क्या सचमुच रावण जल गया?
हर साल
दशहरा आता है। दशहरा विजयादशमी भी है, राम की रावण पर विजय का पर्व भी है। राम
मर्यादापुरुषोत्तम हैं और रावण बुराइयों का प्रतीक है। असली रावण को तो असली राम
ने केवल एक ही बार मारा था, शायद पहली और आखिरी दफ़े, लेकिन उसके बाद समाज के
ठेकेदार स्वयं को विशुद्ध रूप से राम समझते हुए रावण का पुतला जलाते चले आए हैं।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि असली रावण तो जला ही नहीं है, साहित्य की भाषा
में इसे आत्मसंतुष्टि कह दिया जाता है और लोकरीतियों की भाषा में रस्म अदायगी,
क्योंकि असली रावण तो दिल में घुसा बैठा है, अंतरात्मा में भी समा गया है और कुछ
महान लोगों की तो नस-नस में रावण समाया हुआ है।
समाज में रावण को कोई नहीं पूजता
क्योंकि रावण तो दुराचारी था, घमण्डी था, अत्याचारी था। इसीलिये मर्यादापुरुषोत्तम
राम ने मर्यादा की स्थापना के लिये रावण का वध किया था। लेकिन आज क्या हम अपने
अंदर छिपे रावण का वध कर पाते हैं, संभवतः नहीं, क्योंकि आज हमारे अंतस् में
मर्यादा स्थापित करने की शक्ति, कुरीतियों और बुराइयों से लड़ने की सामर्थ्य और
अन्याय का विरोध करने की शक्ति नहीं रह गई है। क्या यह रावण के लक्षण नहीं हैं,
जिन्हें हम नहीं छोड़ सके लेकिन रावण का पुतला जरूर जला दिया।
रावण तो तब भी लाख गुना अच्छा हो
सकता है। कम से कम उसने अपने देश के लिये स्वयं को आहूत कर दिया। लेकिन आज तो पीठ
पीछे छुरा घोंपने और छल-कपट की नीति चारों ओर चल रही है। दूसरी ओर राम हैं और धर्म
है। रामायण काल में केवल एक ही धर्म था, उस धर्म की आड़ में उस समय भी समाज के
अनेकों स्वार्थों की पूर्ति होती थी। चाहे इस तथ्य को भरत के राज्याभिषेक के
उदाहरण से तौल लें या फिर शम्भूक के वध से, वैसे शूर्पणखा के नाक-कान काट लेना भी
इस तथ्य का एक ज्वलंत उदाहरण हो सकता है।
आज कई धर्म और सम्प्रदाय हैं।
सभी के अनुयायी अपने धर्म की आड़ में न जाने कितने स्वार्थ पूरे करते हैं। चाहे वह
रामजन्मभूमि-बाबरी मसजिद का विवाद हो या ईसाई धर्मान्तरण की बात हो, पूरा देश
जातिवाद और साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है। लोग देश-काल-समाज की मर्यादा को
भूलकर अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में लगे हैं। देश का नेतृत्व करने वाले
नेतागण इस आग में राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे हैं। यह वास्तविकता है, यह यथार्थ
है, जिसे सबकी अंतरात्मा स्वीकार करती है, फिर भी अगले व्यक्ति के समक्ष स्वयं को
हम मर्यादापुरुषोत्तम राम की तरह प्रदर्शित करते हैं। तब शायद इस तथ्य को नहीं
नकारा जा सकता है कि राम के आवरण में रावण आज भी जीवित है। वह जला नहीं है, वह मरा
भी नहीं है। वह तो आज भी अपना काम करता ही जा रहा है;
गरीबों-मजलूमों को सताकर, दूसरे की वस्तु पर अपना हक़ जमाकर, सरकारी योजनाओं को
पचाकर, राष्ट्रीय और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाकर, विभिन्न राष्ट्रीय
करों की चोरी करके और इसी तरह के अनेक किस्म के कुकृत्य करते हुए। बदली हैं केवल
समय के अनुरूप परिस्थितियाँ। तब का रावण कायर नहीं था, डरपोक भी नहीं था, आज का
रावण शक्ल छुपाकर सामने खड़ा है। समाज की मर्यादा और राम के राज्य को चुनौती देते
हुए अट्टहास कर रहा है। तमाम विभीषण, तमाम अबला सीताएँ और तमाम रामभक्त
प्रतीक्षारत हैं कि मर्यादापुरुषोत्तम राम आवें और रावण का वध करके मर्यादा को
पुनर्स्थापित करें।
डॉ. राहुल मिश्र