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Monday 30 April 2018

राजविद्या-राजगुह्य योग और विनोबा भावे के विचार






राजविद्या-राजगुह्य योग और विनोबा भावे के विचार

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।
राजविद्या  राजगुह्यं  पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं  धर्म्यं सुसुखं कर्तुमाव्ययम् ।।1
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम दोषदृष्टि रहित हो, भक्त हो, इसलिए मैं इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञानसम्मत और तर्कपूर्ण है, उसे बताऊँगा। तुम इस ज्ञान को जानकर इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो जाओगे। यह विज्ञानसम्मत और तर्कपूर्ण ज्ञान सभी विद्याओं का राजा है। यह समस्त गोपनीय ज्ञानों का राजा है। यह पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, धर्म से युक्त है। यह सुगम और अविनाशी है। गीता का नवम अध्याय उस ज्ञान की बात से शुरू होता है, जिसे विज्ञानसम्मत अर्थात तथ्यों पर खरा उतरने वाला बताया गया है। यह अत्यंत गोपनीय भी है, अर्थात यह सर्वसुलभ नहीं है, किंतु इसे प्राप्त करने का मार्ग जानकर और उस मार्ग पर चलकर यदि इस विज्ञानसम्मत ज्ञान को ग्रहण कर लिया जाए, इसे जीवन में उतार लिया जाए, तो यह सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होगा, इसके प्रत्यक्ष फल प्राप्त होंगे। धर्म से युक्त ऐसे विशिष्ट ज्ञान की विवेचना करने के कारण गीता में इस अध्याय का अपना विशिष्ट स्थान है।
धर्म, आस्था और भक्ति के रूढ़ अर्थों से अलग गीता व्यवहार की दृष्टि से, दैनंदिन जीवन के कार्य-व्यापार की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न भाष्यकारों, विद्वानों और तर्कशास्त्रियों ने इस कारण गीता का समग्र विवेचन विभिन्न तरीकों-पद्धतियों से किया है। विनोबा भावे द्वारा दिये गए गीता-प्रवचन इस संदर्भ एकदम अलग स्थान रखते हैं। गीता के समस्त अध्यायों पर दिये गए उनके प्रवचन पुस्तकाकार उपलब्ध हैं। अपने प्रवचनों को उन्होंने आम जनता के उपयोगार्थ केंद्रित किया है। वे ‘गीता प्रवचन’ की प्रस्तावना में लिखते हैं- इनमें तात्विक विचारों का आधार छोड़े बगैर, लेकिन किसी वाद में न पड़ते हुए, रोज के कामों की बातों का ही जिक्र किया गया है।.... यहाँ श्लोकों के अक्षरार्थ की चिंता नहीं, एक-एक अध्याय के सार का चितंन है। शास्त्र-दृष्टि कायम रखते हुए भी शास्त्रीय परिभाषा का उपयोग कम-से-कम किया है। मुझे विश्वास है कि हमारे गाँव वाले मजदूर भाई-बहन भी इसमें अपना श्रम-परिहार पाएँगे।2 इस प्रकार विनोबा के गीता-प्रवचन की समाज से निकटता और उनके प्रवचनों की लौकिक दृष्टि स्वतः प्रमाणित हो जाती है। पूज्य साने गुरुजी ने विनोबा के प्रवचनों को शब्दबद्ध किया। मराठी और हिंदी में विनोबा का ‘गीता प्रवचन’ एक अलग किस्म के भाष्य के रूप में, गीता को आत्मसात करने की नई दृष्टि के रूप में इस प्रकार सामने आ सका।
बाबा विनोबा के लिए श्रीमद्भगवद्गीता जीवन का दर्शन-मात्र नहीं है, वरन् जीवन को जीने की कला है, एक पद्धति है। वे इसी कारण गीता के विविध अध्यायों का विवेचन शास्त्र के स्थान पर लोक के आधार पर करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का नवाँ अध्याय इस कारण उनके लिए विशिष्ट हो जाता है, क्योंकि वे इस अध्याय के माध्यम से जीवन जीने की उस पद्धति को व्याख्यायित करते हैं, जो उनके समय की अनिवार्यता और आवश्यकता थी। वे गीता के नवम अध्याय पर प्रवचन की शुरुआत में ही कहते हैं-
यह अध्याय गीता के मध्य भाग में खड़ा है। सारी महाभारत के मध्य गीता और गीता के मध्य यह नवाँ अध्याय। अनेक कारणों से इस अध्याय को पावनता प्राप्त हो गई है। कहते हैं कि ज्ञानदेव ने जब अंतिम समाधि ली, तो उन्होंने इस अध्याय का जप करते हुये प्राण छोड़ा था। इस अध्याय के स्मरण मात्र से मेरी आँखें छलछलाने लगती हैं और दिल भर आता है। व्यासदेव का यह कितना बड़ा उपकार है, केवल भारतवर्ष पर ही नहीं, सारी मनुष्य-जाति पर उनका यह उपकार है। जो अपूर्व बात भगवान ने अर्जुन को बताई, वह शब्दों द्वारा प्रकट करने योग्य न थी। परंतु दयाभाव से प्रेरित होकर व्यासजी ने इसे संस्कृत भाषा द्वारा प्रकट कर दिया। गुप्त वस्तु को वाणी का रूप दिया। इस अध्याय के आरंभ में भगवान कहते हैं-
राजविद्या  राजगुह्यं  पवित्रमिदमुत्तमम् ।
यह जो राजविद्या है, यह जो अपूर्व वस्तु है, वह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। भगवान उसे ‘प्रत्यक्षावगम’ कहते हैं। शब्दों में न समाने वाली, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर कसी हुई यह बात इस अध्याय में बतायी गई है। इससे यह बहुत मधुर हो गया है। तुलसीदासजी ने कहा है-
को  जाने को  जैहे  जम-पुर,   को  सुर-पुर  पर-धाम  को ।
तुलसिहि बहुत भलो लागत, जग-जीवन रामगुलाम को ।।
मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग और उसकी कथाओं से यहाँ क्या काम चलेगा? कौन कह सकता है कि स्वर्ग कौन जाता है और यमपुर कौन जाता है? यदि संसार में चार दिन रहना है, तो राम का गुलाम बनकर रहने में ही मुझे आनंद है, ऐसा तुलसीदासजी कहते हैं। राम का गुलाम होकर रहने की मिठास इस अध्याय में है। प्रत्यक्ष इसी देह में, इन्हीं आँखों से अनुभूत होने वाला फल, जीते जी अनुभव की जाने वाली बातें इस अध्याय में बतायी गयी हैं।3
नवम अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए कथनों का ऐसा विश्लेषण अद्भुत है। तुलसी के राम जहाँ मर्यादा और आदर्श के प्रतीक हैं, वहीं विनोबा के राम मानव-मात्र हैं, जीव-मात्र हैं। यह जगत इसी कारण राममय है। मानव साक्षात् परमात्मा की ही मूर्ति है, इसलिए उसकी सेवा, उसकी भक्ति ही सबसे बड़ी है। संसार में जो प्रत्यक्ष है, उसकी सेवा पर हमें एकाग्र होना चाहिए। स्वर्ग, नर्क की कल्पनाओं में उलझकर अपने सांसारिक कर्मों को जटिल, आत्मकेंद्रित और कृत्रिम नहीं बनाना चाहिए। इसके लिए विनोबा बड़ी सहजता के साथ कृष्ण का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि- मोक्ष पर केवल मनुष्य का ही अधिकार नहीं, बल्कि पशु-पक्षी का भी है- यह बात श्रीकृष्ण ने साफ कर दी है।4 इंद्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा का विधान श्रीकृष्ण ने इसीलिए बताया था। गोवर्धन पर्वत, जो सबके सामने है, प्रत्यक्ष है। जिस पर हमारा जीवन आश्रित है, उसके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। वह वास्तव में परमात्मा का रूप है। इसी तरह गाय-बैल-अश्व और अन्य जीवधारी भी हैं। उनके प्रति समर्पण का भाव, उनके प्रति भक्ति का भाव रखना सीधे परमात्मा की भक्ति है, क्योंकि वे परमात्मा के ही प्रतिरूप हैं।
कौन्तेय ! जो  खाते  हो करते तथा आहुति जो करो ।
दान तप  जो  करो  वह   सब  मुझे  ही  अर्पण करो ।।
शुभ अशुभ जो फल कर्म बंधन यह किये से मुक्त हों ।
कर्म  सब  अर्पण  करो,  मुझसे  मिलो  अरु मुक्त हो ।।5
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कर्मयोग और भक्तियोग का सुंदर मेल है। कर्मयोग कर्म करने और फल की इच्छा न करने की बात कहता है। भक्तियोग ईश्वर के साथ भावपूर्ण जुड़ाव की बात कहता है। दोनों ही अलग-अलग दिशाओं पर केंद्रित हैं। नवम अध्याय में इन दोनों को इस प्रकार समीप लाया गया है, जोड़ दिया गया है, कि यह राजयोग बन गया है। यह योग गुह्य भी इसी कारण है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रदर्शित कर्मयोग और भक्तियोग का प्रत्यक्ष नहीं रह जाता, गोपनीय हो जाता है। यह जटिल साधना के साथ अंतरात्मा में केंद्रित हो जाता है। यह भक्ति और कर्म के सौंदर्य को आत्म-तत्त्व के सौंदर्य से जोड़कर श्रेष्ठतम बना देता है। बाबा विनोबा ने दैनंदिन जीवन के कार्य-व्यवहार में इस श्रेष्ठता को प्रतिष्ठापित करने हेतु राजयोग की अत्यंत सामयिक और सुंदर व्याख्या की है। वे लिखते हैं- फल का विनियोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिये। जो काम जैसा हो जाय, वैसा ही उसे भगवान को अर्पण कर दो। प्रत्यक्ष क्रिया जैसे-जैसे होती जाय, वैसे-ही-वैसे उसे भगवान को अर्पण करके मनरतुष्टि प्राप्त करते रहना चाहिए। फल को छोड़ना नहीं है, उसे भगवान को अर्पण कर देना है। यह तो क्या, मन में उत्पन्न होने वाली वासनाएँ और काम-क्रोधादि विकार भी परमेश्वर को अर्पण करके छुट्टी पाना है।6 इस प्रकार के भाव के साथ कर्म किया जाए, तो आज के समय की अनेक विकृतियों का शमन किया जा सकता है। भगवान को अर्पित करने के लिए भक्त जिस प्रकार शुद्ध पुष्प, जल, प्रसाद आदि का यत्न करते हैं, उसी प्रकार शुद्ध और सात्विक कर्मों के अर्पण हेतु वे प्रेरित होंगे। कर्म में शुचिता और पवित्रता स्वतः आ जाएगी। शरीर की प्रत्येक इंद्रिय द्वारा किया गया कार्य ईश्वर को अर्पण किया जाना है, यह मन में रखकर कार्य करना ही ‘राजयोग’ है। बाबा विनोबा द्वारा की गई ऐसी व्याख्या अद्भुत और अनुपम है। वे कहते हैं कि अर्पण करने हेतु विशिष्ट क्रिया का आग्रह नहीं है। कर्ममात्र ईश्वर को अर्पित कर देना है।
विनोबा ने सारे जीवन को हरिमय बनाने, अर्थात पावन-पुनीत बनाने का माध्यम राजयोग को ही बताया है। जीवन के हर क्षेत्र में इसकी उपादेयता को, इसकी प्रासंगिकता को वे सरल शब्दों में स्पष्ट करते हैं। वे घर-परिवार से लगाकर समाज तक हर क्षेत्र में इसकी उपादेयता को व्याख्यायित करते हैं। अध्ययन-अध्यापन में राजयोग की महत्ता को विशेष रूप से वे रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि- शिक्षण-शास्त्र में तो इस कल्पना की बड़ी ही आवश्यकता है, लड़के क्या हैं, प्रभु की मूर्तियाँ हैं। गुरु की यह भावना होनी चाहिये कि मैं इन देवताओं की ही सेवा कर रहा हूँ। तब वह लड़कों को ऐसे नहीं झिड़केगा- “चला जा अपने घर। खड़ा रह घंटे भर। हाथ लवाकर। कैसे मैले कपड़े हैं? नाक से कितनी रेंट बह रही है।” बल्कि हलके हाथ से नाक साफ कर देगा, मैले कपड़े धो देगा और फटे कपड़े सीं देगा। यदि शिक्षक ऐसा करे, तो इसका कितना अच्छा परिणाम होगा। मार-पीटकर कहीं अच्छा नतीजा निकाला जा सकता है? लड़कों को भी चाहिये कि वे इसी दिव्य भावना से गुरु को देखें। गुरु शिष्य को हरि मूर्ति और शिष्य गुरु को हरि मूर्ति मानें। परस्पर ऐसी भावना रखकर यदि दोनों व्यवहार करें, तो विद्या तेजस्वी होगी।7
विनोबा का मत है कि ऐसी भावना के साथ जब जीवन में कर्म किये जाएँगे, तब कर्म स्वयं पवित्र हो जाएगा और पाप का भय नहीं रह जाएगा। सब जगह प्रभु विराजमान हैं, ऐसी भावना चित्त में बैठ जाय, तो फिर एक-दूसरे के साथ हम कैसा व्यवहार करें, यह नीतिशास्त्र हमारे अंतःकरण में अपने आप स्फुरने लगेगा।8 ऐसी भावना को कर्म में उतारने के बाद नीतिशास्त्र और व्यवहार-विज्ञान के विशिष्ट अध्ययन की अनिवार्यता नहीं रह जाती है। जब कर्म पवित्र हो जाएगा, तब पाप और पुण्य का अंतर करने की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी। कर्म स्वतः पुण्यमय और पवित्र हो जाएगा।
इसी आधार पर वे जीवन की सार्थकता को प्रमाणित करते हैं। वे लिखते हैं- गीता में कुल सात सौ ही श्लोक हैं। पर ऐसे भी ग्रंथ हैं, जिनमें दस-दस हजार श्लोक  हैं। किंतु वस्तु का आकार बड़ा होने से उसका उपयोग भी अधिक होगा, ऐसा नहीं कह सकते। देखने की बात यह है कि वस्तु में तेज कितना है, सामर्थ्य कितनी है? जीवन में क्रिया कितनी है, इसका महत्त्व नहीं। ईश्वरार्पण-बुद्धि से यदि एक भी क्रिया की हो, तो वही हमें पूरा अनुभव करा देगी।9 इस प्रकार जीवन में विशिष्ट की प्राप्ति के लिए, मोक्ष के लिए अलग से यत्न करने की, प्रयास करने की बात बाबा विनोबा नहीं करते। वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में, कर्म के किसी भी स्तर पर, किसी भी क्षण पवित्र भावना से कर्म करने और उसे ईश्वर को अर्पित कर देने की क्रिया को ही श्रेष्ठ बताते हैं। वे कहते हैं कि- बोने और फेंक देने में फर्क है। बोया हुआ थोड़ा भी अनंतगुना होकर मिलता है। फेंका हुआ यों ही नष्ट हो जाता है। जो कर्म ईश्वर को अर्पण किया गया है, उसे बोया हुआ समझो। उससे जीवन में अनंत आनंद भर जायगा, अपार पवित्रता छा जायगी।10
भक्तियोग और कर्मयोग के संयोजन से निःसृत राजयोग की सुंदर, सहज और व्यावहारिक व्याख्या करके बाबा विनोबा ने श्रीमद्भगवद्गीता के उस लोकोपयोगी पक्ष को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जिसे जीवन जीते हुए, सरल और सहज साधना के साथ आत्मसात् किया जा सकता है। आज के जीवन में इसकी प्रासंगिकता समाज के निर्माण के लिए, जीवन की शुचिता के लिए, व्यवहार की पवित्रता के लिए, समर्पण और त्याग के साथ संबंधों के निर्वहन के लिए, और सच्चे अर्थों में मोक्ष की प्राप्ति के लिए है।
संदर्भ-
1. श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृ. 117,
2. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, प्रस्तावना,
3. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, पृ. 122-123,
4. वही, पृ. 126,
5. श्रीमद्भगवद्गीता का पद्यानुवाद, गणेश मिश्र ‘बनरा’, साहित्य मंदिर प्रेस, लखनऊ, प्रथम सं. 1937, पृ. 33-34,
6. गीता प्रवचन, विनोबा, अनुवादक- हरिभाऊ उपाध्याय, अखिल भारत सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, काशी, सं. 1956, पृ. 130,
7. वही, पृ. 138
8. वही, पृ. 139,
9. वही, पृ. 141,
10.  वही, पृ. 141 ।
डॉ. राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् व गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के संयुक्त तत्त्वावधान में नई दिल्ली में दिनांक 25-26 मार्च, 2018 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध-पत्र)

Wednesday 24 May 2017

19वें कुशक बकुला रिनपोछे 19th Kushok Bakula Rinpoche




19वें कुशोग बकुल रिनपोछे का जीवन और योगदान

बकुल लोबस़ङ थुबतन छोगनोर, जिन्हें लदाख अंचल सहित देश-विदेश में कुशोग बकुल रिनपोछे के रूप में जाना जाता है। ऊँची-ऊँची हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों की तरह निर्मल, पवित्र और महान व्यक्तित्व वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे लदाख के युगपुरुष के रूप में जाने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे की पहचान समाज-सुधारक, आधुनिक लदाख के निर्माता, शिक्षाविद, करुणा के अपार सागर से भरे सच्चे भिक्षु और कुशल प्रशासक-संचालक के रूप में रही है। आज भी उन्हें इसी रूप में याद किया जाता है।
19 मई, सन् 1917 को लदाख के मङठो गाँव के राजपरिवार में नङवा थाये और येशे वङमो की संतान के रूप में जन्म लेने वाले कुशोग बकुल को तेरहवें दलाई लामा द्वारा अर्हत बकुल के उन्नीसवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई थी। अर्हत बकुल भगवान बुद्ध के सोलह प्रधान शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे नौ वर्ष की आयु में उच्च अध्ययन के लिए तिब्बत चले गए। सन् 1940 में वे लदाख लौटे। उस समय का लदाख बहुपति प्रथा, पशुबलि, भेदभाव, अशिक्षा और गरीबी जैसी सामाजिक बुराइयों से जूझ रहा था। भारत की आजादी और विभाजन जैसी राजनीतिक हलचलों के कारण लदाख राजनीतिक संकटों से भी घिर रहा था। ऐसी स्थिति में पूज्यपाद बकुल रिनपोछे अपनी धार्मिक जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आए। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के विकास पर, खासतौर से बालिका शिक्षा पर जोर दिया। वे खुद जीवन-भर एक शिक्षार्थी की तरह अध्ययन करते रहे और समाज को शिक्षा की अहमियत बताते रहे।
सन् 1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे सक्रिय राजनीति में आए और सन् 1951 में राज्य विधानमंडल के सदस्य चुने गए। 12 दिसंबर, 1952 को राज्य विधानमंडल के बजट भाषण में जिस बेबाकी के साथ उन्होंने लदाख की दयनीय और उपेक्षापूर्ण स्थिति को प्रकट किया, उससे यह सिद्ध हो गया कि भगवान बुद्ध का सच्चा शिष्य ही निडर होकर सत्य के साथ खड़ा हो सकता है और सच्चाई को कह सकता है। अपने इस अभूतपूर्व व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि लदाख अंचल में शिक्षा, रोजगार, संचार, स्वास्थ्य और आवागमन के साधन नाममात्र को भी नहीं हैं। यह लदाख के लोगों की सहनशीलता और शांतिप्रियता है, जिसके कारण वे अनीति और पक्षपात को झेल रहे हैं। इस भाषण ने कुशोग रिनपोछे को लदाख का सर्वमान्य नेता ही नहीं बनाया, बल्कि आधुनिक लदाख के निर्माण की नींव भी रख दी। सन् 1953 से 1967 तक राज्य विधानमंडल में, और फिर सन् 1967 से 1977 तक लोकसभा के सांसद के रूप में वे लदाख के लोगों की आवाज को बुलंद करते रहे। केंद्रीय अल्पसंख्यक आयोग सहित विभिन्न संसदीय समितियों और संगठनों के सदस्य के रूप में वे समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग की सहायता करते रहे। राज्य विधानमंडल में लदाख मामलों के लिए स्वतंत्र विभाग, लदाख स्वायत्तशाषी पर्वतीय विकास परिषद् का गठन और दिल्ली में लदाख बौद्ध विहार की स्थापना उनके प्रयासों का ही नतीजा है।
एक राजनेता ही नहीं, समाज-सुधारक के रूप में भी उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने अनेक कष्ट उठाकर लदाख के हर-एक गाँव की यात्रा की। अपनी यात्राओं के दौरान वे लोगों को सामाजिक बुराइयों को छोड़ने के लिए कहते थे। उनका सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर होता था। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने परंपरागत शिक्षा ही ग्रहण की थी, मगर वे आधुनिक शिक्षा का महत्त्व भली भाँति जानते थे। सन् 1955-56 में वे भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में तिब्बत की यात्रा पर गए थे। वहाँ बदलते राजनीतिक हालातों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था। देश-दुनिया में आते बदलावों को समझते हुए उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि लदाख के युवाओं को जब तकनीकी, औद्योगिक और चिकित्सा शिक्षा मिलेगी, तभी इस क्षेत्र का समुचित विकास हो सकेगा और लदाख भी देश की मुख्यधारा से जुड़ेगा। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है। अपने अधिकारों को पाने के लिए आधुनिक शिक्षा लेना जरूरी है। इसी कारण वे दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचकर किसानों को, मजदूरों को प्रेरित करते थे, कि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजें। उनके इन्हीं प्रयासों का नतीजा था, कि छोटी आमदनी वाले किसान और मजदूर भी अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आए। शिक्षा के लिए लदाख अंचल में आई जागरूकता कुशोक बकुल रिनपोछे के प्रयासों का ही नतीजा है। 
उन्होंने अपने प्रयासों से कई विद्यालयों की स्थापना भी की। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने के बाद बौद्ध दर्शन के परंपरागत विषयों के साथ ही मानविकी, विज्ञान और तकनीकी जैसे आधुनिक विषयों के अध्ययन की संभावनाएँ बनीं हैं। शिक्षा के संबंध में बकुल रिनपोछे की परिकल्पना थी कि शोध और अनुवाद के द्वारा परंपरागत विद्याओं का अध्ययन आधुनिक संदर्भों में किया जाए। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान आज उनके विचारों को सच करता हुआ नज़र आता है।
एक दूरदर्शी राजनेता, और एक श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में उन्होंने मंगोलिया के राजदूत की जिम्मेदारी को निभाया। वहाँ की दिशाविहीन जनता को धर्म और सत्कर्म का रास्ता दिखाकर उन्होंने केवल मंगोलिया को ही नहीं, सारे विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसी कारण उन्हें मंगोलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पोलर स्टार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कुशोग बकुल रिनपोछे ने 04 नवंबर, सन् 2003 को छियासी वर्ष की श्रीआयु में अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। उनकी प्रेरणा, उनका मार्गदर्शन और उनकी नसीहतें आज भी पथ-प्रदर्शक बनकर लदाख को विकास की ऊँचाइयों तक ले जा रही हैं। समानता, समरसता, सौहार्द, मेल-जोल और शांतिपूर्ण जीवन का उनका आदर्श आज भी जीवित है, जीवंत है।









डॉ. राहुल मिश्र
(एफएम रेनबो, नई दिल्ली से सांस्कृतिक डायरी कार्यक्रम के अंतर्गत 10 मई, 2017 को रात्रि 10.00 बजे प्रसारित एवं आकाशवाणी, लेह से 19 मई, 2017 को प्रातः 09.10 बजे प्रसारित)

Sunday 3 November 2013

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ
शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में भारतीय विचारधारा की सुदीर्घ परंपरा वैदिक काल से निरंतरता के साथ चलती रही है। भारत में अंग्रेजों के आगमन और 02 फरवरी, सन् 1935 को गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक की काउंसिल में मैकाले द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझावों की भारतीय उपनिवेश में स्वीकार्यता ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पुरातन-परंपरागत धारा को एकदम बदल दिया। मैकाले के सुझावों के आधार पर भारत में यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से भारतीय लोगों को दिये जाने का प्राविधान किया गया। इसके परिणामस्वरूप परंपरागत शिक्षा-व्यवस्था के स्थान पर मैकाले की योजना अपनी जड़ें मजबूत करती रही। इसके शुभ और अशुभ परिणाम भारतीय समाज में अनेक तरीकों से परिलक्षित होते रहे।
देश की आजादी के पहले ही आजाद देश की शिक्षा-व्यवस्था का स्पष्ट, व्यावहारिक और सर्वथा उपयोगी खाका खींचने का कार्य महात्मा गांधी ने किया। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा कि, अंग्रेजी बिलकुल ही न पढ़ने से हमारा काम चले, ऐसा समय नहीं रहा। अतः जो लोग अंग्रेजी पढ़ चुके हैं वे उस शिक्षा का सदुपयोग करें। जहाँ जरूरी मालूम हो वहाँ उससे काम लें। अंग्रेजों के साथ व्यवहार करने में, उन हिंदुस्तानियों के लिए जिनकी भाषा हम नहीं समझते, और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे आजिज आ गये हैं। यह जानने के लिए हमें अंग्रेजी सीखनी चाहिए। जिन्होंने अंग्रेजी पढ़ ली है उन्हें चाहिए कि अपने बच्चों को पहले सदाचार और अपनी भाषा सिखाएँ। फिर हिंदुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखाएँ। जब वे प्रौढ़ वय के हो जाएँ तब चाहें तो अंग्रेजी पढ़ सकते हैं। पर उद्देश्य यही हो कि हमारे लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी न हो, उससे पैसा कमाना नहीं।1 अनेक विविधताओं से भरे भारत देश को एक राष्ट्र की भावना में बाँधने के लिए महात्मा गांधी ने भाषार्इ समन्वय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के व्यवहार की पुरजोर वकालत की। आजादी पाने के बाद आजाद भारत के पहरुओं के लिए गांधी के विचार प्रासंगिक नहीं रहे और उनकी प्राथमिकताएँ एक बार फिर मैकाले मिनट्स के इर्द-गिर्द घूमने लगीं। आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों, सामाजिक न्याय, समता और समानता के अवसर जैसे शब्दों के आवरण में सिमटकर चलती रही। यहाँ मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद के व्यक्तिगत प्रयासों का उल्लेख करना आवश्यक होगा। भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने गांधीवादी विचारों के अनुरूप भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भारतीय संस्कृति की उपस्थिति को, शिक्षा की समतापूर्ण सर्वसुलभता को और शिक्षा के जनतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था के दिशा निर्धारण में मौलाना आज़ाद की भूमिका अविस्मरणीय रही। शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण ने गांधी और मौलाना आज़ाद के विचारों को, प्रयासों को ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहने दिया। बाद में डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन, डॉ. संपूर्णानन्द, डॉ.दौलत सिंह कोठारी, डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियार, आचार्य राममूर्ति, आदि शिक्षाविदों के संयोजन में, नेतृत्व में अनेक समितियों और आयोगों ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में अनेक सुझाव दिये, सुधार भी हुए।
आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था के लिए इन मनीषियों के सुझाव सार्थक हुए, उपयोगी भी हुए, किन्तु शिक्षा के विशुद्ध भारतीय स्वरूप को शेष रख पाने की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके। फलतः शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य भौतिक संसाधनों को उपलब्ध कर पाने और व्यक्तिगत स्वार्थों को पूर्ण कर पाने की चेष्टाओं में निहित हो गया। लिंग आधारित, अवसर आधारित और जाति-धर्म-पंथ आधारित असमानताएँ अलोकतांत्रिक अवधारणा के प्रतीकों के रूप में आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हावी रहीं। नब्बे के दशक में आए आर्थिक उदारीकरण, विनिवेश, विश्वव्यापारीकरण और बहुराष्ट्रीकरण के कारण भारतीय समाज में और साथ ही भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव आने लगा।
इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का स्वरूप इन्हीं सब बदलावों को साथ लेकर बना है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत ही बहुराष्ट्रीकरण, आर्थिक उदारीकरण और इनके कारण आर्इ सूचना-संचार क्रांति के व्यापक प्रभावों को लेकर हुर्इ। मैकाले मिनट्स के साथ बदली परंपरागत भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को एक बार फिर बदलने का कार्य विश्वग्राम संस्कृति ने किया। विज्ञान, दर्शन और मानविकी के विषयों की प्रासंगिता पर प्रश्न-चिन्ह लगने लगे और अनेक नये विषयों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों और तकनीकों का आगमन शिक्षा-व्यवस्था में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित हुए अंतरराष्ट्रीय पब्लिक स्कूल शिक्षा के वैश्विक स्वरूप के ऐसे ज्वलंत प्रतिमान हैं, जो बचपन में ही यूरोप और अमेरिका, आदि देशों के शैक्षिक भ्रमण के साथ ही बच्चों को ग्रीन कार्ड का सुंदर सपना दिखा देते हैं। माध्यमिक और उच्च शिक्षा-स्तर पर विदेशों में अध्ययन करना आज का स्टेटस सिंबल है। जो विद्यार्थी अध्ययन के लिए विदेश नहीं जा सकते, उनके लिए देश में ही स्थापित हुए निजी विश्वविद्यालयों में वैश्विक स्तर के ऐसे नए-नए पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं, जिनके साथ प्लेसमेंट की सुनिश्चतता भी जुड़ी होती है। इसके लिए कर्ज पाना भी कठिन नहीं रहा है।
प्रबंधन और तकनीकी उच्च शिक्षा हेतु स्थापित छह भारतीय संस्थान (आर्इआर्इएम) व नौ भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान (आर्इआर्इटी) देश में ही नहीं, विदेशों में भी ख्याति रखते हैं। इन संस्थानों से पढ़कर निकले छात्र देश में ही नहीं, विदेशों में भी उच्च पदों पर कार्य कर रहे हैं। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, सूचना-तकनीकी और कम्प्यूटर विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में भारतीय मेधा की काबिलियत वैश्विक स्तर पर स्थपित हुर्इ है। आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 1998 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों से निकले कम्प्यूटर इंजीनियरों में से लगभग तीस प्रतिशत कम्प्यूटर इंजीनियर अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में काम कर रहे हैं। भारत के हर दस में से चार सॉफ़्टवेयर इंजीनियर विदेशों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। विगत पंद्रह वर्षों में ये आँकड़े तेजी से बदले हैं।
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में उभरे सूचना-तकनीकी-चिकित्सा-संचार और प्रबंधन के अध्ययन को व्यवस्थित करने का कार्य प्रमुख रूप से राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने किया। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रमुख प्रेरक बल के रूप में ज्ञान को स्वीकार करते हुए, वैश्विक स्तर पर एक प्रतियोगी खिलाड़ी के रूप में उभरने की भारत की क्षमता की ज्ञान संसाधनों पर निर्भरता को स्वीकार करते हुए और 25 वर्ष से कम आयु के 55 करोड़ युवकों सहित भारत की मानवीय पूँजी को सामर्थ्यवान बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए 13 जून, सन् 2005 को श्री सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया गया। सन् 2006 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिशें दीं कि पुस्तकालय, अनुवाद, अंग्रेजी भाषा अध्यापन, राष्ट्रीय ज्ञान तंत्र (नेटवर्क), शिक्षा का अधिकार, व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण, उच्चतर शिक्षा, राष्ट्रीय विज्ञान और समाज विज्ञान प्रतिष्ठान तथा र्इ-अधिकारिता के क्षेत्रों में त्वरित विकास किया जाए। सन् 2007, 2008 और 2009 में क्रमशः मुक्त शैक्षिक पाठ्य विवरण, प्रबंध शिक्षा, बौद्धिक संपदा अधिकार, नवाचार; स्कूल शिक्षा, उत्तम पी-एच.डी., उद्यमशीलता; कृषि, जीवन-स्तर में सुधार लाना आदि प्रमुख सिफारिशें दी गर्इं।2 प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में कार्य करने वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रत्येक राज्य में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, एक चिकित्सा संस्थान, एक प्रबन्धन संस्थान और एक प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने की दिशा में प्रयास किये गये और इनमें अपेक्षित सफलता भी प्राप्त हुर्इ।
शिक्षा-व्यवस्था के निजीकरण की अवधारणा के विकसित होने के साथ ही निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इण्टर कॉलेजों और पब्लिक स्कूलों की संख्या भी देश में तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के निजीकरण ने जहाँ एक ओर ज्ञान की सुलभता के अवसरों की वृद्धि की है, वहीं दूसरी ओर शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों, शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के अनुप्रयोगों, कक्षाओं के स्वरूप बदलावों, सूचनाओं की असीमित उपलब्धताओं और व्यावहारिकताओं को, खुलेपन को बढ़ावा दिया है। जाति-धर्म-लिंग और आर्थिक असमानता आदि का विभेद आज उतनी शिद्दत के साथ दिखार्इ नहीं पड़ता है, जितना कि देश की आजादी के तीस-चालीस वर्ष बाद हुआ करता था।
निश्चित रूप से यह इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाओं का सुखद पक्ष है, सकारात्मक पक्ष है। 21 वीं सदी में शिक्षा का आश्चर्यजनक रूप से प्रचार एवं प्रसार हुआ है व साक्षरता का स्तर बढ़ा है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम हमें 14 वीं लोकसभा के चुनाव में भी देखने को मिला है। अब तक की चुनी गर्इ सभी लोकसभाओं से अधिक शिक्षित व्यक्ति चुनकर लोकसभा के सदस्य बने हैं। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में 21 वीं सदी में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। सन् 1951 में जहाँ केवल 16.67 प्रतिशत साक्षरता थी, वहीं 2001 में 65.38 प्रतिशत साक्षरता हो गर्इ है। अब शिक्षा किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं अपितु सर्वसुलभहै।3
इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाएँ जितनी सुखद और सकारात्मक हैं, उतनी ही अधिक चुनौतियाँ भी हैं। इक्कसीवीं सदी की भारतीय शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों को समझने के लिए यूनेस्को द्वारा गठित डेलोर्स आयोग के सन् 1996 मेंप्रस्तुत प्रतिवेदन- लर्निंग- द ट्रेज़र विदिन पर नजर डालनी होगी। आयोग ने विश्व स्तर पर प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष तीन संकट देखे हैं- आर्थिक संकट, प्रगति की अवधारणा संकट और किसी-न-किसी प्रकार का नैतिक संकट। आयोग का यह निष्कर्ष निर्विवाद है। भारत के समक्ष भी ये तीनों संकट विशाल या यों कहें, विकराल रूप से उपस्थित हैं।...असमानता और गरीबी तब तक कैसे घटेंगी जब तक विश्व को केवल एक बाजार माना जायेगा। भौतिक उपलब्धियों की होड़ बढ़ती जाएगी। मानवीय संवेदनाएँ घट रहीं हैं। लोग एक-दूसरे के पास नहीं आ रहे हैं, शायद दूर होते जा रहे हैं। लोग एक दूसरे से क्षणों में संपर्क स्थपित कर सकते हैं, दूरियों की परिभाषाएँ बदल गईं हैं। विश्व भर में किसी भी जगह क्षण भर में संपर्क स्थपित कर पाना वास्तविकता है। फिर भी हम पड़ोसियों जैसा व्यवहार क्यों नहीं कर पा रहे हैं, वी हैव बिकम नेबर्स नॉट नेबरली।4
भारत की आजादी के ठीक पहले भारतीय लोगों की आपस में दूरियाँ बढ़ रहीं थीं, परिणामस्वरूप देश विभाजित हुआ। आजाद भारत में भी क्षेत्र, भाषा और तहजीब पर आधारित विभेद महात्मा गांधी की स्वराज की कामना को खंडित करता रहा। तमाम मनीषियों के अनथक प्रयासों ने इसे कम अवश्य किया, मगर इसे समाप्त करने में सफलता नहीं दिलार्इ। इक्कीसवीं सदी में शिक्षित भारतीय समाज आज फिर से भाषार्इ-जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय-प्रांतीय और ऐसे ही अनेक विभेदों में बँट रहा है। इसका प्रमुख कारण पुरातन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में निहित मूल्यों का वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में नहीं होना है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता की शिक्षा की नवीन अवधारणा की स्थापना का अभाव भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त लिखते हैं कि, राष्ट्रीय एकता की शिक्षा वास्तव में भारत की शिक्षा प्रणाली में एक नवीन प्रयोग है। जिसके नवीन परिणाम अभी तक संतोषप्रद नहीं रहे हैं। पहले पच्चीस वर्ष तो उसे परिभाषित करने में ही लगे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो शताब्दियों बाद एक आशा बँधी कि नये परिवेश में नये उत्साह के साथ हम एक-दूसरे की विविधताओं के सौंदर्य को सराहेंगे, लेकिन इन आशओं को मृग-तृष्णा सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगा।5
देश की आजादी के बाद देश की सांस्कृतिक विविधता को और अपनी अनूठी राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान को सुरक्षित रख पाने, संरक्षित और संवर्द्धित कर पाने की अभिलाषा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकी। 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार की सार्वभौमिक आवश्यकता अब सर्वमान्य है। यह भी आधिकारिक तौर पर विश्व के सभी देश स्वीकार कर चुके हैं कि प्रत्येक देश की शिक्षा-व्यवस्था की जड़ें उसकी ‘अपनी’ संस्कृति में स्थापित होनी चाहिए और उसकी प्रतिबद्धता प्रगति तथा भविष्य के लिए स्पष्ट और उजागर होनी चाहिए। यह तभी संभव होगा, जब देश की नीतियाँ, विशेषकर शिक्षा नीतियाँ, शिक्षा और संस्कृति के जुड़ाव की आवश्यकता को स्वीकार करें और इस जुड़ाव में नर्इ पीढ़ी की आस्था उत्पन्न करने का प्रयास करें। ऐसा न करने या न कर पाने पर अंतर ‘संस्कारों’ में ही आता है और वही अपने प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में दिखाता है।6
शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी, राष्ट्रीय एकता के अभाव और शिक्षा की ‘अपनी’ संस्कृति से दूरी, इन चुनौतियों की जड़ों को तलाशने का प्रयास करते हुए हमें इक्कीसवीं सदी की शिक्षा-व्यवस्था के उन दो आधारों को देखना होगा, जो सरकारी और निजी व्यवस्था में बँटे हुए हैं। सरकारी शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है। नौकरशाही का संचलन भी राजनीति-केंद्रित है। इस कारण सत्ताधारी राजनीतिक दल अपनी विचारधारा का सामाजिक प्रयोग सरकारी शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से करते हैं। अनेक राज्य सरकारों से लगाकर केंद्र सरकार तक फैली इस मानसिकता को बड़ी सहजता के साथ देखा जा सकता है। दूसरी ओर निजी शिक्षा-व्यवस्था है, जिसमें पूँजीपतियों का वर्चस्व कायम है। सरकारें संसाधनों की कमी से ग्रस्त हैं। अत: प्राइवेट रूप से शिक्षा-व्यवस्था करने वालों के समुदाय में वृद्धि हो रही है। कर्इ दशकों तक ‘व्यापारी’ रहे लोग एकाएक शिक्षा में रुचि लेने लगे हैं। वे इसे अधिक फायदे का सौदा समझते हैं और व्यापार के अनुभवों का उपयोग करते हुए संस्थाओं के भव्य भवन खड़े कर देते हैं। संपर्क-सूत्रों का उपयोग करते हैं और शिक्षाविद् बनकर सम्मान के अधिकारी बन जाते हैं। 2006 में ग्यारह हजार भारतवासी नये करोड़पति बने। अत: शिक्षा में शुल्क कितना ही बढ़ाया जाए, ऐसे लोगों को ग्राहक तो मिलते ही रहेंगे। मेरा आशय यह नहीं है कि प्राइवेट स्कूलों (जिन्हें कहा तो पब्लिक स्कूल ही जाता है) को चलाने वाले या नए छत्तीसगढ़ी विश्वविद्यालय चलाने वाले सब इसी श्रेणी में आते हैं। वस्तुस्थिति से परिचित तो सभी हैं। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि इन स्कूलों में अभी भी संबंधित स्कूल बोर्ड की सालाना परीक्षा के कारण अंकों का उपलब्धि स्तर अधिक रहता है। स्वायत्तशासी विश्वविद्यालयों को तो सब कुछ स्वयं ही निर्णीत करना होता है। परिणास्वरूप पढ़ाने के अध्यापक तथा दिखाने के अध्यापक जैसी श्रेणियों का प्रादुर्भाव हुआ है। यह एक परिस्थितिजन्य नवाचार है, जिसमें प्रबंधन, संस्थान और शिक्षार्थी सभी प्रसन्न-मुक्त रहते हैं।7
निजी और सरकारी, दोनों शिक्षा-व्यवस्थाओं में आर्इ विकृतियों का कारण शिक्षविदों और समाज के विविध वर्गों के जागरूक प्रतिनिधियों का शिक्षा-व्यवस्था से दूर हो जाना है। आर्थिक हित, वैचारिक हित और वैयक्तिक स्वार्थ साधन के बँधे-बँधाए साँचों में परिवर्तन की संभावनाओं का शून्य होते जाना जनतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों के विपरीत होता है। शिक्षा में इसी कारण जनतांत्रिक व्यवस्था का अभाव गहराता जा रहा है। इसके परिणास्वरूप नर्इ पीढ़ी का जनतांत्रिक मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। इस संदर्भ में प्रो. रामसकल पाण्डेय अपना मत व्यक्त करते हैं कि, वर्तमान शिक्षा बालक में जनतंत्र के प्रति आस्था नहीं उत्पन्न कर पाती अत: इस शिक्षा में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें उस शिक्षा को महत्त्व देना चाहिए, जो कुशल नागरिक का निर्माण करे। इस प्रकार की शिक्षा में केवल विषय-ज्ञान का महत्त्व नहीं होगा। बालकों को जीवन के सभी अनुभवों की शिक्षा मिलनी चाहिए और उन अनुभवों के अभ्यास के लिए अवसर मिलना चाहिए। बालक को शिक्षा इसलिए नहीं देनी है कि अनेक उपाधियों से वह अपने नाम को अलंकृत कर सकें। वरन् इसलिए शिक्षा देनी है कि वह व्यवहारकुशल बन सकें और जीवन में ज्ञान का उपयोग कर सकें।8
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों के संदर्भों की चर्चा करते हुए आवश्यक होगा कि उस वर्ग की विचारधारा को भी जान-समझ लिया जाए, जिससे देश, काल समाज की अपेक्षाएँ अपने व्यापक सरोकारों के साथ जुड़ी होती हैं। उस वर्ग को बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता है। नानी पालखीवाला के शब्दों में, दुर्भाग्यवश आज अपने युग में हमने बुद्धिजीवी का मोल घटा डाला है और इस शब्द को मिट्टी में मिला दिया है। आज ‘बुद्धिजीवी’ का अर्थ बदल गया है। आज बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जो इतना चतुर एवं चालाक है कि भाँप सके कि रोटी का कौन सा भाग चिकना चुपड़ा है।9
समग्रतः, इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था अनेक चुनौतियों के बावजूद सकारात्मक दिशा में असीमित संभावनाओं को स्वयं में समेटे हुए आगे बढ़ रही है। अनुभवों से और स्थिति  की अनिवार्यताओं से सीखने की पुरातन स्थापित अवधारणा का अनुगमन करते हुए नैतिक मूल्यों की सीख आज की पीढ़ी को स्वतः प्राप्त हो रही है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों पर सरकारी अमल शिक्षा-व्यवस्था को निश्चित रूप से सकारात्मक दिशा में ले जाएगा। व्यवस्था-सुधार के प्रति, नैतिक मूल्यों की स्थापना के प्रति और राष्ट्रीय एकता की भावना के प्रति युवा-आग्रह का स्वर गाहे-ब-गाहे सुनार्इ दे जाता है। यह निश्चित रूप से सापेक्ष परिणाम का शुभ संकेत है। युवा शक्ति के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी भारत निश्चित रूप से विश्व-शक्ति बनकर उभरेगा, यह संभावना नकारी नहीं जा सकती। इतना अवश्य है कि पीढ़ियों के टकराव को, विविध विभेदों के संक्रमण को रोकने का दायित्व राष्ट्र के हित में सभी को निभाना होगा। अंत में, अल्लामा इकबाल की लिखी दो पंक्तियाँ, जो बहुत कुछ कह जाती हैं, नसीहत दे जाती हैं--
   आइने नौ से डरना,  तर्ज़-ए-कुहन पर अड़ना।
मंज़िल यही कठिन है,  कौमों की ज़िंदगी में।।
संदर्भ-
1    हिन्द स्वराज, महात्मा गांधी, अनु. कालिका प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल प्रका., नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ- 82
4    शैक्षिक परिवर्तन का यथार्थ, शिक्षा के सार्थक सरोकार, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत, विद्या विहार, नई दिल्ली, 
      2006, पृष्ठ- 81-82  
5    आधुनिक भारतीय शिक्षा : समस्या चिंतन, शिक्षा प्रणाली : लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की समस्या,              
      डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़, 1991, पृष्ठ- 198
6    क्यों तनावग्रस्त है शिक्षा-व्यवस्था ?, शिक्षा से दूर होते मूल्य एवं संवेदनाएँ, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत,
      किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ- 36 
7    वही,  पृष्ठ- 12 
8    आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन, भारतीय जनतंत्र और शिक्षा (व्याख्यान), प्रो. रामसकल पाण्डेय, केंद्रीय हिंदी
      संस्थान, आगरा, 1988, पृष्ठ- 40
9    हम भारत के लोग, बुद्धिजीवी का विश्वासघात, नानी पालखीवाला, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991,  
      पृष्ठ- 19
डॉ. राहुल मिश्र
(केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान, लेह-लदाख में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, 01-04 जुलाई, 2013 में प्रस्तुत शोध-पत्र, लदाख प्रभा-18 में प्रकाशित)