लीला का जन्म ही बुंदेलखंड में हुआ था, जो कालांतर में कानपुर तक प्रसिद्ध हुई। इन कारणों से तमाम लीलाप्रेमियों के लिए कानपुर जाकर रामलीला देखना अनूठे शग़ल की तरह होता था। मुंशी रहमान खान भी इसी शौक के कारण कानपुर पहुँच गए। कानपुर में उनकी मुलाकात दो अंग्रेज दलालों से हुई, जो कानपुर और बुंदेलखंड के आसपास के इलाकों से किसानों-कामगारों को दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में कामगार मजदूर के तौर पर ले जाते थे।
कानपुर, मद्रास, कलकत्ता और बंबई; चार ऐसे बड़े केंद्र थे, जहाँ आसपास के ऐसे किसानों-मजदूरों को पकड़कर ले जाया जाता था, जो प्रायः लगान नहीं चुका पाते थे। हालाँकि मुंशी रहमान खान के सामने ऐसा संकट नहीं था, किंतु वे भी अंग्रेज दलालों के झाँसे में आ गए और गिरमिटिया मजदूर के रूप में उन्हें सूरीनाम भेजने का बंदोबस्त कर दिया गया। वस्तुतः, गिरमिटिया शब्द अंग्रेजी के ‘एग्रीमेंट’ से विकृत होकर बना है। ‘एग्रीमेंट’ या करार के तहत विदेश भेजे जाने वाले मजदूर ही ‘एग्रीमेंटिया’ और फिर गिरमिटिया बन गए थे।
सन् 1898 ई. में 24 वर्ष की आयु में मुंशी रहमान खान को गिरमिटिया मजदूर के तौर पर कानपुर से कलकत्ता, और फिर सूरीनाम के लिए जहाज से रवाना किया गया। दक्षिण अमेरिका के उत्तर में स्थित सूरीनाम अंग्रेजों का उपनिवेश था, जिसमें बड़ी संख्या में गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेजों ने बसाया था। भारत से सूरीनाम तक की जहाज की यात्रा भी बहुत कष्टसाध्य और लंबी होती थी। इस यात्रा में कई मजदूर रास्ते में ही दम तोड़ देते थे। इन विषम स्थितियों के बीच जब मुंशी रहमान खान ने समुद्री यात्रा शुरू की, तब उन्होंने दो बातें अच्छी तरह से समझ ली थीं। पहली यह, कि अब वे शायद कभी लौटकर नहीं आ सकेंगे, और दूसरी यह, कि उनके साथ जहाज में सवार अनपढ़-असहाय गिरमिटिया मजदूरों के कल्याण के लिए भी उन्हें समर्पित होना पड़ेगा।
समूचे मध्य भारत के लिए श्रीरामचरितमानस के प्रति ऐसे आदर्श और पवित्र ग्रंथ की मान्यता रही है, जो विपत्ति के समय रास्ता दिखा सकता था। आज भी ऐसा ही माना जाता है। इसी कारण पढ़े-लिखे, और साथ ही अनपढ़ों के पास भी मानस की प्रति जरूर होती थी। बुंदेलखंड के गाँवों में आज भी तमाम ऐसे लोग मिल जाएँगे, जिनको मानस कंठस्थ है। गिरमिटिया मजदूरों के लिए भी परदेश में, आपद-विपद में मानस का ही सहारा था। संकट केवल इतना था, कि मानस की पुस्तक साथ में होते हुए भी उसे पढ़ पाना जहाज में सवार अनपढ़ गिरमिटिया मजदूरों के लिए संभव नहीं था। जहाज में मुंशी रहमान खान के अलावा कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। अपने सहयात्रियों को संबल-साहस देने के लिए मुंशी रहमान खान ने रामायण का पाठ करना शुरू कर दिया। वे नियमित रूप से ऐसा करते, और मानस को सुनकर गिरमिटिया मजदूरों को संकट से जूझने की नई ताकत मिलती थी।
सूरीनाम पहुँचने के बाद भी यह क्रम निरंतर चलता रहा, और इसी कारण मुंशी रहमान खान को  ‘कथावाचक’ की उपाधि मिल गई। सरकारी स्कूल में शिक्षक होने के कारण उन्हें ‘मुंशीजी’ कहा जाता था। कहीं-कहीं ऐसा भी बताया जाता है, कि वे सरकारी शिक्षक नहीं थे। वे गिरमिटिया मजदूरों के बच्चों को पढ़ाया करते थे, इस कारण लोग उन्हें सम्मान से ‘मुंशीजी’ कहने लगे थे। कारण चाहे जो भी रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह से निभाया। मुंशी रहमान खान को उर्दू लिखना नहीं आता था, इस कारण उन्होंने नागरी लिपि में ही रचनाएँ कीं। उन्होंने देशी भाषा में, और साथ ही दोहा-चौपाई छंदों में रचनाएँ कीं। इस कारण उनकी रचनाएँ सूरीनाम में रहने वाले गिरमिटिया मजदूरों के बीच बहुत प्रसिद्ध हुईं। इन रचनाओं में अकसर नीति-नैतिकता की शिक्षाएँ भी होती थीं। भारत से सूरीनाम पहुँचने वाले गिरमिटिया मजदूरों में सभी जातियों के लोग थे। उनमें हिंदू भी थे, और मुस्लिम भी थे। परदेस में सभी एक रहें, मिल-जुलकर रहें और अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार से संघर्ष हेतु एकजुट रहें, इस पर भी मुंशी रहमान खान ने बहुत जोर दिया, और रचनाएँ कीं। इसी कारण वे सूरीनाम में जनकवि के रूप में विख्यात हो गए। एक बानगी के तौर पर उनके द्वारा रचित चंद पंक्तियाँ-
दुई जाति भारत से आये । हिंदू मुसलमान कहलाये ।।
रही प्रीति दोनहुँ में भारी । जस दुइ बंधु एक महतारी ।।
सब बिधि भूपति कीन्हि भलाई । दुःख अरु विपति में भयो सहाई ।।
हिलमिल कर निशि वासर रहते । नहिं अनभल कोइ किसी का करते ।।
बाढ़ी अस दोनहुँ में प्रीति । मिल गये दाल भात की रीति ।।
खान पियन सब साथै होवै । नहीं विघ्न कोई कारज होवै ।।
सब बिधि करें सत्य व्यवहारा । जस पद होय करें सत्कारा ।।
मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में पाँच वर्षों तक गिरमिटिया मजदूर के रूप में काम किया, बाद में उनकी लोकप्रियता और उनकी काबिलियत को देखते हुए अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें मजदूरों के एक समूह का सरदार बना दिया। पहले गिरमिटिया मजदूर के तौर पर, और उसके बाद बीस वर्षों तक मजदूरों के सरदार के तौर पर वे अपने काम को करने के साथ ही सारे समूह को एकसाथ जोड़े रखने के लिए लगातार काम करते रहे। इस दौरान उनकी लेखनी भी नहीं रुकी। इसी के परिणामस्वरूप उनकी दोनों पुस्तकें- दोहा शिक्षावली और ज्ञान प्रकाश, क्रमशः सन् 1953 और 1954 ई. में तैयार हो गई थीं। उन दिनों सूरीनाम में हिंदी की पुस्तकों की छपाई भी बहुत कठिन रही होगी। इन पुस्तकों की छपाई आदि के संबंध में अधिक जानकारी तो नहीं मिलती, किंतु मुंशी रहमान खान द्वारा ‘ज्ञान प्रकाश’ में दिए गए विवरण से पता चलता है, कि उनकी ख्याति तत्कालीन राजपरिवार तक पहुँच चुकी थी, और रानी युलियान द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया था-
लेतरकेंदख स्वर्ण पद दीन्ह क्वीन युलियान ।
अजरु अमर दंपत्ति रहैं, प्रिंस देंय भगवान ।।
स्वर्ण पदक दूजो दियो मिल सन्नुतुल जमात ।
यह बरकत है दान की, की विद्या खैरात ।।
मुंशी रहमान खान ने इन दोनों सम्मानों का विस्तृत वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। उनकी तीसरी पुस्तक का नाम है- जीवन प्रकाश, जो उनकी आत्मकथा है। इस पुस्तक में चार खंड हैं। इसके पहले खंड में उन्होंने अपने गाँव और अपने परिवार का परिचय देते हुए भारत की साझी संस्कृति को बड़े रोचक तरीके से लिखा है। इस खंड में ही उन्होंने सूरीनाम तक की अपनी यात्रा और वहाँ गिरमिटिया मजदूरों के जीवन का विशद वर्णन किया है। दूसरे खंड में उन्होंने सूरीनाम में अपने काम के बारे में बताया है। इस खंड में उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों से हुए झगड़ों के बारे में, अंग्रेजों द्वारा उन्हें मजदूरों का सरदार बनाए जाने के बारे में और साथ ही अपने जीवन-संघर्षों के बारे में बताया है। तीसरे खंड में उनके विविध संस्मरण हैं, जिनमें सूरीनाम के बदलते हालात भी हैं, देश-दुनिया के तमाम बदलावों की बातें भी हैं, सूरीनाम में सशक्त-सक्षम होते गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी भी है, और साथ ही भारत में चलते स्वाधीनता आंदोलन की झलक भी है। सन् 1931 में सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में सूरीनाम नदी के किनारे डिजवेल्ड इलाके में उन्होंने अपना मकान बनवाया, जहाँ वे अपने पाँच बेटों के साथ रहने लगे। उनकी आत्मकथा के चौथे खंड में बदलते सूरीनाम की दुःखद तस्वीर यक्साँ है। इसमें धर्म और जाति के नाम पर शुरू होने वाले झगड़े हैं, जो मुंशी रहमान खान के लिए बहुत कष्टप्रद दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने सदैव जाति-धर्म के झगड़ों को दूर करके एकता की बात कही, मेल-मिलाप की बात कही। उनके लिए राम और कृष्ण का भारत सदैव पूज्य रहा। उनके लिए सभी भारतवंशी एक माँ की संतान की तरह रहे। इस कारण बाद के वर्षों में बदलती स्थितियों के कारण उन्हें बहुत कष्ट हुआ, जो उनकी आत्मकथा के चौथे हिस्से में खुलकर उभरता है।
भारत में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन की खबरें भी मुंशी रहमान खान तक पहुँचती रहती थीं। अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर, एक तरह से कालापानी की सजा भोगते हुए भी उनके लिए अपने वतन के प्रति लगाव था। वे भारतदेश को आजाद देखना चाहते थे। भारत की आजादी की लड़ाई दुनिया के दूसरे उपनिवेशों के लिए प्रेरणा का स्रोत थी। मुंशी रहमान खान की कविताओं में इसी कारण भारत की आजादी की लड़ाई की झलक दिखाई पड़ती है, देश के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के प्रति आस्था और सम्मान का भाव दिखाई देता है। इस सबके बीच वे अपनी बुंदेली बोली-बानी को भी नहीं भूल पाते हैं। उनकी दूसरी रचनाओं से कहीं अधिक बुंदेली की मिठास आजादी से संबंधित रचनाओं में उभरती है। एक बानगी-
नौरोजी, मिस्टर गोखले, गंगाधर आजाद,
मोतीलाल, पति, मालवी इनकी रही मर्याद,
इनकी रही मर्याद, बीज इनहीं कर बोयो,
भारत लह्यो स्वराज नाम गिरमिट का खोयो,
कहें रहमान कार्य शूरन के कीन्ह साज बिनु फौजी,
मुहम्मद, शौकत अली अरु चंद्र बोस, नौरोजी ।।
इन पंक्तियों में जहाँ एक ओर भारत की आजादी के आंदोलन के महानायकों का विवरण मिलता है, वहीं इन सेनानियों से प्रेरणा लेकर अपने देश को आजाद कराने का संदेश भी मुखर होता है। मुंशी रहमान खान सूरीनाम के गिरमिटिया मजदूरों को बड़ी सरलता और सादगी के साथ संदेश देते हैं, कि अब सूरीनाम ही हमारा वतन है। हमें इसको भी आजाद कराना है, और इसे आजादी दिलाने के लिए हमें भारत के स्वाधीनता सेनानियों से सीख लेकर गिरमिट या ‘एग्रीमेंट’ की दासता से मुक्त होना है।
सन् 1972 ई. में 98 साल की श्रीआयु पूरी करके मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में अपनी जीवन-लीला समाप्त की। वे भले ही सूरीनाम की आजादी नहीं देख पाए हों, किंतु उनके प्रयास निरर्थक नहीं गए। सूरीनाम की धरती पर अपने कदम रखने के बाद से ही जिस महामना ने सदैव लोगों को जोड़ने का, एकजुट होने का संदेश दिया; जिसने सदैव नीति-नैतिकता की शिक्षा दी, पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया, और फिर दुनिया में बदलते हालात के अनुरूप बदलते हुए सूरीनाम की आजादी की अलख जगाई, उसके प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की आस्थाएँ आज भी देखी जा सकती हैं। उन्हें सूरीनाम का राष्ट्रकवि माना जाता है। ऐसे महामना का संबंध जब बुंदेलखंड से जुड़ता है, तो असीमित-अपरिमित गर्व की अनुभूति होती है।
मुंशी रहमान खान अगर चाहते, तो पाँच साल का ‘एग्रीमेंट’ पूरा करके, गिरमिटिया का तमगा उतारकर अपने देश आ सकते थे, किंतु तमाम दूसरे गिरमिटिया मजदूरों की तरह वे नहीं आए। उन्होंने सूरीनाम को ही अपना देश मान लिया, वहाँ अपना परिवार बसाया। इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति को, बुंदेलखंड की संघर्षशील-कर्मठ-जुझारू धरती के गुणों को सूरीनाम में अपने निर्वासित साथियों के बीच पुष्पित-पल्लवित किया। इस कारण मुंशी रहमान खान भारतीय संस्कृति के, बुंदेलखंड की तहजीब के संवाहक हैं; सांस्कृतिक दूत हैं। मुंशी रहमान खान की तीसरी पीढ़ी सहित अनेक गिरमिटिया मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी आज सूरीनाम में फल-फूल रही है, और जिस आजादी को अनुभूत कर रही है, उसमें बहुत बड़ा योगदान बुंदेलखंड के इस बाँके नौजवान का है। हमें गर्व है, कि हमारी उर्वर बुंदेली धरा ने ऐसा हीरा उपजाया है।
(बुंदेली दरसन- 2019, बसारी, छतरपुर. मध्यप्रदेश में प्रकाशित)
राहुल मिश्र

Thursday 2 January 2020

फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...




फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...

मधुकरशाह महाराज की रानी कुँवरि गणेश ।
अवधपुरी से ओरछा लाई अवध नरेश ।।
सात धार सरजू बहै नगर ओरछा धाम ।
फूल बाग नौचौक में बैठे राजा राम ।।
तुंगारैन प्रसिद्ध है नीर भरे भरपूर ।
वेत्रवती गंगा बहै पातक हरै जरूर ।।
राजा अवध नरेश को सिंहासन दरबार ।
सह समाज विराजे, लिए ढाल तलवार ।।
आकाश में पूर्ण चंद्रमा की दूधिया चमक से आलोकित रामराजा मंदिर का प्रांगण.... चारों ओर जगमग करती रौशनियों को बीच तमाम भक्तगण संध्या आरती गा रहे हैं। कुछ भक्तगण दीपक हाथों में लिए रामराजा सरकार की आरती उतार रहे हैं, तो कुछ भक्तगण पुष्पदल को हाथों में लिए आरती की भाँति उतार रहे हैं। करतल ध्वनि के साथ भी कुछ रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित हैं। उधर रामराजा सरकार राजसी मुद्रा में विराजमान हैं; सह समाज, यानि माता जानकी, भ्राता लक्ष्मण और हनुमान के साथ। रामराजा का दरबार लगा हुआ है। द्वार पर रामराजा की ओर मुँह किये हुए सिपाही तैनात है, शस्त्र-सलामी की मुद्रा में....। रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित सारा जनसमूह भक्तिभाव से भरा हुआ है। सारा वातावरण भक्तिमय हो गया है। आरती के पूर्ण होते ही दरवाजे पर खड़ा सिपाही सलामी शस्त्र की अगली कार्यवाही करता है। उसके द्वारा सलामी देने के बाद रामराजा सरकार का दरबार आम लोगों के दर्शनार्थ खुल जाता है।
आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का महल हुआ करता था। रानी कुँवरि गणेशी बुंदेले राजवंश की दूसरी पीढ़ी में आने वाले राजा मधुकरशाह की ब्याहता थीं। ओरछा राज्य में जितना मान-सम्मान राजा मधुकरशाह को प्राप्त था, उतना ही मान रानी कुँवरि गणेशी जू को मिलता था। आज भी बुंदेलखंड की जनता के बीच ये कमल जू राजा कमलापति रानी के रूप में ख्याति पाते हैं। राजा मधुकरशाह जूदेव के पिता राजा रुद्रप्रताप सिंह गढ़कुंडार से ओरछा आए थे। उस समय वेत्रवती या बेतवा नदी के किनारे इस पूरे इलाके में भयंकर जंगल था। वैसे यह क्षेत्र अपने अतीत के साथ ही धर्म-अध्यात्म-साधना के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज के ‘तुंगारैन’, यानि ओरछा के वन-प्रांतर का पुराना नाम ‘तुंगारण्य’ था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे फैले घने जंगल में तुंग ऋषि का आश्रम था, ऐसी मान्यता है। कहा जाता है, कि राजा रुद्रप्रताप सिंह शिकार खेलते-खेलते तुंग ऋषि के आश्रम में पहुँच गए। बाद में तुंग ऋषि की प्रेरणा से उन्होंने ओरछा में नगर बसाने का प्रण लिया। वैसे पौराणिक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है, कि तुंगक नाम के एक पवित्र वन में दधीचिपुत्र सारस्वत ने अपने शिष्यों को वेद पढ़ाए थे। क्या पता, यह तुंगक वन या तुंगारण्य वही हो...।
कुल मिलाकर राजा रुद्रप्रताप सिंह को बेतवा के किनारे का यह भूभाग, विंध्य की तलहटी का यह क्षेत्र इतना भा गया, कि उन्होंने अपने वंशजों के लिए विक्रम संवत् 1588 की बैशाख शुक्ल पंद्रहवीं तिथि को ओरछा महल का शिलान्यास कर दिया। दुर्योग ऐसा रहा, कि उनके समय में निर्माणकार्य शुरू ही हो पाया था, और उनका देहांत हो गया। इसके बाद उनके पुत्र राजा भारतीचंद्र ने ओरछा राजमहल के निर्माणकार्य को पूरा कराया।
ओरछा दुर्ग के ठीक सामने फूलबाग था, जहाँ राजा भारतीचंद्र ने रनिवास के रूप में नौचौका महल बनवाया। इस महल को यह नाम भी नौ कमरों के कारण मिला। यह महल ओरछा के किले की लगभग हर खिड़की से दिखाई देता है। बुंदेली स्थापत्यकला के इस अनूठे प्रतीक के आबाद होते-होते राजा भारतीचंद्र भी इस दुनिया से चल बसे।
राजा भारतीचंद्र के अनुज मधुकरशाह जू देव को संवत् 1611 में ओरछा की राजगद्दी मिली। उन्होंने आसपास के तमाम जागीरदारों को इकट्ठा करके ओरछा राज्य की विधिवत् स्थापना की। राजा मधुकरशाह के समय दिल्ली में हुमायूँ का शासन था। मुगलों के कई आक्रमणों का उन्होंने मुँहतोड़ जवाब दिया। हुमायूँ और अकबर, दोनों ही राजा मधुकरशाह को अपने कब्जे में नहीं ले पाए। राजा मधुकरशाह जितने वीर थे, उतने ही सौंदर्यप्रेमी और कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने ओरछा दुर्ग का विस्तार किया और साथ ही नौचौका महल को व्यवस्थित कराने के बाद अपनी ज्येष्ठ रानी कुँवरि गणेशी जू को सौंप दिया। इस तरह आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का निवास-स्थान बना था।
रानी कुँवरि गणेशी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं। वे श्रीराम की उपासक थीं। राजा मधुकरशाह भी वैष्णवभक्त थे। वे कृष्ण के उपासक थे और राधावल्लभ संप्रदाय में उनकी विशेष आस्था थी। इस कारण वे जुगुलकिशोर जी के मंदिर में कृष्ण की सखी बनकर नृत्यगान किया करते थे। एक छोर पर राजा मधुकरशाह की कृष्णभक्ति थी, तो दूसरे छोर पर रानी कुँवरि गणेशी की रामभक्ति थी। हालाँकि दोनों की आस्थाएँ एक-दूसरे से टकराती नहीं थीं, लेकिन एक दिन बात बिगड़ ही गई। रानी ने कहा, कि आप सखी बनकर मंदिर में नृत्य करते हैं। मंदिर में तमाम लोग आते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। आप नारी रूप धारण करके प्रजा के सामने नृत्य करने में लीन हो जाते हैं। इससे राजकीय सम्मान और मर्यादा का उल्लंघन होता है। प्रजा पर भी इसका अच्छा असर नहीं पड़ता होगा। राजा मधुकरशाह को रानी की बात चुभ गई। इस पर राजा मधुकरशाह ने कृष्ण की सोलह कलाओं का वर्णन किया, तो रानी ने राम के मर्यादापुरुषोत्तम रूप की दुहाई दी। कुल मिलाकर दो भक्तों का भक्तिभाव आपसी टकराव का कारण बन गया।
नौचौका महल भी उस दिन दो भक्तों की रार-तकरार का साक्षी बना होगा, जिसने इतिहास के पन्नों में अमिट रेख खींच दी। राजा मधुकरशाह ने रानी कुँवरि गणेशी से वृंदावन चलने को कहा। रानी ने अयोध्या चलने की जिद मचाई। राजा मधुकरशाह ने बड़े गुस्से में कहा, कि- “जौ रामजी की एँसई भगत हौ सो अपुने राम को साथई लेके आईयो। नोंई हमखों आपुनो मुँह ना दिखाईयो।” रानी ने भी गुस्से में कहा, कि- “अगर मैं रामजी को अपने साथ न ला पाई, तो मैं लौटकर नहीं आऊँगी, अपना मुँह भी आपको नहीं दिखाऊँगी।” राजपरिवार के गुरु गोस्वामी हरिराम व्यास भी इनके झगड़े को सुलझा नहीं पाए। उन्होंने रानीजू को बहुत समझाया, मगर रानीजू नहीं मानीं। राजा मधुकरशाह भी अपनी जिद पर अड़े रहे। आखिरकार राजा साहब ने वृंदावन का रास्ता पकड़ लिया, और रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या की तरफ चल पड़ीं। यह ऐतिहासिक घटना आज भी लोककंठों में जीती है-
रामभक्त बुंदेलवंश में हो गई ऐसी छत्रानी, नगर ओरछा की रानी ।
मधुकरशाह बुंदेलवंश में राजा भये ऐसे दानी, नगर ओरछा रजधानी ।।
राजा बोल उठे कर हाँसी, भारी प्रेम बान की गाँसी ।
कैसी भक्तिन हो गई रानी, लौटियो बिठा गोद सुखरासी ।।
रानी बोली पतिव्रता मैं, पति की सत्य करौ वानी, नगर ओरछा की रानी ।.....
राजा मधुकरशाह तो वृंदावन पहुँच गए, और अपने लाड़लीलाल मदनमोहन जुगुलकिशोरजू की भक्ति में रम गए, लेकिन रानी कुँवरि गणेशी के लिए अयोध्या पहुँचने के बाद जीवन-मरण का संकट ही आ गया था। विक्रम संवत् 1630 की आषाढ़ शुक्ल 12वीं तिथि को रानी कुँवरि गणेशी ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया था। अयोध्या पहुँचने के बाद वे किस मुँह से ओरछा को वापस लौटेंगी, यह चिंता रानी को सताने लगी। वे सरयू नदी के किनारे बैठकर रामनाम स्मरण करने लगीं। उनकी साधना दिनों-दिन कठिन से कठिनतम होती गई, लेकिन राजा साहब के वचन को पूरा करने का रास्ता उन्हें नहीं सूझा। अंततः रानी कुँवरि ने तय किया, कि वे सरयू में अपने प्राण त्याग देंगी। कहा जाता है, कि ऐसा विचार करके उन्होंने तीन बार सरयू में छलाँग लगाई, लेकिन हर बार वे किनारे पर आ जाती थीं। चौथी बार जब उन्होंने सरयू में छलाँग लगाई, तो उनकी गोद में श्रीराम का विग्रह आ गया।
लोकजीवन में प्रचलित इस घटना के साथ जुड़ी कथा में प्रसंग आता है, कि रानी कुँवरि गणेशी ने रामलला से ओरछा चलने को कहा। रामलला ने कहा, कि मैं अयोध्या छोड़कर ओरछा कैसे चला जाऊँ? मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा परिवार है। सीता, लक्ष्मण और हनुमान हैं। आप तो मुझ अकेले को ही लेने आईं थीं। रानी ने कहा, कि आप पूरे परिवार सहित चलिये। राम ने पूछा, आप मुझे ओरछा क्यों ले जाना चाहती हैं? रानी ने कहा- हम आपको ओरछा का राजपाट सौंपना चाहते हैं। राम ने कहा, कि हम ओरछा तो चल देंगे, किंतु हमारी पहली शर्त यह है, कि हम पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करेंगे। दूसरी शर्त है, कि हम दिन में ओरछा में रहेंगे और रात्रि में अयोध्या आ जाएँगे। तीसरी शर्त यह है, कि ओरछा की सीमा में हमें जिस स्थान पर बैठा दिया जाएगा, हम वहाँ से किसी दूसरे स्थान पर नहीं जाएँगे। रानी ने कहा, कि हमें आपकी सभी शर्तें स्वीकार हैं।विक्रम संवत् 1630 की श्रावण शुक्ल पंचमी को हुई इस घटना की खबर न केवल अयोध्या में, बल्कि ओरछा तक फैल गई। राजा मधुकरशाह भी रानी कुँवरि के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने तुरंत ही एक विशाल मंदिर का निर्माण ओरछा में शुरू करा दिया। राजा साहब की इच्छा थी, कि मंदिर ऐसे स्थान पर बने, कि राजमहल से सीधे दर्शन किये जा सकें। इसके साथ ही मंदिर का स्थापत्य एकदम अनूठा और अद्वितीय हो। इसके लिए राजा मधुकरशाह ने बुंदेला स्थापत्य के साथ ही नागर, द्राविड़ और मामल्य स्थापत्य शैली के कलाकारों को आमंत्रित किया और इन शैलियों के मिले-जुले रूप के साथ भव्य मंदिर के निर्माण का काम शुरू हो गया। आज रामराजा मंदिर के बगल में जिस भव्य चतुर्भुज मंदिर को हम देखते हैं, यह वही मंदिर था, जो रामराजा के लिए राजा मधुकरशाह ने बड़ी आस्था और भक्ति के साथ बनवाया था।
दूसरी तरफ रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या से श्रीराम के विग्रह को लेकर चलीं। शर्त के अनुसार उन्हें पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करनी थी, और दिन में ही पैदल यात्रा करनी थी। इस कारण रानी को ओरछा पहुँचने में लगभग 08 माह, 27 दिन का समय लग गया। इतनी अवधि में बहुत तेजी के साथ काम करते-करते भी मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हो पाया। पूरी तरह से मंदिर तैयार हो जाए, तब तक रामराजा को नौचौका महल में ही विश्राम कराया जाए, ऐसा विचार करके रानी उन्हें अपने साथ अपने नौचौका महल में ले गईं। रानीजू ने अपने आराध्य श्रीराम को भोजन कराने के लिए रसोईघर में बैठा दिया। इसके बाद तो रामराजा वहाँ से उठे ही नहीं। आज जिस स्थान पर रामराजा विराजमान हैं, वह रनिवास का रसोईघर हुआ करता था। मंदिर बनकर तैयार हो जाने के बाद भी रामराजा उस स्थान से नहीं हिले। वहीं पर उनका ओरछा के राजा के रूप में राज्याभिषेक भी हुआ। ओरछा ही नहीं, समूचे बुंदेलखंड में यह सारी घटना लोकजीवन में रच-बस गई।
लोग आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा के भाव से गाते हैं-
“मधुकरशाह नरेश की रानी कुँवरि गणेश, पुक्खन-पुक्खन लाई हैं ओरछे अवध नरेश ।”
“बैठे जिनकी गोद में मोद मान विश्वेश, कौशल्या सानी भईं रानी कुँवरि गणेश ।”
जनआस्था रानी गणेश कुँवरि को माता कौशल्या का, और राजा मधुकरशाह को राजा दशरथ का अवतार बना देती है। श्रीराम के जीवन में पुष्य नक्षत्र का विशेष योग रहा है। उन्होंने इसी नक्षत्र में अपना कमल रूपी नयन शिव को अर्पित किया था, ऐसा भी माना जाता है। इस कारण पुष्य नक्षत्र को बहुत पुनीत-पावन माना जाता है। इसी कारण ओरछा के लिए पुष्य नक्षत्र धार्मिक पर्व के समान महत्त्व-माहात्म्य रखता है।
रामराजा ओरछा के राजा हैं, इस कारण उनका वैभव भी राजसी है। इस मंदिर में श्रीराम का विग्रह अन्य राममंदिरों से अलग है, क्योंकि यहाँ राम राजसी मुद्रा में बैठे हुए हैं। उनकी आरती का समय भी एकदम निश्चित है, जिसे किसी भी दशा में बदला नहीं जा सकता। पिछले लगभग साढ़े चार सौ वर्षों से घड़ी की सुई देखकर इतने नियमित तरीके से रामराजा सरकार की आरती होती है, कि आरती के समय से आप अपनी घड़ी मिला सकते हैं। रामराजा सरकार ओरछा के राजा हैं, इस कारण ओरछा की सीमा के अंदर अन्य किसी को भी सलामी नहीं दी जाती है, भले ही वह अतिविशिष्ट पदधारी व्यक्ति क्यों न हो। सन् 1887 ई. के बाद लगभग समूचा बुंदेलखंड ‘यूनियन जैक’ के अधीन आ गया था। इसके साथ ही ओरछा राज्य को 17 तोपों की सलामी का अधिकार दिया गया था। यह सलामी भी ओरछा के किसी राजा को नहीं, बल्कि रामराजा सरकार को ही मिलती थी। आजादी के बाद राज्यों-रियासतों के भारत संघ में विलय के बाद राजवंशों को मिलने वाली सलामी समाप्त हो गई थी, लेकिन ओरछा राज्य में रामराजा को सलामी आज भी दी जाती है।
बुंदेलखंड के लोगों को आज भी इस बात का गर्व है, कि अयोध्या ने श्रीराम को वनवासी बना दिया, लेकिन हमने उन्हें राजपाट दिया है। आज भी लोग बड़े गर्व के साथ गाते हैं-
“अवध की रानी ने तो वनवासी बनाए राम, पर मधुकर की रानी ने रामराजा बनाए हैं ।”
यह गर्व का भाव लोकगीतों और लोककथाओं में ही नहीं, बल्कि बुंदेलखंड के चरित्र में, रानी कुँवरि गणेशी-महाराजा मधुकरशाह के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी रचा-बसा हुआ है। जिस समय देश के बड़े हिस्से में मुगलों का शासन था; उस समय असुरक्षा, आतंक, अन्याय, अत्याचार और अराजकता से भरे माहौल में देश की निरीह जनता का नेतृत्व करने के स्थान पर, उसे मार्गदर्शन देने की जगह राजशक्ति या राजे-रजवाड़े आपसी कलह और अंतर्द्वंद्व से जूझ रहे थे। हिंदी साहित्य का भक्तियुग (संवत् 1375 से संवत् 1700 विक्रमी तक) अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभा रहा था। भक्तकवि जनता को राह दिखाने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे जटिल समय में, जबकि तमाम राजाओं-राजपरिवारों के लिए स्वयं के अहं की तुष्टि और व्यक्तिगत स्वार्थ ही महत्त्वपूर्ण हो गए थे, उस समय एकमात्र ओरछा राज्य का राजपरिवार ही ऐसा था, जिसने राम को राजा बनाकर समाज को नीति-नैतिकता और आदर्शों पर चलने का रास्ता दिखाया था। जटिल, विषम और संघर्षपूर्ण स्थितियों के बीच महाराजा मधुकरशाह अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव के साथ डटकर खड़े हुए थे। उनको मिली टीकमशाह की उपाधि इसकी साक्षी है।
ओरछा राजमहल में एक धुँधला-सा भित्तिचित्र आज भी राजा मधुकरशाह की वीरता और उनके आत्मसम्मान की गौरवगाथा कहता है। इस चित्र में अकबर का दरबार लगा हुआ है। आसपास कुछ कुत्ते जीभ निकाले हुए खड़े हैं, और उनके बीच में महाराजा मधुकरशाह अपनी तलवार निकाले हुए तनकर खड़े हैं। कहा जाता है, कि अकबर ने एक बार यह राजाज्ञा निकाली, कि उसके दरबार में कोई भी दरबारी-सामंत तिलक लगाकर, माला पहनकर नहीं आएगा। राजा मधुकरशाह ने बुंदेलखंड के राजाओं-सामंतो से कहा, कि वे अपमानित करने वाली इस राजाज्ञा का बहिष्कार करें। सभी ने इसके लिए सहमति तो दे दी, लेकिन वे डर के कारण सूने माथे के साथ दरबार में पहुँच गए। दूसरी तरफ राजा मधुकरशाह नाक की नोक से माथे तक लंबा तिलक लगाकर पहुँचे। अकबर के द्वारा अवमानना का कारण पूछने पर वे तलवार निकालकर खड़े हो गए। उनकी निर्भीकता और साहस को देखकर दूसरे राजा और सामंत भी राजा मधुकरशाह के समर्थन में खड़े  हो गए। स्थिति को बदलते देख अकबर ने कहा, कि आपके धर्मपालन और आपकी निर्भीकता को देखकर मैं बहुत प्रभावित हूँ। तब से राजा मधुकरशाह को टीकमशाह की उपाधि मिल गई और बुंदेलखंड में मदुकरशाही तिलक का नया चलन भी शुरू हो गया। टीकमगढ़ नगर के अस्तित्व में आने की कहानी भी इसी प्रसंग से जुड़ी हुई है।
मुगलों के लिए बुंदेला शासकों को कब्जे में लेना आसान नहीं था। इस कारण वे मजबूरी में मैत्री-भाव रखते थे, और अंदर ही अंदर ईर्ष्या का भाव रखते थे। महाराजा मधुकरशाह और उनके पुत्र राजा वीरसिंह जू देव के शासनकाल में ओरछा राज्य को अपने कब्जे में लेना मुगलों के लिए संभव नहीं रहा। जिस समय शाहजहाँ आगरा की गद्दी पर बैठा, उस समय राजा वीर सिंह के पुत्र जुझार सिंह ओरछा के राजा थे। जुझार सिंह की स्वतंत्रता शाहजहाँ की आँखों में खटकती थी, लेकिन जुझार सिंह को जीत पाना उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए उसने छल-छद्म का सहारा लिया। राजा जुझार सिंह के अनुज दिमान हरदौल बहुत वीर और पराक्रमी थे। उन्होंने अपने विश्वस्त सैनिकों की बुंदेली सेना बना रखी थी, जो हर समय उनके साथ रहती थी, और मुगलों के हर आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब देती थी। राजा जुझार सिंह अकसर ओरछा से बाहर रहते थे। इसका लाभ उठाकर उनके दोगले सरदार हिदायत खाँ ने दिमान हरदौल और रानी चंपावती के बीच देवर-भाभी के पवित्र संबंध पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। राजा जुझार सिंह हिदायत खाँ की चाल को समझ नहीं पाए और अपनी रानी चंपावती से सतीत्व की परीक्षा देने के लिए दिमान हरदौल को विष पिलाने की जिद पर अड़ गए। रानी चंपावती ने बहुत समझाया, लेकिन राजा जुझार सिंह टस से मर नहीं हुए। अंततः दिमान हरदौल ने विषपान करके मर्यादा, नैतिकता की अनूठी मिसाल कायम की।
दिमान हरदौल के व्यक्तित्व ने बुंदेलखंड के लोकजीवन में ऐसी अमिट छाप छोड़ी, कि आज भी उनके नाम के चबूतरे हर गाँव में मिलते हैं। पवित्र संबंधों की दुहाई देने के लिए, मर्यादित-संयमित-वीरत्व से पूर्ण जीवन को स्मरण करने के लिए शादी-विवाह-शुभकार्यों का पहला निमंत्रण भी दिमान हरदौल को दिया जाता है। दिमान हरदौल का बैठका रामराजा मंदिर के बाईं ओर है। लोग उनको स्मरण करते हुए आज भी गाते हैं- “बुंदेला देसा के हो, लाला प्यारे भले हैं लछारेओ ना।” बुंदेलखंड के प्यारे लाला हरदौल को कभी न भुलाने, कभी ना छोड़ने की बात करते ये ‘हरदौल के गीत’ ओरछा ही नहीं, सारे बुंदेलखंड की अनूठी पहचान गढ़ते हैं।
चतुर्भुज मंदिर, रामराजा सरकार का नौचौका महल, और हरदौल का बैठका एक क्रम के साथ ओरछा नगरी में स्थापित हैं। विशालकाय-भव्य चतुर्भुज मंदिर को छोड़कर रानी कुँवरि गणेशी के महल में विराजने वाले रामराजा देवत्व को तजकर नरश्रेष्ठ के रूप में मर्यादा-नैतिकता-आदर्श जीवन की पराकाष्ठा को लेकर नौचौका महल में विराजते हैं। राजा के रूप में प्रतिष्ठित मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का सामान्य मानव के रूप में, हमारे अपने जैसे लोगों के बीच में मर्यादित-संस्कारित, नीति-नैतिकतापूर्ण, वीरत्व-नायकत्व से विभूषित जीवन का उत्कृष्ट साक्ष्य हरदौल के रूप में उपस्थित होता है। इस कारण हरदौल बैठका जीवंत तीर्थ की प्रतिष्ठा को पाता है। यही सब मिलकर ओरछा के, समूचे बुंदेलखंड के चरित्र को गढ़ता है। इसी कारण ओरछा के कण-कण में तीर्थ रमता है, बसता है। ओरछा निवासी राकेश अयाची जी  के शब्दों में-
मधुकरशाह श्रेष्ठ राजा थे कुँवरि गणेशी रानी ।
राजा रामचंद्र की प्रतिमा जिनकी अमर निशानी ।।
देवतुल्य हरदौल लला थे सच्चे प्रेम पुजारी ।
जिनके कारण पूजा होती घर-घर आज तुम्हारी ।।
किसी देव से निम्न नहीं है कण-कण पूज्य तुम्हारा ।
धन्य-धन्य है श्रेष्ठ ओरछे, शत-शत नमन हमारा ।।

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी, अमृतसर, पंजाब द्वारा प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिकी- बरोह के जून, 2019 अंक में प्रकाशित, संपादक- डॉ. शुभदर्शन)
डॉ. राहुल मिश्र