Sunday 25 September 2011


सोमनाथ मंदिर : अतीत की यात्रा का सुंदर, रोचक, दुखद प्रसंग
 ह बात तेरह दिसंबर, 2010 की है। मैं अपने अभिन्न मित्र राकेश कुमार गौतम मेजर के साथ चित्रकूट में घूम रहा था। घूमते-घूमते बात बुंदेलखंड में शैव मत के विस्तार और उसके प्रमुख केंद्रों तक पहुंच गई। दरअसल, मुझको बसारी (मध्य-प्रदेश) में होने वाले बुंदेली उत्सव-2010 की स्मारिका के लिए एक आलेख लिखना था। इस आलेख का विषय तलाशते-तलाशते मन में आया कि क्यों न बुंदेलखंड में फैले शैव मत के ऊपर कोई आलेख लिखा जाए। बातों के दौरान ही मेरे मित्र राकेश ने बताया कि कर्वी से मानिकपुर मार्ग पर स्थित चर गांव में एक शिव मंदिर है, जिसे सोमनाथ मंदिर कहा जाता है। राकेश ने बताया कि मैं भी वहां नहीं गया हूं, लेकिन उस मंदिर के बारे में सुनकर अक्सर इच्छा होती है कि वहां जाया जाय।
बुंदेलखंड में सोमनाथ, नाम सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। यह तो सच है कि शिवभक्त राजा, शासक या धर्मभीरु लोग अपने नाम के साथ नाथ या ईश्वर जोडकर शिवमंदिर का निर्माण कराया करते थे, किंतु सोमनाथ का नाम प्रायः गुजरात के प्रभासपत्तन नामक स्थान पर चालुक्य शासकों द्वारा बनवाए गए सोमनाथ मंदिर के लिए रूढ हो गया था। फिर पाठा की दुर्गम विंध्य श्रृंखलाओं के बीच सोमनाथ मंदिर, देखने और जानने-समझने की उत्कट लालसा को रोक नहीं सका।
दिसंबर और जनवरी, दो माह बीत गए। कभी राकेश जी की व्यस्तता, तो कभी मेरी व्यस्तता, किंतु इस बीच सोमनाथ मंदिर जाने की इच्छा बनी ही रही और 01 फरवरी को हम दोनों सोमनाथ मंदिर के लिए चल ही पडे।
सोमनाथ मंदिर पहुंचकर हम दोनों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। मंदिर पुराना अवश्य होगा, धार्मिक आस्था का बडा केंद्र भी होगा, लेकिन मंदिर का स्थापत्य मन को मोह लेने वाला होगा, ऐसा हम लोगों ने सोचा भी नहीं था। मंदिर एक छोटी सी वृत्ताकार पहाडी पर था। पहाडी से लगा हुआ एक पक्का रास्ता भी कुछ दूर तक था, जो आगे कच्चा और ऊबड-खाबड था और चर गांव में जाकर मिल जाता था।
मंदिर तक पहुंचने के लिए कुछ सीढियां भी बनी हुई थीं। सीढियों के पास ही लाल बलुए पत्थर में बनी हुई मुगदरधारी योद्धा और नृत्यगणेश की मूर्तियां रखी हुईं थीं। इसके साथ ही चित्रात्मक प्रस्तरों के भग्न खंड रखे हुए थे। संभवतः इन प्रस्तरों को गांव के लोगों ने इस प्रकार रखा होगा। इस तरह मंदिर के दरवाजे पर पडी हुई भावात्मक प्रस्तर कलाकृतियों, भग्न मूर्तियों ने ही इस बात को साबित कर दिया था कि मंदिर कितना पुराना होगा और इसका स्थापत्य भी अपने आप में बेजोड रहा होगा।
मंदिर में ऊपर पहुंचकर देखा तो चारों ओर भग्न प्रस्तर, गुंबदों के हिस्से, मूर्तियां और विभिन्न प्रस्तर कलाकृतियां पडी हुईं थीं। समूची वृत्ताकार पहाडी पर मंदिर बना रहा होगा, ऐसा अनुमान लग रहा था, किंतु चारों तरफ मैदान के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं था। एक खंडहर, जिसे मंदिर कहा जा सकता था, वही शेष था और वह भी काफी हद तक गिर चुका था।
भग्न खंडहर में अष्टकोणीय मण्डप था, जिसकी छत गिर चुकी थी। मण्डप के गुंबदों में अप्सराओं की सुंदर मूर्तियां थीं। मण्डप के आगे गर्भगृह जैसा था, जहां शिवलिंग स्थापित था। यह गर्भगृह सुरक्षित लगता था, किंतु इसमें हुए नवनिर्माण को देखकर लगता था कि इसमें कुछ बदलाव हुआ है, यह किस कारण से हुआ, इसको कुछ कहा नहीं जा सकता।
गर्भगृह और मण्डप का पिछला हिस्सा एकदम ध्वस्त हो चुका था। इसको देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि यदि इस बची-खुची इमारत को बचाने की कोशिश नहीं की जाती तो यह भी गिर जाएगी।
इस खंडहरनुमा गर्भगृह और मण्डप की प्रदक्षिणा के लिए एक रास्ता जैसा बनाया गया था और इसके दोनों ओर टूटी-फूटी मूर्तियों को, मण्डप के भग्नावशेषों को और गुंबदों-प्रस्तरों को व्यवस्थित करके रखा गया था। इसी प्रदक्षिणा-पथ में विभिन्न आकार-प्रकारों के शिवलिंग रखे हुए थे, इनको देखकर ऐसा अनुमान होता था कि जब यह मंदिर पूरी तरह से बना रहा होगा, तब इसमें छोटे-छोटे कई शिव मंदिर रहे  होंगे। मंदिर के पीछे की ओर वाल्मीकि नदी बहती है, जो आगे चलकर वारुणी नदी में मिल जाती है।
मंदिर के पूर्वोत्तर में बरकोठ नाम का गांव है, जहां पर कुछ ध्वंसावशेष हैं। पूर्व की ओर लालापुर की पहाडी, देउरा-नेउरा की पहाडी और लहरी पुरवा है, यह सभी ऐतिहासिक महत्त्व के स्थल हैं और इन स्थलों पर ध्वंसावशेष आदि भी प्राप्त होते हैं। मंदिर के पुजारी रामकृष्णदास त्यागी से हमें यह जानकारी मिली कि इन स्थानों पर तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य हैं, जो संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रहे हैं।
इतना सब जानने-समझने के बाद हम लोग सोमनाथ मंदिर से लौट पडे। वापस आकर अपनी मित्र मंडली को और कुछ वरिष्ठ लोगों को सोमनाथ मंदिर की प्राचीनता के बारे में तथा इसकी दयनीय स्थिति के बारे में बताया। और फिर यह तय किया गया कि मंदिर के संरक्षण के लिए शासन-प्रशासन को लिखा जाय, लिहाजा एक ज्ञापन 07 फरवरी,2011 को चित्रकूट के मंडलायुक्त को देकर मंदिर को संरक्षित पुरातत्त्व धरोहर के रूप में घोषित किए जाने और इसे पुरातत्त्व संरक्षण विभाग को दिए जाने की मांग की गई।
इसी बीच यह विचार बना कि मंदिर के ऊपर एक वृत्तचित्र भी बनाया जाय। अतः राकेश गौतम, अर्जुन प्रकाश गुप्त, अनिल त्रिपाठी और मैं, चारों लोग एक बार फिर सोमनाथ मंदिर पहुंचे। बुंदेलखंड का यह क्षेत्र बघेल शासकों के आधीन था, इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा था कि इस मंदिर का निर्माण बघेलों द्वारा कराया गया होगा।
हम लोगों ने दोबारा सोमनाथ मंदिर पहुंचकर गहनता के साथ इधर-उधर पड़ी भग्न प्रस्तर मूर्तियों को देखा। इनमें से कई मूर्तियां दैनंदिन जीवन को व्याख्यायित कर रहीं थीं। इन मूर्तियों में से कुछ युद्ध की भी थीं, कुछ मातृ रूप प्रकट करती मूर्तियां थीं, कुछ मूर्तियों में दैवासुर संग्राम दर्शाया गया था और ऐसी ही एक विशालकाय प्रतिमा शेषशायी विष्णु की प्रतिमा भी थी। गुंबदों पर बनी विभिन्न मूर्तियों के साथ ही अन्य तमाम प्रस्तर मूर्तियों की अपनी एक विशेषता थी कि उनके सिर के ऊपर गूमड़ जैसा बना हुआ था, जैसे कोई छोटा-सा शिवलिंग बना हो। इसके साथ ही मंदिर के स्थापत्य को देखकर यह कहा जाना कि मंदिर बघेलों का बनवाया हुआ है, सही नहीं लग रहा था। इस कारण किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाय हम लोग मंदिर की वीडियो रिकार्डिंग करके वापस लौट आए।
हम लोगों की एक बार फिर तैयारी हुई, सोमनाथ मंदिर जाने की। इस बार हम लोगों का नेतृत्व बुंदेलखंड के जाने-माने इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली ने किया। 18 फरवरी, 2011 को हम चार लोगों के साथ ही महेंद्र पटेल, दीपू दीक्षित, प्रमोद विश्वकर्मा आदि दस लोग एक बार फिर सोमनाथ मंदिर पहुंचे। इस बार विभिन्न समाचारपत्रों के संवाददाता भी हम लोगों के साथ मंदिर पहुंचे। वीडियो रिकार्डिंग भी हुई और मंदिर के हर-एक हिस्से का, कोने का गहन अध्ययन भी हुआ। और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह मंदिर दूसरी से चौथी शताब्दी के बीच गुप्तकाल में बनवाया गया होगा, इस मंदिर का स्थापत्य भी इस तथ्य को पुष्ट करता है। यह मंदिर कालिंजर के नीलकंठ मंदिर की तरह और रौली गोंडा में बने शिव मंदिर की तरह का है। इस मंदिर की मूर्तियों के सिर पर बने हुए गूमड़ या शिवलिंग भारशिवों के प्रतीक थे।
    गुप्त शासकों का इस क्षेत्र में परोक्ष शासन रहा है। गुप्त शासकों के पूर्व यहां पर नागवंशी भारशिवों का शासन था, जिनकी राजधानी नचना-कुठार (पन्ना, म.प्र.) में थी और उपराजधानी भारगढ़ (वर्तमान बरगढ़) थी। बरकोठ या भारकोट का इतिहास भी ऐसे ही इनसे जुड़ा होगा। भारशिव शासक शैव मत के कट्टर अनुयायी थे और सिर पर शिवलिंग धारण किये हुए भारशिव प्रतिमाएं इनका प्रतीक होती थीं। गुप्त शासकों के शक्तिशाली होने पर नागवंशी शासकों ने उनसे रोटी-बेटी का संबंध स्थापित किया और इस तरह इस क्षेत्र के नागवंशी शासक गुप्त राजाओं के माण्डलिक बन गए। सोमनाथ मंदिर में मिलने वाली भारशिव प्रतिमाएं और इनके साथ ही शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह मंदिर गुप्तकाल की स्थापत्य कला की प्रेरणा लेकर, गुप्तकाल के स्थापत्य की तर्ज पर भारशिवों द्वारा बनवाया गया होगा।
भारशिव (नागवंशी) शासकों की यह भी विशिष्टता रही है कि वे आदिवासी जीवन जीते हुए तथा शैव साधना करते हुए विधर्मी और परराष्ट्राक्रांताओं को पछाड़ते रहे हैं। यदि इतिहास को खंगाला जाय तो यह समझ में आता है कि गुप्त शासकों की सत्ता स्थापित करने और उनके शासन को समृद्ध, सफल बनाने में नागवंश के शासकों का अमूल्य योगदान रहा है। जब बुंदेलखंड में गुप्त शासकों की पकड़ धीमी पड़ने लगी तब बुंदेलखंड में गुप्त शासकों के मांडलिक वाकाटक शासकों का आधिपत्य कायम हुआ। वाकाटक शासकों के प्रतीक तो प्राप्त होते हैं, किंतु नागवंश के शासकों के प्रतीक बहुत कम ही मिलते हैं। इतिहास में दर्ज है कि नागवंशी शासक युद्ध आदि में व्यस्त रहे और इन्होने अपने शासन के प्रतीक स्थापित नहीं किये। इस कारण यह कहा जा सकता है कि यदि यह मंदिर नागवंश के शासकों द्वारा बनवाया गया है तो इस अनूठे, अद्वितीय और अतुलनीय मंदिर को दुर्लभ सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
स्थानीय ग्रामवासी बताते हैं कि चालीस वर्ष पहले यह मंदिर काफी हद तक ठीक स्थिति में था। बीहड़ में होने के कारण यह आक्रांताओं की नज़र में नहीं आया और शायद इसी कारण यह सुरक्षित भी रह सका। किंतु बाद में हम लोगों ने ही धन के लालच में अपनी धरोहर को नष्ट करने का दुष्कृत्य किया। इस मंदिर की दुर्लभ मूर्तियां चोरी हो गईं और कई तरीके से इस मंदिर को नुकसान पहुंचाया गया।
इस मंदिर में हम लोगों की यात्रा सुखद और दुखद, दोनों ही पक्ष रखती है। सुखद इस मायने में कि हमें अपने अतीत के एक स्वर्णिम अध्याय को, एक प्रतीक को देखने का, जानने-समझने का अवसर मिला; और दुखद इस मायने में कि यह मंदिर अपने अस्तित्व की आखिरी साँसें गिन रहा है। हम लोगों ने इस मंदिर के स्थापत्य को, इसके अतीत को, इसकी विशिष्टता को और इसके परिवेश को केंद्र में रखकर एक वृत्तचित्र भी बनाया। इसकी कई प्रतियां तैयार कराईं और लोगों में वितरित करके अपने अतीत की इस पुरातन धरोहर को बचाने की अपील की। मीडिया के माध्यम से जन-जागरूकता लाने और शासन-प्रशासन का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराने का कार्य किया। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को ज्ञापन दिया, पत्र भी लिखे। इस काम में स्थानीय ग्रामवासियों के साथ ही इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के लोगों का, बुद्धिजीवियों का, छात्रों का और अपने अतीत के प्रतीकों से लगाव रखने वाले लोगों का भरपूर सहयोग मिला।
लेकिन यह दुखद है, खेदजनक है कि हम सरकार की तंद्रा को भंग नहीं कर सके। पुरातत्त्व विभाग ने आज तक इस मंदिर में अपनी हाजिरी दर्ज कराने की भी जहमत नहीं उठाई है। सरकारी अमला भी मौन होकर बैठा है। यह बुंदेलखंड का दुर्भाग्य है कि हम तरक्की की मुख्यधारा में नहीं हैं। सोमनाथ मंदिर जैसी अन्य ऐतिहासिक धरोहरें भी यहां पर हैं, जिन्हें संरक्षण की जरूरत है; जो देशी ही नहीं, विदेशी पर्यटकों को भी अपनी ओर आकृष्ट कर सकती हैं, किंतु इस ओर किसी का ध्यान नहीं।
शायद सरकार की नींद तब टूटेगी, जब बड़ा आंदोलन खड़ा होगा। हमारे इस छोटे-से प्रयास को आपके सहयोग की जरूरत है।                                                                                                                        
                                          डॉ. राहुल मिश्र

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