बाँदा : परंपरा और नवीनता का एक शहर
बुंदेला शासकों से पहले उस शहर की हैसियत
एक गुमनाम गाँव से ज्यादा नहीं थी। आज वह शहर बुंदेलखंड के एक मंडल का मुख्यालय
है। मेरे लिए यह रोमांचकारी घटना से कम नहीं कि उस शहर में मेरा बचपन गुजरा है। यह
कथा-यात्रा उस शहर की है, जिसके कलेजे को चीरती हुई पूरब से पश्चिम रेलवे लाइन
गुजरती है। पूरब से घुसें तो किसी पुराने तालाब और हवेली के भग्नावशेष दिखाई देते
हैं और पश्चिम से घुसने पर भूरागढ़ का किला और फिर केन नदी। बंबेसुर (वामदेवेश्वर)
पहाड़ तो बहुत दूर से ही दिखने लगता है। हाँ ! यह वही बंबेसुर पहाड़, भूरागढ़ और केन
नदी है, जो गोविंद मिश्र की कथाभूमि और केदारबाबू की कविताओं के सजीव पात्र हैं।
आपने सही पहचाना, यह बांदा शहर ही है, जिसे महर्षि वामदेव की कर्मभूमि और महाकवि
पद्माकर की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है।
कोल और भील आदिवासियों की आबादी के कारण इसे खुटला बाँदा
कहा गया, आज भी एक मुहल्ला खुटला नाम से कायम है। यह महसूस करना भी कम रोमांचकारी
नहीं है कि ‘बायाँ’ का ‘बा’ और दायाँ का ‘दा’ मिलकर बाँदा बना, जहाँ वाम पक्ष भी उतना ही लड़ाका, जितना
दक्षिण पक्ष। रहे होंगे ‘महुबे वाले बड़े लड़इया’, अब तो बाँदा वाले बाजी मारे हुए हैं।
वैसे शहर उतना बुरा नहीं, स्टेशन की चकाचक, नई-नवेली बिल्डिंग से बाहर आते ही
हनुमान मंदिर और चाय-पान की दूकानों पर जुटी भीड़ कई गलत धारणाओं को सिरे से नकार
देती है। हनुमान मंदिर में इधर कुछ दिनों से कीर्तन मंडली ने भी कब्जा जमा रखा है।
कीर्तन मंडली के जरिए कबीरी, उमाह, फाग, ढिमरयाई और इसी तरह के लोकगीत गायकों को
एक मंच मिल जाता है। यह उपेक्षित लोकगायक रात भर के लिए भीड़ को अपने मोहपाश में
बाँध लेते हैं। वैसे भी स्टेशन रोड पूरे शहर के लिए टाइमपास करने और घूमने के लिए
इकलौता अड्डा है। दिन में पं. जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के परिसर, कचेहरी और उसके
आस-पास वाला भीड़ का दबाव शाम ढलते ही स्टेशन रोड की ओर खिसक आता है।
कचेहरी में जुटने वाली भीड़ को देखकर सहज ही अनुमान लगाया
जा सकता है कि यहां के लोगों को मुकदमे और न्यायपालिका पर कितना विश्वास है। संचार
क्रांति से पहले कंधे में बंदूक टाँगकर निकलना यहाँ के लोगों का ‘स्टेटस सिंबल’ हुआ करता था,
भले ही जूते फटे हों, लेकिन अब बंदूक की जगह मोबाइल फोन ने ले रखी है। साथ में
बंदूक भी हो तो कहने ही क्या ? वैसे कचेहरी की भीड़ बढ़ाने वालों में कुछ खबरची और छुटभैये
टाइप के नेता भी होते हैं जो टाइमपास करने के लिए मूँगफली चबाते और पान की पीक से
सड़कों पर अजीबोगरीब पेंटिंग बनाते टहलते रहते हैं।
कचेहरी चौराहे की अशोक लाट देश की आजादी में योगदान देने
वाले बाँदा के वीरों को याद करती और आजाद देश की आजादी का बखान करती है। अशोक लाट
की पार्कनुमा जमीन अब दूसरी भूमिका निभा रही है। शासन-प्रशासन से माँगें मनवाने
वालों, धरना-प्रदर्शन करने वालों का, दीन-दुखियारों का यह इकलौता सहारा है और
जनवरी से लेकर दिसंबर तक हर समय आबाद रहता है। जब लंबे समय तक कोई बड़ा नेता शहर में नहीं आता या कोई बड़ी घटना
नहीं होती या फिर कोई राजनीतिक भूचाल नहीं आता तो शहर उदासियाँ ओढ़ लेता है। तब
समाजसेवक, जनसेवक और भइये दिल्ली और लखनऊ की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगते हैं, जैसे
बारिश की आस में किसान आसमान की ओर ताकता रहता है। बोतलबंद मिनरल वाटर ‘यूज़’ करने वाले केन
नदी को बचाने की बात करने लगते हैं, महंगी कारों में घूमने वाले सर्वहारा समाज के
दुखों-कष्टों की वेदना में व्यथित हो उठते हैं और चेहरे पर मायूसी का-मासूमियत का
लेबल चिपकाकर भरोसा जीतने कोशिशें होने लगती हैं। शहर की राजनीतिक नब्ज़ इसी तरह
असामान्य-असहज होकर धड़कती ही रहती है, कभी तेज- कभी धीमी।
इन सबसे अलग शहर का सबसे अहम वर्ग है, जो मॉडर्न स्टाइल के कपड़े पहनता है, बम्बइया कट वाले बाल कतरवाता
है, अनोखे किस्म से। फर्राटेदार बाइक से पढ़ने भी जाता है। इधर कुछ एक वर्षों में ही
शहर में कोचिंग इंस्टीट्यूशनों की बाढ़-सी आ गई है, लिहाजा शहर की ‘शिक्षा
संस्थाएँ’ सिमटकर
महज ‘परीक्षा
संस्थान’ बनकर
रह गईं हैं। परीक्षा दो-डिग्री लो और बेरोजगारी का बिल्ला टाँगकर घूमो। सरकारी
नौकरी के लिए रोजगार दफ़्तर के चक्कर लगाते, फॉर्म जमा करने के लिए साइकिलें
दौड़ाते युवाओं की संख्या भी शहर में कम नहीं। कोई बड़ी फैक्ट्री-वैक्ट्री न होने
के कारण बेकार टहलना और भी आसान।
इनके बावजूद चौक बाज़ार बाँदा, चाँदनी चौक से कमतर नहीं।
देर रात तक गुलज़ार रहने वाला चौक बाज़ार शहर की समृद्धि की निशानी है। यह अलग बात
है कि ज्यादातर खरीददार इंदिरा नगर और सिविल लाइन्स जैसे पॉश इलाकों के बाशिंदे
होते हैं। बाकी तो खाली जेब में हाथ डाले हुए बाज़ार की रौनक देखते हुए महेश्वरी
देवी के दर्शन करके घर को लौट जाते हैं। महेश्वरी देवी अपने गगनस्पर्शी मीनारनुमा
मंदिर में बैठकर ऊँचे ख्वाब देखने को असीसती रहती हैं। नवरात्र में देवी गीतों
(उमाह) और पारंपरिक दीवारी नृत्य से महेश्वरी देवी मंदिर ही नहीं मानो सारा शहर ही
पुरनिया हो जाता है।
चौक बाज़ार से आगे बढ़ें तो शंकर गुरु चौराहा आता है। शंकर
गुरु हलवाई के वंशज तो शहर छोड़कर चले गए, लेकिन बाँदा के मशहूर सोहन हलवा के कारण
याद कायम है। ऐसे ही बोड़ाराम हलवाई के लड़कों-नातियों ने खुद को असली वारिस सिद्ध
करने का शांतियुद्ध छेड़ रखा है—“बोड़ेराम की असली दूकान”। अब अगर सभी असली हैं तो नकली कौन ? यह असली-नकली
का भेद शहर को आज नहीं पता चल सका। अगर आपको पता चले तो बताइएगा जरूर।
शंकर गुरु चौराहे से मनोहरीगंज पहुँचा जा सकता है। कहा जाता
है कि वर्तमान कालवनगंज मुहल्ला जिस भू-भाग पर बसा है, वहाँ कभी बड़ा-सा तालाब हुआ
करता था। 18वीं शताब्दी के मध्य में जब छत्रसाल के पौत्र राजा गुमान सिंह ने बाँदा
को अपना मुख्यालय बनाया तब उन्होने इस तालाब की मरम्मत कराई, लिहाजा इसे राजा का
तालाब कहा जाने लगा। अंग्रेज हुक्मरान मिस्टर रिचर्डसन के उत्तराधिकारी मिस्टर
मेनवेरिंग ने इस तालाब की पुराई करवाकर आबादी बसाई। कोतवाली की तरफ उन्ही के नाम पर
एक मोहल्ला मनोहरी गंज के नाम से बन गया।
मनोहरी गंज के आगे अलीगंज है, जहाँ सेठ जी के अहाते में आज
भी रामा जी के वंशज मराठी ब्राह्मण रहते हैं और यहाँ की मिट्टी में आज भी
मराठाकालीन बाँदा की गौरवशाली परंपरा को महसूस किया जा सकता है। यहीं पर
हिंदू-मुस्लिम एकता और सौहार्द का प्रतीक रामा जी का इमामबाड़ा है। लाख बदलाव आ
जाने के बाद भी, राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान भी बाँदा ने रामा जी द्वारा स्थापित
परंपरा को नहीं छोड़ा, इसीलिए चाहे ईद हो या दशहरा, सारे बाँदावासी मिलजुल कर
मनाते हैं।
लखनऊ और दिल्ली से लाए गए बीजों से शहर में ऐसी मजलिसें और
परिषदें पैदा हो गईं हैं जो जबरिया भय का भूत दिखाकर शहर को आतंक और खौफ का चादर
ओढ़ाना चाहती हैं। इसके बावजूद कव्वाली और मुशायरे के दौर चलते ही रहते हैं और
छोटी बाजार से निकलने वाली प्रभात फेरी तो मानो यहाँ के बाशिंदों के जीवन का ही
अंग है। दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए दौड़ते-भागते लोगों को नबाब टैंक में
लगने वाले कजली मेले और केन किनारे भूरागढ़ में लगने वाले नटबली के मेले का
बेसब्री से इंतजार रहता है। नटबली मेले के बहाने भूरागढ़ की राजकुमारी और बल्ली नट
की प्रेम कहानी के दुखद अंत को शहर याद करता है। यह अलग बात है कि शहर में अब चंद
प्रेम कहानियाँ विफल भी हो जाती हैं या फिर बड़े विद्रूप तरीके से समाप्त हो जाती
हैं।
दीवान कीरत सिंह द्वारा रनगढ़ की तर्ज पर बनवाए गए भूरागढ़
को बाँदा में बुंदेला शासकों के शासन का प्रतीक कहा जा सकता है। भूरागढ़ अपने
अस्तित्व को बचाए रखने में भले ही विफल हो गया हो, फिर भी इसके जर्रे-जर्रे में
गर्व की अनुभूति की जा सकती है। सन् सत्तावन की गदर में फाँसी पर लटकाए गए हजारों
रणबाँकुरों की आवाजें आज भी भूरागढ़ में गूँजती हैं। जब तक बाँदा में अंग्रेज
हुक्मरान रहे, भूरागढ़ के सामने से गुजरते हुए सम्मान के तौर पर हैट उतार लेते थे।
अब देशी हुक्मरानों को इसकी जरूरत महसूस नहीं होती। तेजी से बढ़ती हुई आबादी ने
शहर के दर्जनों तालाबों और सार्वजनिक स्थलों को लील लिया है।
भू-अभिलेखों में दर्ज है कि बाँदा की आबादी उत्तर की ओर
भवानीपुरवा और दक्षिण की ओर लड़ाकापुरवा में थी। भवानी और लड़ाका मउहर राजपूत वंश
के शासक ब्रजराज (ब्रजलाल) के भाई थे और यहाँ उनका आधिपत्य था। नए-नए मुहल्लों के
पीछे यह नाम तो छिप ही गए, आबादी के विस्तार ने तमाम खेतों को-पुरवों को विहार, कॉलोनी
और नगर में बदल दिया। आस-पास के गाँवों के लोग शहरी हो जाने के फेर में बाँदा में
बस गए।
शहर में बन गए बड़े-बड़े और महँगे होटल, लॉज व मैरिजहाउस
सुनियोजित तरीके से शहर को आधुनिक बनाने के महान् उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहे
हैं। रंग-बिरंगी रौशनियों के बीच आर्केष्ट्रा की धुनों पर थिरकते युवा और चंद
बुजुर्ग कदम शहर को आधुनिकता की ओर ले जाने के लिए सक्रिय दिखाई देते हैं। वेलेन्टाइन्स
डे और फ्रेन्डशिप डे जैसे ‘इम्पोर्टेड डेज़’ से भी शहर अनजान नहीं है। इसीलिए कुछ खास दिनों में
बुके और गिफ्ट आइटम की दुकानें शहर में आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ जाती हैं। अजीब-सा
मादक और खुश्नुमा माहौल बन जाता है, जिंदगी की तमाम समस्याओं से जूझते लोगों से
दूर कहीं। इधर दो-एक वर्षों के भीतर शहर में खुल गए ‘बीयर बार’ ने आधुनिकता
के नए सोपान खोले हैं। ‘डांस बार’ तो नहीं हैं, लेकिन शहर को इनकी जरूरत महसूस होने लगी है।
दूसरी ओर, कड़कड़ाती ठंड में रजाई ओढ़कर रामलीला देखनेवालों,
छोटी बाजार के श्रीकृष्णरास मंडल में होने वाली रासलीला देखने के लिए घंटों इंतजार
करने वालों और आल्हा प्रतियोगिता में रात भर तन्मयता के साथ आल्हा सुनने वालों,
कव्वाली–मुशायरों में वाह-वाह करने वालों की तादाद भले ही कम हो गई हो, लेकिन
परंपराएँ जिंदा हैं।
शहर की जीवन-धारा कही जा सकने वाली केन नदी भी तमाम रिवाजों
से, तीज-त्योहारों-पर्वों और उत्सवों से गाहे-ब-गाहे जुड़ जाया करती है-- बिना
जाति, धर्म का भेद किए हुए। बच्चों की तरह घुटुरुअन चलती केन, अल्हड़ जवानी की
इठलाती केन और बूढ़ी-शांत-वीतरागी केन, गोविंद मिश्र की कहानियों और केदारबाबू की
कविताओं की प्यास बुझाती केन शायद अब शहर के लिए नदी मात्र रह गई है, उसका
अस्तित्व सिमटने लगा है। केदारबाबू अगर जिंदा होते तो उन्हें कितना दुख होता, शहर
नहीं जानता।
अस्तित्व तो भूरागढ़ किले, निम्नी पार वाले महल, बारादरी और इनकी जैसी तमाम इमारतों का भी सिमट गया है। बहुत से लोग अपनी संततियों को इन “खंडहरों” के बारे में बता पाने, बुंदेलखंड के गर्वपूर्ण अतीत से परिचित करा पाने में असमर्थ हो जाते हैं। बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत की भग्नावशेष निशानियों के साथ ही खपरैल-मिट्टी वाले कच्चे मकानों का अस्तित्व भी सिमट रहा है, जहाँ प्रेम, स्नेह, सौहार्द और भाईचारा होता था, संयुक्त परिवार होते थे, जहाँ पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को तमाम ज्ञान की बातें अनायास ही मिल जाती थीं, दादी-नानी की रोचक कहानियाँ मिलती थीं। अथाई लगती थी, चौपालें होती थीं, लोगों के दुख और सुख सबके हो जाते थे, कुल मिलाकर जीवन सरल, सहज, सुखद और सुंदर हो जाता था।
पुरातनता बनाम नवीनता के संघर्ष को; सामाजिक और मानवीय मूल्यों, संस्कारों व
जीवन-स्तर में आ रहे बदलाव को यहीं से जाना और समझा जा सकता है। बाँदा जैसा हर शहर
संक्रांति काल के अधकचरे दौर में फँसा रहता है, हमेशा, हर सदी में। उसके लिए अपने
अतीत को छोड़ पाना जितना कठिन होता है, उतना ही वर्तमान की गति के साथ दौड़ पाना
भी कठिन होता है।
यह कहानी बाँदा जैसे हर शहर की हो सकती है। बुंदेलखंड के
तमाम शहरों और कस्बों की हो सकती
है,जिन्हें मुम्बई और दिल्ली की हवा तो मिलती है, लेकिन वैसा पोषण नही मिलता,
लिहाजा कुपोषण के शिकार होकर वे बड़े विकृत तरीके से विकसित होते हैं।
{नगर पालिका परिषद्- हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) की वार्षिक पत्रिका बुंदेली दरसन 2011, अंक 04, में प्रकाशित}
{नगर पालिका परिषद्- हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) की वार्षिक पत्रिका बुंदेली दरसन 2011, अंक 04, में प्रकाशित}
राहुल जी कितना धन्यवाद करूँ... क्योकि मै खुद बांदा ज़िले का निवासी होने के बावजूद इतना कुछ नहीं जानता था ....कोशिश करूंगा की आपके क्रम को आगे बढ़ा सकूँ.... पुनः साधुवाद .....
ReplyDelete---सुशील कुमार अवस्थी, तिंद्वारी, बांदा yours.aadittya@gmail.com