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Friday 9 June 2023

निर्मल मन जन सो मोहिं पावा

 


निर्मल मन जन सो मोहिं पावा

इदं    तु     ते     गुह्यतमं    प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।

राजविद्या       राजगुह्यं      पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्यक्षावगमं    धर्म्यं    सुसुखं   कर्तुमव्ययम् ।।2।।

श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय के प्रारंभ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मध्य संवाद होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! तुम दोष-दृष्टि से रहित मेरे परम भक्त हो, इसलिए इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञान से परिपूर्ण है, तुमसे भली-भाँति कहूँगा। इस ज्ञान को जानकर तुम इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो जाओगे। विज्ञान से परिपूर्ण यह ज्ञान सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है, सभी रहस्यों का रहस्य है, अत्यंत पवित्र और उत्तम है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष फल देने वाला और धर्म से युक्त है। इस ज्ञान की साधना बहुत सरल है और इस ज्ञान का विनाश कभी नहीं होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान, धर्म, भक्ति, शरणागति और योग आदि को बताने से पहले इनकी गोपनीयता, रहस्यमयता और इनके गूढ़ होने की ओर संकेत करते हैं। भक्ति, विज्ञान और नीति से जुड़े तत्त्वों का समग्र ज्ञान स्वयं में रहस्य से पूर्ण होता है और भक्ति, ज्ञान, तर्क या फिर नीति में से किसी एक के होने मात्र से ही इस रहस्य को नहीं जाना जा सकता। इसके लिए सर्वांगपूर्ण होना आवश्यक है। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु उपयुक्त पात्र जानकर ही उसे इसका उपदेश दिया। वह भी तब, जब उसने इसे जानने की अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट की।

इस ज्ञान के अव्यय-भाव की ओर भी श्रीकृष्ण संदेश देते हैं-

इमं    विवस्वते    योगं  प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मन्वे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।1।।

एवं     परम्पराप्राप्तमिमं     राजर्षयो  विदुः ।

  कालेनेह  महता  योगो  नष्टः परंतप ।।2।।

मैंने इस अविनाशी योग का वर्णन सूर्य से किया था। सूर्य ने इसे अपने पुत्र वैवस्वत मनु से बताया और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया। हे परंतप अर्जुन! इस तरह परंपरा से प्राप्त इस अव्यय ज्ञान को राजर्षियों ने जाना और उसके बाद यह ज्ञान धरती पर बहुत समय तक लुप्तप्राय ही रहा। अब तुमको यह ज्ञान देकर सनातन परंपरा को पुनः स्थापित करूँगा।

श्रवण के माध्यम से गूढ़ रहस्य-ज्ञान के संचरण की परंपरा तुलसी के श्रीरामचरितमानस में भी है। राम-चरित के रचयिता भगवान शिव से भगवती पार्वती, महर्षि लोमश, लोमश ऋषि से काकभुशुंडि, काकभुशुंडि से याज्ञवल्क्य और याज्ञवल्क्य से महर्षि भरद्वाज ने रामकथा को सुना। यह रामकथा तुलसीदास ने सूकरखेत में अपने गुरु से सुनी। इस रामकथा को बाबा तुलसी ने जनसामान्य की भाषा में सरल, सहज, सुगम और सुबोध ढंग से लिखा, जो श्रीरामचरितमानस के रूप में पूर्ण हुई।

काल की गति को मापने वाली वृहदतम इकाइयों तक विस्तृत गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण विपुल ज्ञानराशि के प्रतिनिधि- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस इसी कारण सामान्य-से और साधारण-से धर्मग्रंथ-मात्र नहीं हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आराधक और आराध्य के संवाद हैं, एक जिज्ञासु की जिज्ञासाएँ और उनके समाधान हैं तथा विषय का सम्यक्, सर्वांग निरूपण है। इस कारण गीता के अनुशीलन में विद्वानों को भटकना नहीं पड़ता है। इसके विपरीत श्रीरामचरितमानस में राम के चरित्र के सहारे और रामकथा के अन्य पात्रों के माध्यम से बाबा तुलसी ज्ञान के गूढ़ रहस्य को स्थापित करते हैं।

मानस के प्रारंभ में ही बाबा तुलसी अपनी विनम्रता प्रकट करने के साथ ही रामकथा के गूढ़ तत्त्व की विवेचना करते हैं-

श्रोता    बकता    ग्याननिधि   कथा   राम   कै  गूढ़ ।

किमि समुझौं मैं जीव जड़, कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ।।1/30 (ख)।।

बाबा तुलसी की यह आत्मस्वीकार्यता रामचरित की गुह्यता और उसकी रहस्यमयता को स्पष्ट करने में सक्षम है। अपने विवेक से, अपने आत्मबोध से और अपनी सामर्थ्य से बाबा तुलसी रामकथा के गूढ़ तत्त्वों को जितना समझ पाए थे, वह भी उन्हें पर्याप्त नहीं लगा था और भ्रम में पड़ जाने का संदेह भी उन्हें था; संभवतः इसी कारण उन्होंने रामकथा को गूढ़ कहकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया होगा। दूसरी ओर, कलिकाल की मूढ़ता से ग्रस्त अज्ञानी और जड़ जीव के लिए रामकथा को उसके वास्तविक अर्थ में ग्रहण कर पाने, समझ पाने की कठिनतम स्थितियों को भी बाबा तुलसी ने बड़ी सरलता के साथ स्पष्ट कर दिया था।

बाबा तुलसी का मानस आमजन के लिए, आम लोगों की भाषा में, समग्र लोकसंस्करण की भूमिका में है। वाल्मीकि रामायण, आनंद रामायण, अध्यात्म रामायण और ऐसे ही अनेक क्लिष्ट महाग्रंथों के रस-संचयन के उपरांत, सगुण-निर्गुण ब्रह्म के लोक में निरूपण के उपरांत तुलसी का यह लोकमहाकाव्य कहीं लोकरंजन की वस्तु-मात्र बनकर न रह जाए, ऐसी चिंता तुलसी के मन में बार-बार उठती रही; और इसी के फलस्वरूप वे राम की कथा को गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण कहकर इसके आध्यात्मिक, पारमार्थिक महत्त्व को स्थापित करने का निरंतर प्रयास करते रहे। यह प्रयास उस परंपरा का भी अंग था, जो श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को उपदेश देने से पहले निभाई गई थी।

जिस ज्ञान, विज्ञान, भक्ति, शरणागति के साथ विश्वकल्याण की, मानवता के उद्धार की, समाज के सच्चे-सात्विक विकास की अवधारणा जुड़ी हो और जो ज्ञान मोक्ष या मुक्ति या निर्वाण जैसी स्थितियों की प्राप्ति का माध्यम हो, उसे सामान्य या प्रचलित पद्धति में न तो बताया जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता है। ऐसे ज्ञान को ग्रहण करने के उपायकर्त्ता की पात्रता के विषय में चिंतित होना अत्यंत सामान्य बात है। इसी चिंता के कारण ज्ञान को बाँटने से पहले उसकी गुह्यता का, उसके रहस्य और गूढ़ता का वर्णन करके ज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया जाना अनिवार्य बन जाता है। तुलसीदास जैसा विलक्षण और क्रांतिदृष्टा संत स्वयं को ‘जीव जड़’ और ‘कलिमल ग्रसित बिमूढ़’ कहकर अपनी अपात्रता को बताने का प्रयास करता है। यह भले ही उनकी विनम्रता हो, मगर इस कथन में निहित भाव को गूढ़-गुह्य ज्ञान की महत्ता के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित होगा।

गूढ़ता, गुह्यता, रहस्यमयता और अर्थ-सघनता के प्रति बाबा तुलसी का आग्रह उस तत्त्व को स्थापित करने के आशय से है, जो सांसारिक दुःखों-कष्टों, वेदनाओं, विकारों के त्रिस्तरीय परिहार के लिए अत्यंत आवश्यक है। जब उस तत्त्व की स्थापना समाज में हो जाती है, जब रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से, त्रिस्तरीय बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही तो रामराज्य की विशेषता है-

दैहिक, दैविक भौतिक तापा । रामराज्य नहिं काहिहु व्यापा ।।

रामराज्य पर महात्मा गांधी ने भी बहुत जोर दिया है। जब रामराज्य की स्थापना और उसकी अवधारणा की चर्चा होती है, तब अनेक चिंतक-विचारक धार्मिक संकीर्णता के छद्म आवरण में अवरुद्ध होकर  धर्मविशेष-मात्र की प्रभुसत्ता या वर्चस्व को देखने लगते हैं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन-दर्शन को, अपने अनुभवों को, और भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व के कल्याण के हेतु अपने विचारों को ‘हिंद स्वराज’ में संकलित कर दिया है। ‘हिंद स्वराज’ गांधी दर्शन का सार है। इसमें रामराज्य की अवधारणा है, इसकी स्थापनाएँ हैं। इसमें बाबा तुलसी और बापू के राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जिसमें त्रिविध तापों को दूर करने की क्षमता निहित है। इसमें राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जो व्यष्टि से लगाकर समष्टि तक कल्याण की सामर्थ्य रखता है। बापू जीवन-पर्यंत इस राम तत्त्व की साधना करते रहे। उनके जीवन का अंतिम उद्गार भी ‘हे राम!’ था। बापू के राम किसी धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय-विशेष के राम नहीं थे। इसी कारण उनके व्यक्तित्व का विस्तार सारे संसार में आज भी है।

बापू के राम, बाबा तुलसी के राम और उनकी गूढ़ कथा को समझने के लिए राम के त्रिविध स्वरूप को, और राम की त्रिस्तरीय भूमिका को जानना आवश्यक होगा। गूढ़ता, गुह्यता और रहस्यमयता यही है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी । और निर्मल मन जन सो मोहिं पावा, मोहिं कपट छल छिद्र न भावा । आदि पंक्तियों के माध्यम से बाबा तुलसी राम के गूढ़, गुह्य और पारमार्थिक कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति की पात्रता को स्पष्ट करते हैं। जो इस पात्रता को पूरा नहीं कर पाता, वह राम के स्वरूप को, राम तत्त्व को एकांगी-एकपक्षीय देखता और जानता-समझता है। वह भ्रम में पड़ जाता है। तब या तो वह कट्टर धार्मिक हो जाता है, या फिर कट्टर अधार्मिक बनकर रह जाता है।

राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य मानव की भाँति सांसारिक क्रियाकलापों में विन्यस्त है। संसार के षड्यंत्रों, प्रपंचों, अपराधों, कुकर्मों और आसुरी प्रवृत्तियों से जूझता और परास्त करता राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य और सहज बुद्धि वालों के लिए सुग्राह्य बन जाता है। लोक में राम की लीला राम के प्रति भक्तिभाव को जन्म देती है। आधिदैविक राम तत्त्व विष्णु का अवतार है, शिव का आराध्य है, इसलिए पूज्य है। नारायण की नर-लीला भक्ति में नया आयाम जोड़ती है। आधिदैविक राम तत्त्व से आधिभौतिक राम तत्त्व पुष्ट होता है, इस कारण सांसारिक क्रियाकलाप, असुरों का संहार और ऐसे अन्यान्य क्रियाकलाप बड़े चमत्कारिक ढंग से कुशलतापूर्वक संपन्न होते हैं। बाबा तुलसी के मानस में यह पक्ष तुलसी की राम के प्रति अनन्य भक्तिभावना के कारण पुष्ट होती है, जबकि वाल्मीकि रामायण में राम का आधिदैविक तत्त्व सामान्य मानव के अधिक समीप का दिखता है। राम का आध्यात्मिक तत्त्व ऐसे उत्कृष्टतम स्तर पर है, जिसने राम को मर्यादा की स्थापना करने वाले उत्तम पुरुष की श्रेणी में स्थापित किया है। राम के आध्यात्मिक  तत्त्व में ही वह गूढ़ता, गुह्यता निहित है, जिसे निर्मल मन के बिना पाया नहीं जा सकता, जाना भी नहीं जा सकता। ऐसा निर्मल मन विभीषण का था। जीवरूपी विभीषण सांसारिक आसक्ति, कामना और वासना की प्रतिरूप लंका में मोह, लोभ, द्वेष, कपट आदि के बीच छटपटाता है। जब कभी उसका विवेक उसे वैराग्य रूपी हनुमान के माध्यम से उसे कामना रहित धर्म की, विकार रहित मर्यादा की, सच्ची मानवता की और नीति-आदर्श के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग सुलभ कराता है, तब उसकी परिणति राम की शरणागति के रूप में होती है।

राम का आधिभौतिक तत्त्व सार्थक और निष्काम कर्म के ज्ञान के प्रतीक महाराजा दशरथ और भक्तिस्वरूपा माता कौशल्या के माध्यम से उपजता है, जो विजय और विभूति की प्राप्ति के लिए जीवनपर्यंत धर्म का पालन करता है, मानवता की रक्षा करता है, जीवन के उच्चतम आदर्शों को, मर्यादाओं को स्थापित करता है; तथा यम-नियम रूपी दिग्पालों को मोहरूपी रावण से मुक्त कराकर मोक्ष का मार्ग दिखाता है। इस राम तत्त्व में परहित को धर्म से श्रेष्ठ और परपीड़ा को अधर्म से भी ज्यादा निकृष्ट बताकर जगत्कल्याण की जैसी भावना स्थापित की गई है; वह राम, अर्थात् मर्यादा और धैर्य, अर्थात् सीता के बिना संभव नहीं है।

मानस में अनेक स्थानों पर उपदेश देने के प्रसंगों के माध्यम से बाबा तुलसी ने राम के आध्यात्मिक तत्त्व की स्थापनाएँ की हैं। इसके साथ ही अज्ञान के अंधकार से आवृत्त जड़ जीव को ज्ञान का दीपक जलाकर तथा भक्ति की चिंतामणि को फेरकर शाश्वत प्रकाशपुंज का अंश बनने का उपदेश बाबा तुलसी उत्तरकांड में देते हैं।

राम का आध्यात्मिक तत्त्व राम और रावण के ऐतिहासिक या पौराणिक अस्तित्वमात्र को मानकर ही नहीं चलता, वरन् राम और रावण के शाश्वत स्वरूप को व्याख्यायित करता है। प्रत्येक मनुष्य में राम और रावण हैं। प्रत्येक मानव के आध्यात्मिक धरातल पर राम-रावण संग्राम भी चल रहा है। इस संग्राम का प्रतिफल मानव के कार्य-व्यवहार, आचरण, जीवन-शैली, वाणी, विचार और संबंध में प्रकट होता रहता है। इसी कारण भौतिक स्तर पर राम का भक्त दिखने वाला कोई भक्त अपने अभौतिक रूप में, अपने अचेतन में रावण का भक्त भी हो सकता है। ऐसे भक्तों को प्रभु की मूरत उनकी अपनी अज्ञानता के कारण वैसी ही दिखती है।

दूसरी बात आत्मबल और कर्म पर एकाग्रनिष्ठा की है। महाभारत के प्रसंग में विकट धनुर्धारी अर्जुन ने कर्म पर एकाग्रनिष्ठ और लक्ष्य पर एकाग्र होने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन द्रोपदी स्वयंवर के समय मछली की आँख पर निशाना साधकर कर दिया था। उसके अंदर आत्मबल और कर्मबल की शक्तियाँ तो थीं, किंतु सुषुप्तावस्था में थीं। श्रीकृष्ण को इसका आभास था, इस कारण कर्मयोग का उपदेश देकर उन्होंने अर्जुन की सुषुप्त शक्तियों को जागृत किया। कृष्ण को अर्जुन और अर्जुन को कृष्ण न मिलते, तो महाभारत का युद्ध तब भी नहीं जीता जा सकता था, और आज भी नहीं जीता जा सकता है।

कृष्ण को छलिया-प्रपंची मानने वाली; और साथ ही विभीषण को देशद्रोही, राम को शम्बूक वध का अपराधी देखने वाली आधुनिकताबोधी दृष्टि राम के गूढ़, गुह्य तत्त्व को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण न कर पाने के कारण भटक जाती है। यह भटकाव धर्मभीरुता या धार्मिक कट्टरता या फिर धार्मिक विद्वेषजन्य विषमता को जन्म देता है। ऐसे में बाबा तुलसी के राम, बापू के राम और उनका रामराज्य समझ से परे हो जाता है।

राम के भौतिक तत्त्व से अधिक प्रबल राम का आध्यात्मिक तत्त्व है, क्योंकि वही जीवन के सच्चे, सार्थक, शाश्वत मूल्यों को, मर्यादा को, नैतिकता और आदर्श को युगों-युगों तक संरक्षित रख सकने की सामर्थ्य रखता है। इसी कारण राम से बड़ा राम का नाम है। इसी कारण बापू के राम ने ऐसे रामराज्य की परिकल्पना स्थापित की थी, जो इस विश्व को सुंदर बना सकता था। इसी कारण बाबा तुलसी ने अपने जीवन के अनेक कठिन संघर्षों को, विभीषिकाओं को धर्मानुरूप और सम्यक् भाव से विजित करने की क्षमता पाई थी। इस गूढ़ तत्त्व को समझकर; राम को नहीं, राम के नाम को जानकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को मोक्ष का पर्याय बना सकता है। इसके लिए गुह्य-गूढ़ ज्ञान को जानने की पात्रता को उपजाना होगा और उसके बाद दोनों महाग्रंथों- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के मूल रस का आस्वादन करके जीवन को सार्थक और कल्याणकारक बनाया जा सकता है।

-राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के जून, 2023 अंक में प्रकाशित)

Sunday 30 April 2023

महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...

 




महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...


अगस्त-सितंबर आते-आते सिंधु का जोश मानों कुछ कम-सा हो जाता है। उधर हिमानियों में शीत का असर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वैसे ही उनका पिघलना-गलना कम होने लगता है, असर सिंधु में दिखने लगता है। सितंबर के माह में ही पितृपक्ष आता है। तर्पण-श्राद्ध के लिए सिंधु तट पर जाना पितृपक्ष की दैनंदिनी में सम्मिलित हो जाता है। एक दिन हमें सिंधु में तर्पण करते कुछ सैलानी देखते हैं। उत्सुकतावश आकर पूछ बैठते हैं.... कौन-सी नदी है, यह? हम अवाक् उनके चेहरे को ताकते हुए किंचित् अचरज के साथ कहते हैं- आपको क्या नहीं पता, ये सिंधु हैं...। सैलानियों में से एक वृद्ध महाशय तुरंत भक्ति के भाव में डूबकर जयकारा लगाते हैं, सिंधु मइया की जय हो...। अन्य सैलानी भी उनके सुर में सुर मिलाकर जयकारा लगा देते हैं—जय हो... जय हो...। कुछ की आवाज धीमी, तो कुछ की तेज होती है...। प्रातःकाल की वेला में नील कुसुमित गगन की आभा को दर्पण की तरह समेटे नीरव सिंधु और उसका तट इस जयकारे से गुंजायमान हो उठता है।

यह जयकारा तो ठीक था.... लेकिन सिंधु का परिचय ही यहाँ बदल गया था। पर्यटकों का भक्ति-भाव स्तुत्य था, लेकिन संशोधन आवश्यक था, इस कारण उनको बड़े विनम्र भाव के साथ हमने बताया, कि सिंधु मइया नहीं हैं, नदी नहीं हैं...। सिंधु में मातृत्व नहीं, पितृत्व है..। सिंधु नद हैं, महाबाहु हैं। हे सिंधु देव! वंदन है, आपका...। हमारा यह कथन पर्यटकों को आश्चर्य में डालने के लिए पर्याप्त था, ऐसा अनुभूत करते हुए एक ओर हम अपने तर्पण कार्य में लग गए, दूसरी ओर वे संभवतः हमारे संवाद की परतों को उधेड़ने-बुनने में लगे हुए थे।

लेह नगर से लगभग बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर सिंधु घाट ने अपने कई रूप देखे हैं। हम जब पहले-पहल आए थे, तब यहाँ टीन की चादरें लगी थीं और लोगों के बैठने के लिए एक खुला मंच जैसा हुआ करता था। अब तमाम नया निर्माण हो गया है। पर्यटक तब भी खूब आते थे, अब भी आते हैं। क्या पता, उन्हें तब सिंधु के बारे में जानकारी रहती होगी, या आज के जैसे ही सिंधु का घाट पर्यटकों के लिए केवल सैर-सपाटा और प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने का ठिकाना-मात्र रहता होगा। कुछ भी हो... अंग्रेजी ने यहाँ भी एक बड़ी गड़बड़ पैदा कर रखी है, ऐसा हमें तब भी लगता था, आज के इस संवाद ने पुनः हमारे विचार को मजबूती प्रदान कर दी थी। अंग्रेजी में ‘रिवर’ के स्त्रीलिंग या पुल्लिंग रूप नहीं हैं। दूसरा कारण यह भी हो सकता है, कि अधिकांश नदियाँ ही हैं...। इनकी संगत में नद भी नदियों के रूप में मान लिए जाते हैं, जाने-अनजाने में...। सिंधु के साथ भी कुछ ऐसा ही समझ में आता है।

ब्रह्मपुत्र, सोन और सिंधु; ये तीनों नद हैं। नद के रूप में सबसे कम पहचान सिंधु की है। सिंधु का तट सर्वस्तिवादी बौद्ध मतानुयायियों से जीवंत है। सर्वस्तिवादी बौद्धमत के ग्रंथों में सिंधु नद के रूप में अंकित है। भारत के मानचित्र को देखें, तो पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिंधु का विशाल प्रवाह दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्रह्मपुत्र और सिंधु दोनों भारतमाता की दो भुजाओं की तरह हैं। इसी कारण ये महाबाहु हैं। नदों की कथाएँ बड़ी रोचक होती हैं। ब्रह्मपुत्र की कथा में भी अनेक पड़ाव हैं, सिंधु में भी हैं, लेकिन भौगौलिक कारकों ने सिंधु के साथ मानव का मेल-मिलाप उतना नहीं रहने दिया, जितना सोन और ब्रह्मपुत्र का है। सोन भी नद है, गोंडवाना क्षेत्र में सोन का प्रवाह है। सोन वस्तुतः शोणभद्र है। शोणभद्र का स्वभाव भी भद्र है। यह अलग बात है, कि नर्मदा के साथ शोणभद्र की पटरी नहीं बैठी। एक छोटी-सी भ्रांति ने, एक मिथ्याबोध ने सोन और नर्मदा को अलग-अलग कर दिया। आज भी नर्मदा विपरीत दिशा में प्रवाहमान हैं, सोन के निकट से निकलते हुए भी मिलती नहीं हैं। शोण भी अपने भद्र स्वभाव को त्यागकर उच्छृंखल नहीं होता। वह शांत-संयत रहता है।

 सिंधु शोण की तरह शांत नहीं है। लेह के पास सिंधु का जो प्रवाह देखने को मिलता है, वह थोड़ा-सा आगे चलते ही कई गुना तेज हो जाता है। लोक में सिंधु के स्वभाव की जानकारी कम ही पाई जाती है। सिंधु के नाम से सामान्य जन की जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता और सिंधु से हिंदु व हिंदुस्थान तक ही जाती है। सिंधु नद है, नद के रूप में आखिर सिंधु क्यों मान्य है, ये बातें कम लोग ही जानते होंगे। कम-से-कम नई पीढ़ी में तो यही स्थिति होगी। वैसे इन तथ्यों को जानने के लिए अतीत की बड़ी गहरी परतों को उधेड़ना पड़ता है।

गंगा च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम् कुरु ।।

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गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा,

कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती वेदिका ।

क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी,

पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम् ।।

 

भारतीय वाङ्मय में सिंधु का वर्णन अनेक ग्रंथों में है। लोक-व्यवहार में सभी पवित्र नदियों का आह्वान स्नानादि कार्यों के लिए, पूजापाठ के लिए जब किया जाता है, तब सिंधु का भी आह्वान होता है। सिंधु का महत्त्व और माहात्म्य सनातन परंपरा में गंगा से पहले का है, और गंगा से अधिक भी है। प्राकृतिक बाधाओं और जटिलताओं ने सिंधु तक श्रद्धालुओं की पहुँच को कठिन बनाया, लेकिन सिंधु की प्रतीकात्मक उपस्थिति लोक में हर जन के साथ रही है, आज भी है...। समस्त पवित्र नदियों-नदों के जल की सन्निधि, यह सन्निधान धार्मिक संदर्भ-मात्र नहीं है। यह तो सांस्कृतिक ऐक्य का अभिधान है, प्रयास है। एक छोर पर गोदावरी-कावेरी, तो दूसरे छोर पर सिंधु, गंगा, यमुना हैं। सरयू, महेंद्रतनया, नर्मदा मध्य में हैं। यह आर्यावर्त की सांस्कृतिक परिधि का अंकन करने के साथ ही सांस्कृतिक एकता के मंत्र का पाठ भी है। सभी नदों-नदियों का जल से पूर्ण होना, सांस्कृतिक गठबंधन को जलराशि से बाँधना मानव के लिए मंगलकारक है, मंगलदायी है।

सिंधु सदियों से इसी भावधारा को निभाता रहा है। लद्दाख अंचल में एक स्वाँग खेला जाता है- लामा-जोगी का...। लामा बौद्ध भिक्षु है, लाल चीवर धारण किए हुए केशों का मुंडन कराए हुए..., जोगी श्वेत धोती धारण किए हुए है, लंबी धवल केश-राशि और दाढ़ी-मूँछों के साथ...। दोनों ही साथ-साथ जाते हैं, हाथों में अक्षत लिए हुए गाँवों की गलियों से जब निकलते हैं, तो श्रद्धालुजन स्वतः प्रेरणा से बाहर आकर अभिवादन करते हैं, परंपरागत पद्धति से पूजा-अर्जना करते हैं। लामा-जोगी समवेत स्वर से गृहस्वामी और अन्य परिजनों के लिए मंगलकामनाएँ करते हैं। जोगी लद्दाख में सिंधु के सहारे आए, अपनी सनातन परंपरा को अपनी तीर्थयात्राओं से अभिसिंचित करते हुए। यात्राओं की जटिलता ने, बदलते परिवेश ने, बदलती हवाओं ने और संस्कृतियों पर आक्रमणों के बाद बदलती धारणाओं-भावनाओं ने जोगियों का आना भले ही बाधित कर दिया हो, लेकिन लोक में जीवित और जीवंत परंपराएँ गहरे उतरकर जिस भावबोध से साक्षात् कराती हैं, उन्हें सिंधु ने अपने जल से सींचा है, पाला और पोसा है।

इतिहास घूम-घूमकर आता है, स्वयं को दोहरा लेता है। सिंधु दर्शन यात्रा ने पिछले साल ही अपने पचीस वर्षों की यात्रा पूरी की है। वर्ष 1997 में पहली बार सिंधु दर्शन यात्रा का आयोजन हुआ था। इसका प्रारंभ सिंधु की गौरवगाथा को गुनने-सुनने की भावभूमि पर हुआ था। पचीस वर्षों में सिंधु यात्रा ने देश ही नहीं, विदेशों के असंख्य लोगों को जोड़ा है। सिंधु दर्शन यात्रा के आज जिस आधुनिक संस्करण को देखते हैं, उसके पुरातन रूप को लामा-जोगी के स्वांग के साथ अनूभूत किया जा सकता है। सिंधु के किनारे-किनारे चलने वाली धार्मिक यात्राएँ एक ओर कैलास मानसरोवर तक, तो दूसरी ओर काश्मीर की धरती पर अमरनाथ और वैष्णवी देवी तक चलती रहती थीं।

सिंधु का उद्गम कैलास मानसरोवर से होता है। महायान परंपरा की बौद्ध मान्यताओं के अनुसार सिंधु का उद्गम शेर-मुख से हुआ है। कैलास की वह प्राकृतिक निर्मिति, जो शेर के समान दिखती है, उससे सिंधु का उद्गम होता है। इस कारण लद्दाखी भाषा में सिंधु ‘सेङ्गे खबब’ है। सिंधु के तट पर ही महाराजा पोरस ने सिकंदर की विश्व-विजय की कामना को धूल चटा दी थी। सिंधु के जल का यह प्रभाव कह सकते हैं, कि सिंह के मुख से निकलने वाले सिंधु का जल सिंह के सदृश वीरत्व के गुणों को धारण करने वाला है। सिंधु के किनारे-किनारे दरद, मोन-किरात आदि प्रजातियों का निवास रहा है। आज के जाटों की प्रजातियाँ भी यहाँ रही होंगी, ऐसे अध्ययन भी सामने आने लगे हैं। दरदों ने कौरवों ती तरफ से और किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा था। सिंधु के किनारे संस्कृतियों के संघर्षों की अनेक गाथाएँ आज भी गूँजती हैं।

सिंधु की लीलाभूमि हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों-मेखलाओं में विस्तृत है। सिंधु अपने साथ हिमगिरि की अन्य नदियों को मिलाकर लंबी यात्रा तय करने वाला नद है। हिमालय का पश्चिमी भाग सिंधु के हिस्से में है। वितस्ता, चिनाब, चंद्रा, भागा और जाङ्स्कर आदि नदियाँ सिंधु के साथ मिलकर अपना सर्वस्व अर्पित कर देती हैं। सिंधु यदि महाबाहु हैं, सिंह के मुख से निकलकर अपने गर्जन से धरती को गुंजायमान कर देने वाले हैं, तो पर्वतप्रदेश के अधिपति इंद्र भी कमतर नहीं हैं। वे वर्षा के देव हैं, बादलों के प्रतिरूप हैं। कृष्ण के लिए भी इंद्र चुनौती बने थे, सिंधु के लिए भी इंद्र चुनौती बने। विवश सिंधु को अपना रास्ता बदलना पड़ा। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल में पंद्रहवाँ सूक्त है-

सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।

अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

(ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वाँ सूक्त)

इंद्र ने उषा के रथ को अपनी सेना के बल से बलहीन कर दिया, तेजहीन कर दिया और सिंधु के मार्ग को बदल दिया। बलवान सोमरस की शक्ति के बल पर इंद्र द्वारा सिंधु का मार्ग बदले जाने के कारण सिंधु का प्रवाह उत्तर की ओर हो जाता है। आज भी सिंधु का प्रवाह गिलगित तक उत्तर की ओर दिखता है। स्करदो के केरस नामक स्थान पर शयोक नदी सिंधु से मिलती है। सिंधु का प्रवाह यहाँ बदल जाता है। स्करदो में अपने साथ शिगर नदी को मिलाकर सिंधु का प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर हो जाता है। स्करदो एक समय लद्दाख का भाग हुआ करता था। स्करदो में लद्दाख की शीतकालीन राजधानी होती थी। इससे पहले यह त्रिवेणी के समान मान्य रहा होगा। शिगर, शयोक और सिंधु की त्रिवेणी यहाँ एक समय में सनातन परंपरा के लिए आस्था के बड़े केंद्र के रूप में रही होगी, जो कालांतर में सांस्कृतिक संघर्षों की परतों के बीच अपने अतीत को किसी एकांत खंडहर में छिपाए हुए होगी। अध्येताओं को यह भूमि अपनी ओर बुलाती है, आज भी...।

ंद्र के पौरुष का आख्यान यदि भारतीय वाङ्मय से आता है, तो इसे पुष्ट करती भूवैज्ञानिक खोजें बताती हैं, कि किस तरह टेथेस सागर बदलकर हिमालय की निर्मिति करता है, और किस तरह सिंधु का मार्ग बनता है, जिससे सागर का जल निकलकर प्रवाहित होता है। जुरासिक काल में हिमालय नहीं था। यहाँ टेथेस सागर की लहरें हिलोरें मारती थीं। भूगर्भीय प्लेटों के टकराने और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ते जाने के कारण जब हिमालय की निर्मिति होने लगी, तब टेथेस सागर के जल की निकासी के मार्ग बनने लगे। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ बना, जिसने शयोक को जन्म दिया। इसी प्रवाह के कारण प्रसिद्ध पङ्गोङ झील का निर्माण हुआ। सिंधु-शयोक तांतव संधि-क्षेत्र भी इसी भूगर्भीय हलचल से बना, जिसमें सिंधु का प्रवाह है, और केरिस में शयोक व सिंधु का मिलन है। पङ्गोङ की तरह कई छोटी-बड़ी झीलें सिंधु-शयोक तांतव-संधि क्षेत्र में हैं, जिनका पानी खारा है। एकदम समुद्री है। एक समय इस संधिक्षेत्र के निवासी नमक बनाने का काम किया करते थे, जैसा कि उड़ीसा की चिलका झील या अन्य समुद्रतटीय क्षेत्रों में होता है। चङ्थङ् के निवासी पहले रेशम मार्ग के उपमार्ग से होकर लेह तक नमक का व्यापार करने आते थे। आज के पाकिस्तान में उन दिनों चङ्थङ् के नमक का स्वाद ही तैरता था। ऐसा कहा जाता है, कि वहाँ नमक बहुत कठिनाई से पहुँचता था, इस कारण लोग नमक की बरबादी बिलकुल भी नहीं करते थे।

शयोक और सिंधु का मिलन न केवल भूगर्भीय घटना का परिणाम है, वरन् इनके बीच एक अलग-सा संबंध अनुभूत कर सकते हैं। हिमाचल में बारालाचा दर्रा है। इसे लोग बड़ालाचा भी कहते हैं। यह मनोहर श्याम जोशी की कथाभूमि में भी रचता-बसता है। इसी के चंद्रताल से निकली चंद्रा और सूर्यताल से निकला भागा का मिलन तांदी में होता है। लाहुल-स्पीति की लोककथाओं में चंद्रा और भागा की प्रेमकथा रस ले-लेकर सुनी-सुनाई जाती है। तांदी में जो चंद्रभागा है, वह थोड़ा आगे बढ़ते ही चेनाब हो जाती है। इसे ही वैदिक काल की असिक्नी के रूप में जानते हैं। यह आम बोलचाल में इशकमती हो जाती है, साथ ही अपने रूप-गुण को भी ऐसे ही निभाते चलती है। हीर-राँझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ इसी इशकमती के किनारे फलती-फूलती हैं। शयोक और सिंधु के बीच भी यह संबंध एक कवि-मन के द्वारा देखा जा सकता है, यह हमने तब अनुभूत किया, जब एक लंबा समय हरहराकर बहती शयोक के किनारे पर बिताया। खरतुंग से नीचे उतरती शयोक ऐसे गरजते हुए बहती है, मानों खरतुंग से अपनी नाराजगी प्रकट कर रही हो। अगर खरतुंग बीच रास्ते में न खड़ा होता, तो शयोक को अपने सिंधु से मिलने के लिए केरिस तक की लंबी यात्रा न करनी पड़ती। सिंधु की तुलना में शयोक कुछ अधिक ही अल्हड़ और तीखी है। केरिस तक, सिंधु से मिलन तक कितने बल खाती है, कितनी चालें बदलती है, कितने नखरे दिखाती है, जरा सियाचिन की तलहठी में..... काराकोरम की छाँह में घूमकर देख तो लीजिए।

शयोक का गहरा नाता रेशम मार्ग से भी रहा है। जब रेशम मार्ग और उसके उपमार्ग चलन में थे, तब कई स्थानों पर शयोक को पार करना पड़ता था। शयोक में अचानक आ जाने वाली बाढ़ और तेज बहाव आदि रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ी मुसीबत बनते थे। शयोक के किनारे बसे गाँवों के रहवासी तो शयोक से खासे नाराज रहते हैं। उनके खेतों और उनकी बस्तियों को बरबाद करने में शयोक को तनिक भी देर नहीं लगती। इसी कारण नाराजगी में ये लोग शयोक का पानी अपने खेतों में भी नहीं सींचते। आज भले ही स्थितियाँ बदल गईं हों, लेकिन पहले के लोगों ने नदी के कारण जीवन नहीं, विस्थापन को देखा है। इसी कारण शयोक के प्रति लोक की नाराजगी कथाओं-किस्सों में भी देखने को मिल जाती है।

स्करदो में, जहाँ शयोक और शिगर नदियाँ सिंधु से मिलती हैं, वह निश्चित रूप से बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा होगा। यहाँ संस्कृतियों के संघर्ष ने, आक्रमणों की विभीषिकाओं ने भले ही बहुत-कुछ बदल दिया हो, लेकिन सिंधु का प्रवाह जब तक रहेगा, तब तक अतीत की गौरवगाथा को, सिंधु सभ्यता को, सप्त-सिंधु के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक वैभव को स्मरण रखा जाएगा। स्करदो से आगे बढ़कर सिंधु के मुलतान पहुँचने पर चिनाब का मिलन सिंधु से होता है। इस संगम के निकट ही आदित्य मंदिर है। जामवंत की पुत्री जामवंती श्रीकृष्ण की रानी थीं। इनके पुत्र का नाम सांब था। श्रीकृष्ण के श्राप के कारण सांब कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। सांब ने सूर्य की तपस्या की। सूर्य ने प्रसन्न होकर चंद्रभागा नदी में स्नान करने को कहा। आज भी चंद्रभागा कोढ़ ठीक करने वाली नदी के रूप में जानी जाती है। संभवतः सांब का शासन वर्तमान मुलतान में भी रहा होगा। इसी कारण चिनाब-सिंधु के मिलन-स्थल पर सांब ने अपने आराध्य आदित्य देव का मंदिर बनवाया। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह का है। आज इसके भग्नावशेष ही दिखते हैं। सांब और सांबा सेक्टर एक ऐसा साम्य उत्पन्न करते हैं, जो अतीत की कड़ियों से वर्तमान को जोड़ता है। सिंधु नद मुलतान से आगे बढ़ते हुए अपने साथ हिंगोल नदी को मिलाता है। पाकिस्तान के बलोचिस्थान प्रांत में माता हिंगलाज का मंदिर है। माता हिंगलाज का यह मंदिर बावन शक्तिपीठों में से एक है।

सिंधु नद कैलास-मानससरोवर से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हुए कराची के दक्षिण में सिंधु सागर से मिल जाता है। सिंधु सागर नाम भी सिंधु नद के मिलने के कारण पड़ा है। सिंधु सागर का एक नाम अरब सागर भी है, जो संभवतः तटवर्ती अरब के देशों के कारण पड़ा होगा। सिंधु सागर के किनारे की कृष्ण की द्वारिका है। सिंधु-चेनाब के संगम में कृष्ण के पुत्र सांब की नगरी है, आदित्य मंदिर है। सिंधु के किनारे-किनारे उन सभी प्रजातियों का निवास है, जो महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों के बीच बँटकर लड़ी थीं। रामायण में सिंधु महानदी है, महाभारत में सिंधु का विस्तार है, क्योंकि महाभारत का सिंधु से बहुत गहरा नाता है। सैंधवों, गंधर्वों के क्षेत्र, वर्तमान मिथन कोट या कोट मिट्ठन में राजा शिवि के पुत्र वृषदर्भ की राजधानी, दरदों, मोनों-किरातों आदि के ठिकाने सिंधु के तट पर ही हैं। ये सभी महाभारत के महासंग्राम के साक्षी रहे हैं। सिंधु नद और उसकी सखियाँ हिमगिरि के लीलाभवन में न केवल भौगौलिक निर्मितियाँ गढ़ती हैं, वरन् अनेक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक संदर्भों को सहेजती हैं। कभी हिमगिरि के लीलाभवन में इनके स्वरों को सुनिए.... मौन होकर, ध्यान लगाकर, चिंतन में गहरे उतरकर, इतिहास की परतों को उलट-पलटकर...। अनेक अनसुनी कहानियाँ, अनेक अनकहे किस्से, ढेरों बातें इनके प्रवाह में आपको मिलेंगी। पर्यटक के रूप में नहीं, सैलानी के रूप में नहीं... अपनी संस्कृति और अपने धर्म के प्रतिनिधि बनकर इनके तट पर आइए तो...।

(कश्फ़, अमृतसर, संयुक्तांक- 2022-2, 2023-1, वर्ष-21-22, पंज- 13-14, दिसंबर, 2022 से जून 2023 अंक में प्रकाशित)


Sunday 18 November 2018

सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा




सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा

सप्तकल्पक्षये    क्षीणे      मृता   तेन  नर्मदा ।
नर्मदैकैव      राजेन्द्र       परं     तिष्ठेत्सरिद्वरा ।। 55 ।।
तोयपूर्णा      महाभाग      मुनिसङ्घैरभिष्टुता ।
गंगाद्याः सरितश्चान्याः कल्पे-कल्पे क्षयं गताः ।। 56 ।।
भारतीय संस्कृति और समाज-जीवन में अपना विशेष महत्त्व रखने वाली नर्मदा नदी का सुंदर-रोचक और धर्म-अध्यात्म से परिपूर्ण वर्णन श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मिलता है। नर्मदा का एक नाम रेवा भी है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में नर्मदा नदी का समग्र वैशिष्ट्य प्रदर्शित-परिलक्षित होता है। रेवाखंड में उल्लिखित है कि सात कल्पों का क्षय हो जाने के बाद भी मृत होना, अर्थात् नष्ट होना तो दूर, जो क्षीण भी नहीं होती है, ऐसी श्रेष्ठ नदी ही नर्मदा कहलाती है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मार्कण्डेय ऋषि और धर्मराज युधिष्ठिर के मध्य संवाद चल रहा है। मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- हे राजेंद्र! नर्मदा ही ऐसी श्रेष्ठ नदी है, जो सदा स्थित रहा कहती है, कभी नष्ट नहीं होती है। इस प्रसंग के पूर्व युधिष्ठिर के प्रश्न पर मार्कण्डेय ऋषि बताते हैं- गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है; उसी प्रकार सरस्वती, कावेरी, देविका, सिंधु, सालकुठी, सरयू, शतरुद्रा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ समस्त पापों का हरण करने वाली हैं। ये सभी नदियाँ और समुद्र किस कारण से कल्प, कल्प में नष्ट हो जाते हैं, उनके बारे में मैं बताऊँगा। किंतु इन सबसे अलग नर्मदा नदी ऐसी है, जिसका सात कल्पों में भी क्षय नहीं होता, जो अनेक कल्पों तक अनवरत् प्रवाहमान रहती है, जो कालजयी और शाश्वत है। मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को बताते हैं, कि-  हे महाभाग! नर्मदा नदी सदैव जल से परिपूर्ण रहती है। मुनि-संघ, अर्थात् साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों के लिए यह नदी सदैव अभीष्टित रही है। इसके तट पर मुनि-संघ तपश्चर्या करने हेतु सदैव प्रेरित होता रहा है। इसका कारण संभवतः नर्मदा नदी का शाश्वत जीवन है, क्योंकि गंगा और उसके सदृश अनेक नदियों का कल्प-कल्प में क्षय हो जाया करता है।
मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम नर्मदा नदी के उद्गम-स्थल के निकट स्थित है, जिसे वर्तमान में मारकुंडी के नाम से जाना जाता है। विंध्य पर्वतश्रेणियों और सतपुड़ा की पहाड़ियों के मध्य नर्मदा नदी का उद्गम अमरकंटक नामक स्थान पर होता है। विंध्य पर्वतश्रेणी का दक्षिणी छोर चित्रकूट परिक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अतीत से ही चित्रकूट परिक्षेत्र धर्म-साधना का केंद्र रहा है। इस कारण यहाँ पर अनेक प्रसिद्ध ऋषियों के आश्रम रहे हैं और अनेक साधकों ने इस क्षेत्र का अपनी साधना के लिए चयन भी किया है। नर्मदा नदी के उद्गम के साथ शिवजी की साधना का प्रसंग जुड़ा हुआ है। श्रीस्कंद पुराण में मार्कण्डेय ऋषि नर्मदा के शाश्वत जीवन को बताते हुए कहते हैं कि-
पुरा  शिवः  शान्ततनुश्चचारविपुल तपः ।
हितार्थ  सर्वलोकानामुमया  सह शंकरः ।।14।।
ऋक्षशैलं  समारूह्य  तपस्तेपे सुदारुणम् ।
अदृश्यः सर्वभूतानां सर्वंभूतात्मको वशी ।।15।।
तपस्तस्य  देवस्य स्वेदः समभवत्विकल ।
तंगिरिंप्लावयामास     सस्वेदोरुद्रसंभवः ।।16।।
प्राचीनकाल में परम शांत शरीर वाले शिवजी ने उमाजी के साथ अत्यंत कठिन साधना की थी। लोक-कल्याण के लिए उन्होंने यह तप ऋक्षशैल में किया था। यह ऋक्षशैल विंध्य और सतपुड़ा की पर्वश्रेणियों की संगम-स्थली माना जाता है। कठिन तपश्चर्या के कारण शिवजी के शरीर से निकलने वाली पसीने की बूँदें इस ऋक्षशैल पर गिरीं, जिसने शैल को पिघला दिया और इस प्रकार नर्मदा का जन्म हुआ। ऋक्षशैल को रैवतक पर्वत भी कहा जाता है। रैवतक से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को रेवा के नाम से भी जाना जाता है। शिव को सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। नर्मदा के तट पर शिवजी की कठिना साधना-तपश्चर्या शिव के लोकरक्षक स्वरूप को प्रकट करती है। इसके साथ ही शिवजी के स्वेद से उत्पन्न नर्मदा नदी श्रम की महत्ता और साधना की श्रेष्ठता को स्थापित करती है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित आस्था के पक्ष के साथ नर्मदा के तटीय क्षेत्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-सामाजिक अतीत अपने समग्र गौरव के साथ उपस्थित हो जाता है, जिसे अध्ययन की गहराइयों में उतरकर देखा जा सकता है, जाँचा-परखा जा सकता है।
नर्मदा नदी के किनारे गोंड जनजातीय समूह का विस्तार मिलता है। इसी कारण इस क्षेत्र को आज गोंडवाना के नाम से जाना जाता है। इतिहास में गोंड राजवंश का कालखंड पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। गोंड राजवंश की प्रसिद्धि प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती के नाम से अंकित है, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतशाह के असामयिक निधन के बाद गोंडवाना का शासन पूरी कुशलता के साथ सँभाला, मुगलों की सेनाओं को कई बार पराजित किया और बाद में वीरगति को प्राप्त किया। किंतु इससे पूर्व गोंड जनजातीय समूह को प्राचीनतम जनजातीय समूह और मानव आबादी के स्रोत के रूप में भी जाना जाता है। गोंडी धर्म की कथाओं में शिव को शंभूशेक या महादेव के रूप में जाना जाता है। गोंडों की धार्मिक कथाओं में महादेव की अठासी पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों में शिव के साथ शक्ति का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। लोकदेवता के रूप में शिव-शक्ति का युगल लोक का कल्याण करता रहा है, ऐसा गोंडवाना की लोककथाओं और लोकगीतों में वर्णित होता है। महादेव की अठासी पीढ़ियों की शुरुआत शंभु-मूला से होती है और अंतिम पीढ़ी में शंभु-पार्वती का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों का अतीत पाँच हजार से लगाकर दस हजार ईसापूर्व तक माना जाता है। गोंडों का अपना धर्म, जिसे गोंडी भाषा में ‘कोया-पुनेम’ कह जाता है, उसका अतीत भी लगभग इतना ही पुराना है।
कोया-पुनेम का शाब्दिक अर्थ होता है- मानव-धर्म। नर्मदा के तट पर बसी गोंडों की अति-प्राचीन बस्तियाँ अपनी आस्थाओं और जीवनीय मान्यताओं के साथ हजारों वर्ष पहले से मानव-धर्म का निर्वहन करती चली आ रही हैं। ‘कोया-पुनेम’ या मानव-धर्म यहाँ के मूल निवासियों की अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रकट होता रहा है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित शिव-पार्वती की कठिन तपश्चर्या इसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। लोक-कल्याण के लिए, मानव-धर्म को निभाने के लिए गोंडों के आदिपुरुष और गोंडों की आदिशक्ति ने संयुक्त रूप से जिस कठिन तप और साधना से नर्मदा का सृजन किया, उसका धार्मिक स्वरूप श्रम के प्रति आस्थावान होने, साधना के प्रति नतमस्तक होने की सीख देता प्रतीत होता है। इस कारण रैवतक पर्वत की नीलिमा से युक्त रेवा का प्रवाह सदियों से कर्म-सौंदर्य और लोक-कल्याण का गुणगान करता रहा है; श्रम-साधना के प्रति आस्थावान मानव-समुदाय को इन विलक्षण गुणों से जोड़ने हेतु प्रेरित करता रहा है। नर्मदा नदी इसी कारण साधना की प्रतीक है।
रैवतक पर्वत में की गई शिव-पार्वती की तपश्चर्या के संबंध में ऐसी मान्यता है कि यह तपस्या उन्होंने विष्णु के लिए की थी। विष्णु के विभिन्न अवतारों द्वारा अलग-अलग कालखंडों में रक्ष-संहार किया गया। साधना-तपस्या और लोक के कल्याण हेतु संलग्न रहने वाले साधु-संन्यासियों को आतंकित करने वाले क्रूरकर्मा राक्षसों के संहार के लिए विष्णु ने अलग-अलग अवतार धारण किए और धरती पर धर्म की स्थापना की। अलग-अलग कालखंडों में विष्णु द्वारा किए गए संहारों के प्रायश्चित्त के रूप में शिव ने अपनी तपस्या रैवतक पर्वत में की, ऐसा माना जाता है। इस तरह शैव और वैष्णव का अद्भुत समन्वय, अनूठा सामंजस्य नर्मदा के तट पर परिलक्षित होता है। यह नर्मदा का अपना वैशिष्ट्य है, कि शैव-साधना का विशिष्ट केंद्र होकर भी यहाँ वैष्णव भक्ति-भावना के सूत्र जुड़ते हैं।
श्रीस्कंद पुराण में नर्मदा के माहात्म्य को उद्घाटित करने वाले मार्कण्डेय ऋषि जब नर्मदा नदी को सात कल्पों के क्षय हो जाने पर भी क्षीण नहीं होने वाली दुर्लभ नदी कहते हैं, तब बहुधा पुराणकार और कथावाचक के प्रति अतिकाल्पनिक हो जाने का संशय उत्पन्न होने लगता है। पुरातनकाल में आस्थावान लोगों के लिए संशय की स्थितियाँ आज के सदृश नहीं होती थीं। आज की वैज्ञानिक दृष्टि अपनी आस्था को बल देने के लिए तथ्यों को महत्त्व देती है। इस दृष्टि से विचार करने हेतु पुनः गोंड जनजातीय समूहों के अतीत को देखना होगा। आज की भूवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि पचास करोड़ वर्ष पूर्व धरती में केवल दो महाद्वीप थे। इनमें से एक को ‘लॉरेशिया लैंड’ और दूसरे को ‘गोंडवाना लैंड’ नाम दिया गया है। इन दोनों महाद्वीपों के टूटने पर वर्तमान के पाँच महाद्वीपों का निर्माण हुआ है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित ‘गोंडवाना लैंड’ का सीधा संबंध नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्रों से था। इस कारण आदिमकालीन गोंड जनजातीय समूहों को आदिमानव की बस्तियाँ माना जाता है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन का सर्वप्रथम विकास नर्मदा नदी के तट पर हुआ है। नर्मदा नदी घाटी में हुए उत्खनन में डायनासोरों के अंडे और जीवाश्म भी मिले हैं। पेंजिया भूखंड के निर्माण के समय, अर्थात् लगभग तेरह करोड़ वर्ष पूर्व आदिमानव की उत्पत्ति भी नर्मदा नदी घाटी में हुई। नर्मदा घाटी में मिलने वाले खारे पानी के स्रोत और आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र नर्मदा नदी घाटी की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। गोंडी भाषा में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में आदिकालीन मानव के अनेक विविधतापूर्ण चित्र मिलते हैं, जिनके आधार पर भी नर्मदा नदी की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकता है।
सप्तकल्प, अर्थात् लगभग आठ करोड़ चालीस लाख वर्ष गुजर जाने के बाद भी नर्मदा नदी का क्षय नहीं होता, नर्मदा नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, ऐसा जब श्रीस्कंद पुराण में कहा जाता है, तब वर्तमान की भूवैज्ञानिक खोजों के आलोक में इस कथन को परखने पर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। जिस समय आज के जैसे आधुनिक उपकरण और परीक्षण की विधियाँ नहीं थीं, उस समय किया गया काल-निर्धारण न केवल आश्चर्य में डाल देने वाला है, वरन् अपने पुरातन ज्ञान-विज्ञान के प्रति असीमित-अपरिमित आस्था की उत्पत्ति करा देने वाला भी है।
विंध्य को उत्तर और दक्षिण का विभाजक माना जाता है। विंध्य और सतपुड़ा के संधि-स्थल से निकलने वाली नर्मदा नदी भी विंध्य की भाँति उत्तर और दक्षिण के मध्य विभाजक रेखा खींचती है। उत्तर और दक्षिण का विभाजन वस्तुतः आर्य और द्रविड़ जातीय समूहों का  विभेद है। इस विभेद को तोड़ने के अनेक प्रयास अतीत से ही होते रहे हैं। विष्णु के हिस्से की तपस्या को रैवतक पर्वत में शिव-पार्वती द्वारा किया जाना, रामेश्वरम् में श्रीराम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना करना आदि इसके प्रतीक हैं। ये शैव और वैष्णव के मध्य समन्वय-सौहार्द को स्थापित करने के साथ ही उत्तर और दक्षिण के विभेद को मिटाने के प्रयास भी हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों ने, विशेषकर महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा ने इस कार्य को सक्रियता के साथ किया है। महर्षि अगस्त्य के साथ एक प्रसंग आता है, कि विंध्य को निरंतर ऊँचा होते देखकर उन्होंने विंध्य पर्वत से आग्रह किया, कि उन्हें दक्षिण की ओर जाना है और जब तक वे दक्षिण की यात्रा से लौटकर न आ जाएँ, तब तक वह अपनी ऊँचाई को न बढ़ाए। इस पौराणिक प्रसंग में महर्षि अगस्त्य उत्तर और दक्षिण के मध्य बढ़ती दूरियों को कम करने हेतु प्रयासरत प्रतीत होते हैं। बाद में राम का वनगमन होता है। दक्षिणापथ में अग्रसर होने हेतु राम का पथ-प्रदर्शन अगस्त्य ऋषि द्वारा किया जाता है।
अतीत की यह परंपरा, उत्तर और दक्षिण के मध्य विभेद को कम करने के प्रयासों की अगली कड़ी नर्मदा परिक्रमा में दिखाई पड़ती है। नर्मदा के किनारे-किनारे चलने वाली पदयात्रा इसी कारण अपना धार्मिक महत्त्व-मात्र नहीं रखती, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार और सामंजस्य के गुरुतर दायित्व का निर्वहन भी करती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रारंभ कब से हुआ, यह बताना कठिन है। यद्यपि कुछ आस्थावान भक्तों द्वारा नर्मदा परिक्रमा के रोचक वृत्तांत को लिपिबद्ध किया गया है। नर्मदा परिक्रमा तीन वर्ष तीन मास और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। भगवान दत्तात्रेय के उपासक नर्मदा परिक्रमा को विशेष महत्त्व देते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना आदि प्रांतों के साथ ही नेपाल से आने वाले दत्त संप्रदाय के उपासक बड़ी आस्था के साथ नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। इस तरह नर्मदा परिक्रमा में उत्तर से दक्षिण तक, अखंड भारतवर्ष सिमट आता है, ऐसा कहा जा सकता है। आपसी मेल-जोल को बढ़ाने, विविध संस्कृतियों और जीवन-दृष्टियों को अवगाहने के लिए नर्मदा परिक्रमा को किसी लोक-उत्सव से कम नहीं कहा जा सकता है।
लोकजीवन के लिए नर्मदा केवल एक नदी नहीं है, वरन् ‘माई’ है, माता है। इसीलिए नर्मदा स्नान को जाते, नर्मदा की परिक्रमा लगाते आस्थावान नर्मदा-पुत्रों की वाणी में- ‘नरबदा मइया ऐसी तो मिली रे.., जैसे मिले हैं मताई ओर बाप रे....’ जैसे लंबी टेर वाले लमटेरा गीत सुनाई पड़ते रहते हैं। राजा मेकल की सुता, मेकलसुता और सोन नद की कथाओं के साथ ही बाजबहादुर और रानी रूपमती की कथाओं को नरबदा माई अपने में बसाए हुए हैं। गोंडवाना की रानी दुर्गावती और महिष्मती (महेश्वर) की रानी अहिल्याबाई होलकर की वीरता को रेवा ने अपने प्रवाह में सँजोया है।
आज भृगु ऋषि की साधना-स्थली भेड़ाघाट प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित हुआ है। आस्था और लोक-परंपरा को साथ लेकर चलने वाली नर्मदा परिक्रमा अब तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन से सिमटकर हवाई मार्ग से मात्र तीन-चार घंटे में ही पूरी हो जाने वाली बन गई है। सप्तकल्पों में भी क्षय नहीं होने वाली नर्मदा नदी के किनारे जन्मे आदिमानव के वंशजों के लिए अतीत का गौरवपूर्ण अध्याय आज के भौतिकता से पूर्ण जीवन में पढ़ा जाना दुष्कर प्रतीत होने लगा है। इसके बावजूद नरबदा माई अपने आँचल में असीमित स्नेह भरे हुए अपने सपूतों को जीवन जीने की दिशा दिखा रही हैं, साधना का पथ बता रही हैं, और कर्म के सौंदर्य को प्रतिष्ठापित कर रही हैं।
संदर्भ-स्रोत-
1.  श्रीस्कंद पुराण, द्वितीय खंड, रेवाखंड, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली, सं. 1986,
2.  लारेंशिया-गोंडवाना कनेक्शन बिफोर पेंजिया, सं. विक्टर ए. रामोस एवं डंकन कैपी, द जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका, कॉलॉरेडो, सं. 1999,
3.  भारतीय संस्कृति में ऋषियों का योगदान, डॉ. जगतनारायण दुबे, दुर्गा पब्लिकेशंस, दिल्ली, सं. 1989,
4.  संस्कृति-स्रोतस्विनी नर्मदा, अयोध्याप्रसाद द्विवेदी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, सं. 1987,
5.  जंगल रहे-ताकि नर्मदा बहे, पंकज श्रीवास्तव, नर्मदा संरक्षण पहल, इंदौर, सं. 2007,
6.  हिस्ट्री, ऑर्कियोलॉजी एंड कल्चर ऑफ दि नर्मदा वैली, आर.के. शर्मा, शारदा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2007,
7.  एथनिक ग्रुप्स ऑफ साउथ एशिया एंड दि पैसिफिक : एन इनसाइक्लोपीडिया, जेम्स बी. मिन्हन,  एबीसी-सीएलआईओ, एलएलसी, कैलिफोर्निया, सं. 2012,
8.  विकीपीडिया।
-राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास द्वारा श्रीमहेश्वर, मध्यप्रदेश में आयोजित ‘नर्मदा परिक्रमा’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 13-14 सितंबर, 2018 की स्मारिका में प्रकाशित, सं. डॉ. मंदाकिनी शर्मा एवं डॉ. आशा वर्मा, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली)

Monday 30 April 2018

राजविद्या-राजगुह्य योग और विनोबा भावे के विचार






राजविद्या-राजगुह्य योग और विनोबा भावे के विचार

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।
राजविद्या  राजगुह्यं  पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं  धर्म्यं सुसुखं कर्तुमाव्ययम् ।।1
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम दोषदृष्टि रहित हो, भक्त हो, इसलिए मैं इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञानसम्मत और तर्कपूर्ण है, उसे बताऊँगा। तुम इस ज्ञान को जानकर इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो जाओगे। यह विज्ञानसम्मत और तर्कपूर्ण ज्ञान सभी विद्याओं का राजा है। यह समस्त गोपनीय ज्ञानों का राजा है। यह पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, धर्म से युक्त है। यह सुगम और अविनाशी है। गीता का नवम अध्याय उस ज्ञान की बात से शुरू होता है, जिसे विज्ञानसम्मत अर्थात तथ्यों पर खरा उतरने वाला बताया गया है। यह अत्यंत गोपनीय भी है, अर्थात यह सर्वसुलभ नहीं है, किंतु इसे प्राप्त करने का मार्ग जानकर और उस मार्ग पर चलकर यदि इस विज्ञानसम्मत ज्ञान को ग्रहण कर लिया जाए, इसे जीवन में उतार लिया जाए, तो यह सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होगा, इसके प्रत्यक्ष फल प्राप्त होंगे। धर्म से युक्त ऐसे विशिष्ट ज्ञान की विवेचना करने के कारण गीता में इस अध्याय का अपना विशिष्ट स्थान है।
धर्म, आस्था और भक्ति के रूढ़ अर्थों से अलग गीता व्यवहार की दृष्टि से, दैनंदिन जीवन के कार्य-व्यापार की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न भाष्यकारों, विद्वानों और तर्कशास्त्रियों ने इस कारण गीता का समग्र विवेचन विभिन्न तरीकों-पद्धतियों से किया है। विनोबा भावे द्वारा दिये गए गीता-प्रवचन इस संदर्भ एकदम अलग स्थान रखते हैं। गीता के समस्त अध्यायों पर दिये गए उनके प्रवचन पुस्तकाकार उपलब्ध हैं। अपने प्रवचनों को उन्होंने आम जनता के उपयोगार्थ केंद्रित किया है। वे ‘गीता प्रवचन’ की प्रस्तावना में लिखते हैं- इनमें तात्विक विचारों का आधार छोड़े बगैर, लेकिन किसी वाद में न पड़ते हुए, रोज के कामों की बातों का ही जिक्र किया गया है।.... यहाँ श्लोकों के अक्षरार्थ की चिंता नहीं, एक-एक अध्याय के सार का चितंन है। शास्त्र-दृष्टि कायम रखते हुए भी शास्त्रीय परिभाषा का उपयोग कम-से-कम किया है। मुझे विश्वास है कि हमारे गाँव वाले मजदूर भाई-बहन भी इसमें अपना श्रम-परिहार पाएँगे।2 इस प्रकार विनोबा के गीता-प्रवचन की समाज से निकटता और उनके प्रवचनों की लौकिक दृष्टि स्वतः प्रमाणित हो जाती है। पूज्य साने गुरुजी ने विनोबा के प्रवचनों को शब्दबद्ध किया। मराठी और हिंदी में विनोबा का ‘गीता प्रवचन’ एक अलग किस्म के भाष्य के रूप में, गीता को आत्मसात करने की नई दृष्टि के रूप में इस प्रकार सामने आ सका।
बाबा विनोबा के लिए श्रीमद्भगवद्गीता जीवन का दर्शन-मात्र नहीं है, वरन् जीवन को जीने की कला है, एक पद्धति है। वे इसी कारण गीता के विविध अध्यायों का विवेचन शास्त्र के स्थान पर लोक के आधार पर करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का नवाँ अध्याय इस कारण उनके लिए विशिष्ट हो जाता है, क्योंकि वे इस अध्याय के माध्यम से जीवन जीने की उस पद्धति को व्याख्यायित करते हैं, जो उनके समय की अनिवार्यता और आवश्यकता थी। वे गीता के नवम अध्याय पर प्रवचन की शुरुआत में ही कहते हैं-
यह अध्याय गीता के मध्य भाग में खड़ा है। सारी महाभारत के मध्य गीता और गीता के मध्य यह नवाँ अध्याय। अनेक कारणों से इस अध्याय को पावनता प्राप्त हो गई है। कहते हैं कि ज्ञानदेव ने जब अंतिम समाधि ली, तो उन्होंने इस अध्याय का जप करते हुये प्राण छोड़ा था। इस अध्याय के स्मरण मात्र से मेरी आँखें छलछलाने लगती हैं और दिल भर आता है। व्यासदेव का यह कितना बड़ा उपकार है, केवल भारतवर्ष पर ही नहीं, सारी मनुष्य-जाति पर उनका यह उपकार है। जो अपूर्व बात भगवान ने अर्जुन को बताई, वह शब्दों द्वारा प्रकट करने योग्य न थी। परंतु दयाभाव से प्रेरित होकर व्यासजी ने इसे संस्कृत भाषा द्वारा प्रकट कर दिया। गुप्त वस्तु को वाणी का रूप दिया। इस अध्याय के आरंभ में भगवान कहते हैं-
राजविद्या  राजगुह्यं  पवित्रमिदमुत्तमम् ।
यह जो राजविद्या है, यह जो अपूर्व वस्तु है, वह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। भगवान उसे ‘प्रत्यक्षावगम’ कहते हैं। शब्दों में न समाने वाली, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर कसी हुई यह बात इस अध्याय में बतायी गई है। इससे यह बहुत मधुर हो गया है। तुलसीदासजी ने कहा है-
को  जाने को  जैहे  जम-पुर,   को  सुर-पुर  पर-धाम  को ।
तुलसिहि बहुत भलो लागत, जग-जीवन रामगुलाम को ।।
मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग और उसकी कथाओं से यहाँ क्या काम चलेगा? कौन कह सकता है कि स्वर्ग कौन जाता है और यमपुर कौन जाता है? यदि संसार में चार दिन रहना है, तो राम का गुलाम बनकर रहने में ही मुझे आनंद है, ऐसा तुलसीदासजी कहते हैं। राम का गुलाम होकर रहने की मिठास इस अध्याय में है। प्रत्यक्ष इसी देह में, इन्हीं आँखों से अनुभूत होने वाला फल, जीते जी अनुभव की जाने वाली बातें इस अध्याय में बतायी गयी हैं।3
नवम अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए कथनों का ऐसा विश्लेषण अद्भुत है। तुलसी के राम जहाँ मर्यादा और आदर्श के प्रतीक हैं, वहीं विनोबा के राम मानव-मात्र हैं, जीव-मात्र हैं। यह जगत इसी कारण राममय है। मानव साक्षात् परमात्मा की ही मूर्ति है, इसलिए उसकी सेवा, उसकी भक्ति ही सबसे बड़ी है। संसार में जो प्रत्यक्ष है, उसकी सेवा पर हमें एकाग्र होना चाहिए। स्वर्ग, नर्क की कल्पनाओं में उलझकर अपने सांसारिक कर्मों को जटिल, आत्मकेंद्रित और कृत्रिम नहीं बनाना चाहिए। इसके लिए विनोबा बड़ी सहजता के साथ कृष्ण का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि- मोक्ष पर केवल मनुष्य का ही अधिकार नहीं, बल्कि पशु-पक्षी का भी है- यह बात श्रीकृष्ण ने साफ कर दी है।4 इंद्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा का विधान श्रीकृष्ण ने इसीलिए बताया था। गोवर्धन पर्वत, जो सबके सामने है, प्रत्यक्ष है। जिस पर हमारा जीवन आश्रित है, उसके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। वह वास्तव में परमात्मा का रूप है। इसी तरह गाय-बैल-अश्व और अन्य जीवधारी भी हैं। उनके प्रति समर्पण का भाव, उनके प्रति भक्ति का भाव रखना सीधे परमात्मा की भक्ति है, क्योंकि वे परमात्मा के ही प्रतिरूप हैं।
कौन्तेय ! जो  खाते  हो करते तथा आहुति जो करो ।
दान तप  जो  करो  वह   सब  मुझे  ही  अर्पण करो ।।
शुभ अशुभ जो फल कर्म बंधन यह किये से मुक्त हों ।
कर्म  सब  अर्पण  करो,  मुझसे  मिलो  अरु मुक्त हो ।।5
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कर्मयोग और भक्तियोग का सुंदर मेल है। कर्मयोग कर्म करने और फल की इच्छा न करने की बात कहता है। भक्तियोग ईश्वर के साथ भावपूर्ण जुड़ाव की बात कहता है। दोनों ही अलग-अलग दिशाओं पर केंद्रित हैं। नवम अध्याय में इन दोनों को इस प्रकार समीप लाया गया है, जोड़ दिया गया है, कि यह राजयोग बन गया है। यह योग गुह्य भी इसी कारण है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रदर्शित कर्मयोग और भक्तियोग का प्रत्यक्ष नहीं रह जाता, गोपनीय हो जाता है। यह जटिल साधना के साथ अंतरात्मा में केंद्रित हो जाता है। यह भक्ति और कर्म के सौंदर्य को आत्म-तत्त्व के सौंदर्य से जोड़कर श्रेष्ठतम बना देता है। बाबा विनोबा ने दैनंदिन जीवन के कार्य-व्यवहार में इस श्रेष्ठता को प्रतिष्ठापित करने हेतु राजयोग की अत्यंत सामयिक और सुंदर व्याख्या की है। वे लिखते हैं- फल का विनियोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिये। जो काम जैसा हो जाय, वैसा ही उसे भगवान को अर्पण कर दो। प्रत्यक्ष क्रिया जैसे-जैसे होती जाय, वैसे-ही-वैसे उसे भगवान को अर्पण करके मनरतुष्टि प्राप्त करते रहना चाहिए। फल को छोड़ना नहीं है, उसे भगवान को अर्पण कर देना है। यह तो क्या, मन में उत्पन्न होने वाली वासनाएँ और काम-क्रोधादि विकार भी परमेश्वर को अर्पण करके छुट्टी पाना है।6 इस प्रकार के भाव के साथ कर्म किया जाए, तो आज के समय की अनेक विकृतियों का शमन किया जा सकता है। भगवान को अर्पित करने के लिए भक्त जिस प्रकार शुद्ध पुष्प, जल, प्रसाद आदि का यत्न करते हैं, उसी प्रकार शुद्ध और सात्विक कर्मों के अर्पण हेतु वे प्रेरित होंगे। कर्म में शुचिता और पवित्रता स्वतः आ जाएगी। शरीर की प्रत्येक इंद्रिय द्वारा किया गया कार्य ईश्वर को अर्पण किया जाना है, यह मन में रखकर कार्य करना ही ‘राजयोग’ है। बाबा विनोबा द्वारा की गई ऐसी व्याख्या अद्भुत और अनुपम है। वे कहते हैं कि अर्पण करने हेतु विशिष्ट क्रिया का आग्रह नहीं है। कर्ममात्र ईश्वर को अर्पित कर देना है।
विनोबा ने सारे जीवन को हरिमय बनाने, अर्थात पावन-पुनीत बनाने का माध्यम राजयोग को ही बताया है। जीवन के हर क्षेत्र में इसकी उपादेयता को, इसकी प्रासंगिकता को वे सरल शब्दों में स्पष्ट करते हैं। वे घर-परिवार से लगाकर समाज तक हर क्षेत्र में इसकी उपादेयता को व्याख्यायित करते हैं। अध्ययन-अध्यापन में राजयोग की महत्ता को विशेष रूप से वे रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि- शिक्षण-शास्त्र में तो इस कल्पना की बड़ी ही आवश्यकता है, लड़के क्या हैं, प्रभु की मूर्तियाँ हैं। गुरु की यह भावना होनी चाहिये कि मैं इन देवताओं की ही सेवा कर रहा हूँ। तब वह लड़कों को ऐसे नहीं झिड़केगा- “चला जा अपने घर। खड़ा रह घंटे भर। हाथ लवाकर। कैसे मैले कपड़े हैं? नाक से कितनी रेंट बह रही है।” बल्कि हलके हाथ से नाक साफ कर देगा, मैले कपड़े धो देगा और फटे कपड़े सीं देगा। यदि शिक्षक ऐसा करे, तो इसका कितना अच्छा परिणाम होगा। मार-पीटकर कहीं अच्छा नतीजा निकाला जा सकता है? लड़कों को भी चाहिये कि वे इसी दिव्य भावना से गुरु को देखें। गुरु शिष्य को हरि मूर्ति और शिष्य गुरु को हरि मूर्ति मानें। परस्पर ऐसी भावना रखकर यदि दोनों व्यवहार करें, तो विद्या तेजस्वी होगी।7
विनोबा का मत है कि ऐसी भावना के साथ जब जीवन में कर्म किये जाएँगे, तब कर्म स्वयं पवित्र हो जाएगा और पाप का भय नहीं रह जाएगा। सब जगह प्रभु विराजमान हैं, ऐसी भावना चित्त में बैठ जाय, तो फिर एक-दूसरे के साथ हम कैसा व्यवहार करें, यह नीतिशास्त्र हमारे अंतःकरण में अपने आप स्फुरने लगेगा।8 ऐसी भावना को कर्म में उतारने के बाद नीतिशास्त्र और व्यवहार-विज्ञान के विशिष्ट अध्ययन की अनिवार्यता नहीं रह जाती है। जब कर्म पवित्र हो जाएगा, तब पाप और पुण्य का अंतर करने की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी। कर्म स्वतः पुण्यमय और पवित्र हो जाएगा।
इसी आधार पर वे जीवन की सार्थकता को प्रमाणित करते हैं। वे लिखते हैं- गीता में कुल सात सौ ही श्लोक हैं। पर ऐसे भी ग्रंथ हैं, जिनमें दस-दस हजार श्लोक  हैं। किंतु वस्तु का आकार बड़ा होने से उसका उपयोग भी अधिक होगा, ऐसा नहीं कह सकते। देखने की बात यह है कि वस्तु में तेज कितना है, सामर्थ्य कितनी है? जीवन में क्रिया कितनी है, इसका महत्त्व नहीं। ईश्वरार्पण-बुद्धि से यदि एक भी क्रिया की हो, तो वही हमें पूरा अनुभव करा देगी।9 इस प्रकार जीवन में विशिष्ट की प्राप्ति के लिए, मोक्ष के लिए अलग से यत्न करने की, प्रयास करने की बात बाबा विनोबा नहीं करते। वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में, कर्म के किसी भी स्तर पर, किसी भी क्षण पवित्र भावना से कर्म करने और उसे ईश्वर को अर्पित कर देने की क्रिया को ही श्रेष्ठ बताते हैं। वे कहते हैं कि- बोने और फेंक देने में फर्क है। बोया हुआ थोड़ा भी अनंतगुना होकर मिलता है। फेंका हुआ यों ही नष्ट हो जाता है। जो कर्म ईश्वर को अर्पण किया गया है, उसे बोया हुआ समझो। उससे जीवन में अनंत आनंद भर जायगा, अपार पवित्रता छा जायगी।10
भक्तियोग और कर्मयोग के संयोजन से निःसृत राजयोग की सुंदर, सहज और व्यावहारिक व्याख्या करके बाबा विनोबा ने श्रीमद्भगवद्गीता के उस लोकोपयोगी पक्ष को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जिसे जीवन जीते हुए, सरल और सहज साधना के साथ आत्मसात् किया जा सकता है। आज के जीवन में इसकी प्रासंगिकता समाज के निर्माण के लिए, जीवन की शुचिता के लिए, व्यवहार की पवित्रता के लिए, समर्पण और त्याग के साथ संबंधों के निर्वहन के लिए, और सच्चे अर्थों में मोक्ष की प्राप्ति के लिए है।
संदर्भ-
1. श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृ. 117,
2. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, प्रस्तावना,
3. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, पृ. 122-123,
4. वही, पृ. 126,
5. श्रीमद्भगवद्गीता का पद्यानुवाद, गणेश मिश्र ‘बनरा’, साहित्य मंदिर प्रेस, लखनऊ, प्रथम सं. 1937, पृ. 33-34,
6. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, पृ. 130,
7. वही, पृ. 138
8. वही, पृ. 139,
9. वही, पृ. 141,
10.  वही, पृ. 141 ।
डॉ. राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् व गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के संयुक्त तत्त्वावधान में नई दिल्ली में दिनांक 25-26 मार्च, 2018 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध-पत्र)